प्रारम्भिक जीवनः-
आप पधारे रंगे हुवे श्रीराम भक्ति के रंग में।खुली आपकी वाणी पहली बार जन्म के संग में।मुख से भई मधुर धुनि राम-राम कोकिल सी।गुन गायक सीता रामजी के।।
आँख दिखाकर दुष्ट विधर्मी भक्त जनों को डाटे।किसके मुँह में दाँत जो बात हमारी काटे।
प्रगटे दाँत लेकर बत्तीस मची हलचल सी।
गुन गायक सीता रामजी के।।
गुरुदेव राजेश्वरानंदजी के उक्त विचार और प्रचलित जनश्रुति के अनुसार शिशु बारह महीने तक माँ के गर्भ में रहने के कारण अत्यधिक हृष्ट पुष्ट था और उसके मुख में बत्तीस दाँत दिखायी दे रहे थे। जन्म लेने के साथ ही उसने राम नाम का उच्चारण किया जिससे उसका नाम रामबोला रखा गया। रामबोला के जन्म के दूसरे ही दिन माँ का निधन हो गया। पिता ने किसी और अनिष्ट से बचने के लिये बालक को चुनियाँ/ मुनिया नाम की एक दासी को सौंप दिया और स्वयं विरक्त हो गये। जब रामबोला साढे पाँच वर्ष का हुआ तो चुनियाँ भी नहीं रही। वह गली-गली भटकता हुआ अनाथों की तरह जीवन जीने को विवश हो गया।
स्वयं तुलसी ने लिखा है कि वे बाल्यकाल से ही माता-पिता द्वारा परित्यक्त कर दिये गये तथा संतत्प एवं अभिशप्त की तरह इधर-उधर घूमा करते थे—
मातु पिता जग जायि तज्यो, विधि हूँ न लिख्यो कछु भाल भलाई।
बारे ते ललात बिलतात द्वार द्वार दीन, चाहत हौं चारि फल चारि ही चनक कौं।
समुझी नहिं तसि बालपन तब अति रहेउँ अचेत॥
भाषाबद्ध करबि मैं सोई। मोरें मन प्रबोध जेहिं होई॥
समय करवट लेता रहा ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी, गुरुवार को 29 वर्ष की आयु में राजापुर से थोडी ही दूर यमुना के उस पार स्थित एक गाँव की अति सुन्दरी भारद्वाज गोत्र की कन्या रत्नावली के साथ उनका विवाह हुआ। एक बार तुलसीराम ने भयंकर अँधेरी रात में उफनती यमुना नदी तैरकर पार की और सीधे अपनी पत्नी के शयन-कक्ष में जा पहुँचे।
पहुँच प्रिया के सन्मुख तुलसी खड़े थे खोये-खोये।
रत्ना बोली मैं तो जागी आप अभी तक सोये।
त्यागो काम राम की भक्ति करो मेरे मनसी।
गुन गायक सीता रामजी के।।
सदगुरू चक्रवर्ति सुचि सरल संत श्री तुलसी।
सुनकर शुभ संदेश आपके मन में भाव भर आया।
प्रभु पद प्रीति प्रेरणादायिनी देवी को शीश नवाया।
चल दिये राम दरस हित लगन बड़ी आकुल सी।
गुन गायक सीता रामजी के।
रत्नावली इतनी रात गये अपने पति को अकेले आया देख कर आश्चर्यचकित हो गयी। उसने लोक-लाज के भय से जब उन्हें चुपचाप वापस जाने को कहा तो वे उससे उसी समय घर चलने का आग्रह करने लगे। उनकी इस अप्रत्याशित जिद से खीझकर रत्नावली ने स्वरचित एक दोहे के माध्यम से जो शिक्षा उन्हें दी उसने ही तुलसीराम को तुलसीदास बना दिया। रत्नावली ने जो दोहा कहा था वह इस प्रकार है:
धिक – धिक ऐसे प्रेम को, कहाँ कहौं मैं नाथ।।
अस्थि चर्म मय देह मम, तामें ऎसी प्रीति।
तैसी जो श्री राम में, होति न तब भवभीति ।।
