मदिरा सुरा शराब सा है नहि कोइ नशा!
धन मान तन का राज व बिगाडती सब दशा!!
जब हो ललक झलक पाने की
टिकती नहि पलक सिवाय मय खाने की!
गिरते हर पल अपनी व अपनो की नजर
पर की नजरो से कब गिर जाते होती न इन्हे खबर!
एक ऐसी बला के सामने बल खाते लडखडाते
अपना सब कुछ गवाते बडबड बडबडाते!
अपने मन मे अपने आप को धन्य मानते
संसार की सबसे बडी बुराइ को गले लगाते!
जो निर्विवाद जननी है------
शराबी शबाबी कबाबी व चरित्रहीन इन्सान की!
जो पा नही सकता कही भीख भी
अपने व अपनो के मान सम्मान की!!
मत करो टच एक बूंद बिगाडती है यह लत !
सुधरे दूर हो मद से यह लालसा सत सत !!
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