रविवार, 4 अगस्त 2013

पागल

मैंने पाया सर्वत्र सदा खोया खोया खुद से रमता !
मद मस्त सदा किंकर्तव्यविमूढ़ सुकर सा दिखता !!
पाने को दाने खो होश इधर उधर गिरता पड़ता !
भूख मिटाने पाए नहीं दाने सड़क किनारे सड़ता !!१!!
वह और कोई नहीं है पागल हर कोई यही कहता !
पर सच और वह सब सम्पन्न कभी हुआ करता !!
उसका ठाट देख प्रतिभा पेख हर कोई तरसता !
दे दिया सब सबको अब इस अवस्था में रहता !!२!!
ज्ञानी ज्ञान शानी शान मानी मान शून्य हो जब !
विधि मार से समय चाल से हो जाय  संज्ञाहीन तब !!
लूटाया नहीं लूट लिया अपनो ही  ने जब उसका सब  !
लूट कर छोड़ दिया टूट कर बोल दिया उसे पागल तब !!३!!
पर हित पर  ब्रहम सा है न कोइ इस जहां !
पर जनहित रत नित जन अभी भी है यहाँ !!
स्व कर्मरत अडिग पथ पर रहता कौन कहां !
जब ईमानदार कर्तव्यपरायण पागल है यहाँ !!४!!
दूध की मख्खी सा भोजन के बाल सा जो स्वयं सदा !
पर को समाज संकट पथ कंटक बताने को है आमदा !!
जनतंत्र में जन शक्ति पा हो गया है आज वह विपदा !
कर रहा सब जगह सब नियंत्रण देखो पागल ही है सदा !!५!!   

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