देवी रत्नावली की बातों को सुनते ही उन्होंने उसी समय पत्नी को वहीं उसके पिता के घर छोड़ दिया और राम में लीन हो गये।लगभग 20 वर्षों तक इन्होंने समस्त भारत का व्यापक भ्रमण किया, जिससे इन्हें समाज को निकट से देखने का सुअवसर प्राप्त हुआ। ये कभी काशी, कभी अयोध्या और कभी चित्रकूट में निवास करते रहे। अधिकांश समय इन्होंने काशी में ही बिताया।इसी बीच गोस्वामी तुलसीदास जी ने पूज्य गुरु नरहरिदास से सुनी कथा को मानव कल्याण हेतु महाकव्य रामचरितमानस का रुप दिया। काशी के सुप्रसिद्ध विद्वान श्री मधुसूदन सरस्वती नाम के महापण्डित ने रामचरितमानस पर बड़ी प्रसन्नता प्रकट किया और मानस के बारे में यह अद्भुत विचार व्यक्त किया--
श्री हनुमानजी से भेट
गोस्वामीजी काशी में रहकर जनता को राम-कथा सुनाने लगे। ऐसी प्रसिद्ध किंवदंती है कि कथा के दिनों रात्रि को शौच के बाद जब तुलसीदासजी लौटते थे उस समय उनके रास्ते में एक पेड़ था वहाँ किंचित ठहरते और लोटे के बचे जल को उस पेड़ के जड़ पर डाल देते ,उस पेड़ पर एक प्रेत रहता था, एक दिन मनुष्य की आवाज में प्रेत ने अपनी व्यथा कथा कहा और तुलसीदासजी से वरदान माँगने को कहा। गोस्वामीजी ने उससे राम से मिलाने का आग्रह किया तो उसने अपनी मजबूरी बतायी ।लेकिन राम से जो उन्हें मिलवा सकता है उनके बारे में बताने की ने बात की। ओ कौन हनुमानजी। हनुमानजी कहाँ मिलेगें उसने पता बतलाया।
यत्र यत्र रघुनाथ कीर्तनं
तत्र तत्र कृतमस्तकाञ्जलिम्।
वाष्प वारि परिपूर्ण लोचनं
मारुतिं नमत राक्षसान्तकम्॥
।।राम चरित सुनिबे को रसिया।।
अगला प्रश्न हम पहचानेगे कैसे- प्रेत ने बताया जो कथा में सबसे पहले आये सबसे बाद में जाये वही हनुमानजी हैं।एक स्थान पर कथा शुरु होने वाली रही गोस्वामी जी पहुँचे,वहाँ पहले से एक कोढ़ी बैठा हुवा था ,कथा समाप्ति तक वह वही रहा ,सभी चले गये दो नहीं।गोस्वामी जी से कोढ़ीने जाने का निवेदन किया पर गोस्वामीजी ने उनसे निवेदन किया ,दोनों एक दूसरे से निवेदन करते रहें अचानक गोस्वामी जी कोढ़ी के पैरों पर गिर गये कोढ़ी उन्हें हटाने लगा तब गोस्वामीजी ने निवेदन किया मैं आपको पहचान गया हूँ कृपया आप अपने मूल रुप का दर्शन देवें--फिर क्या-/
कंचन बरन बिराज सुबेसा।
कानन कुण्डल कुंचित केसा।
हाथ बज्र अरु ध्वजा बिराजे।
काँधे मूँज जनेऊ साजे।।
हनुमान जी से मिलकर तुलसीदास ने उनसे श्री राम का दर्शन कराने की प्रार्थना की। हनुमान्जी ने कहा- "तुम्हें चित्रकूट में दर्शन होंगें।" इस पर तुलसीदास जी चित्रकूट की ओर चल पड़े।
भगवान श्री राम से भेट
चित्रकूट पहुँच कर उन्होंने रामघाट पर अपना आसन जमाया। एक दिन वे प्रदक्षिणा करने निकले ही थे कि एकाएक मार्ग में उन्हें श्रीराम के दर्शन हुए। उन्होंने देखा कि दो बड़े ही सुन्दर राजकुमार घोड़ों पर सवार होकर धनुष-बाण लिये जा रहे हैं। तुलसीदास उन्हें देखकर आकर्षित तो हुए, परन्तु उन्हें पहचान न सके। तभी पीछे से हनुमानजी ने आकर जब उन्हें सारा भेद बताया तो वे पश्चाताप करने लगे। इस पर हनुमान जी ने उन्हें सात्वना दी और कहा प्रातःकाल फिर दर्शन होंगे।
संवत् 1607 की मौनी अमावश्या को बुधवार के दिन उनके सामने भगवान पुनः प्रकट हुए। उन्होंने बालक रूप में आकर तुलसीदास से कहा-"बाबा! हमें चन्दन चाहिये क्या आप हमें चन्दन दे सकते हैं?"
मंदाकिनी तट रामघाट पर प्रगटे दशरथ नंदन।
बोले मधुर वाणी में धनुर्धर बाबा दे दे चंदन।
सुनकर दशा आपकी भई बहुत विह्वल सी।
सदगुरू चक्रवर्ति सुचि सरल संत श्री तुलसी।
श्री रघुवीर खड़े है सन्मुख तुलसी क्यों है रोता।
सफल करो दृग हनुमानजी बोले बनकर तोता।
शोभा रामचन्द्र की देखो नित्य नवल सी।
हनुमान जी ने सोचा, कहीं वे इस बार भी धोखा न खा जायें, इसलिये उन्होंने तोते का रूप धारण करके यह दोहा कहा:
तुलसीदास भगवान श्री राम जी की उस अद्भुत छवि को निहार कर अपने शरीर की सुध-बुध ही भूल गये। अन्ततोगत्वा भगवान ने स्वयं अपने हाथ से चन्दन लेकर अपने तथा तुलसीदास जी के मस्तक पर लगाया और अन्तर्ध्यान हो गये।। इस प्रकार बाबा को भगवान के दर्शन हुवे।चित्रकूट में राम घाट पर तोतामुखी हनुमानजी का मन्दिर और तुलसीदासजी का मन्दिर इस घटना के साक्षी हैं।
रचनाएँ
नागरी प्रचारिणी सभा काशी द्वारा प्रकाशित निम्न ग्रन्थ गोस्वामी तुलसीदास द्वारा विरचित बताये जाते हैं--
1-रामचरितमानस 2-रामलला नहछू 3-वैराग्य-संदीपनी 4-बरवै रामायण 5-पार्वती-मंगल 6-जानकी-मंगल 7-रामाज्ञाप्रश्न 8-दोहावली 9-कवितावली 10-गीतावली 11-श्री कृष्ण गीतावली 12-विनय पत्रिका 13-सतसई 14-छंदवाली 15-हनुमान बाहुक 16-हनुमान चालीसा आदि।
एनसाइक्लोपीडिया ऑफ रिलीजन एंड एथिक्स' में ग्रियर्सन ने भी उपर्युक्त प्रथम बारह ग्रन्थों का उल्लेख किया है।
सैकड़ो वर्ष पूर्व आधुनिक प्रकाशन-सुविधाओं से रहित उस काल में भी तुलसीदास का काव्य जन-जन तक पहुँच चुका था। यह उनके कवि रूप में लोकप्रिय होने का प्रत्यक्ष प्रमाण है। मानस जैसे वृहद् ग्रन्थ को कण्ठस्थ करके सामान्य पढ़े लिखे लोग भी अपनी शुचिता एवं ज्ञान के लिए प्रसिद्ध होने लगे थे।इनमें से रामचरितमानस, विनय-पत्रिका, कवितावली, गीतावली जैसी कृतियों के विषय में किसी कवि की यह आर्षवाणी सटीक प्रतीत होती है - पश्य देवस्य काव्यं, न मृणोति न जीर्णयति। अर्थात देवपुरुषों का काव्य देखिये जो न मरता न पुराना होता है।
वास्तव में तुलसीदासजी हिंदी – साहित्य की महान विभूति है ।उन्होंने रामभक्ति की मंदाकिनी प्रवाहित करके जन – जन का जीवन कृतार्थ कर दिया | रस,भाषा, छन्द, अलंकार, नाटकीयता , संवाद – कौशल आदि सभी दृष्टियों से तुलसी का काव्य अद्वितीय है ।उनके साहित्य में रामगुणगान , भक्ति – भावना , समन्वय , शिवम् की भावना आदि अनेक ऐसी विशेषताएं देखने को मिलती है , जो उन्हें महाकवि के आसन पर प्रतिष्ठित करती है ।इनका सम्पूर्ण काव्य समन्वयवाद की विराट चेष्ठा है । ज्ञान की अपेक्षा भक्ति का राजपथ ही इन्हें अधिक रुचिकर लगता है।
तभी तो श्रीबेनीमाधव ने लिखा है---
बेदमत सोधि-सोधि कै पुरान सबै , संत औ असंतन को भेद को बतावतो ।
कपटी कुराही कूर कलिके कुचाली जीव, कौन रामनामहू की चरचा चलावतो ॥
बेनी कवि कहै मानो-मानो हो प्रतीति यह , पाहन-हिये में कौन प्रेम उपजावतो ।
भारी भवसागर उतारतो कवन पार, जो पै यह रामायन तुलसी न गावतो ॥
गोस्वामी तुलसीदास जी एक ऐसी महान विभूति जिनको पाकर कविता-कामिनी धन्य हो गयी तभी तो महाकवि हरिऔधजी ने लिखा है---
कविता करके तुलसी न लेस ।
कविता लसी पा तुलसी की कला ।।
हिंदी साहित्य के कवियों के नाम आते हैं तो श्रेष्ठता का एक प्रश्न भी उठ खड़ा होता है. इस श्रेष्ठता के प्रश्न को आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने एक दोहे से दूर करने की कोशिश की थी.
सूर सूर तुलसी ससी उडुगन केशवदास।
अबके कवि खद्योत सम जह-तह करत प्रकाश॥
मृत्यु
तुलसीदास जी जब काशी के विख्यात् घाट असीघाट पर रहने लगे तो एक रात कलियुग मूर्त रूप धारण कर उनके पास आया और उन्हें पीड़ा पहुँचाने लगा। तुलसीदास जी ने उसी समय हनुमान जी का ध्यान किया। हनुमान जी ने साक्षात् प्रकट होकर उन्हें प्रार्थना के पद रचने को कहा, इसके पश्चात् उन्होंने अपनी अन्तिम कृति विनय-पत्रिका लिखी और उसे भगवान के चरणों में समर्पित कर दिया। श्रीराम जी ने उस पर स्वयं अपने हस्ताक्षर कर दिये और तुलसीदास जी को निर्भय कर दिया। यह तथ्य सर्वमान्य है कि संवत् 1680 (सन् 1623 ई०) में सावन कृष्ण तृतीया शनिवार को तुलसीदास जी ने "राम-राम" कहते हुए अपना शरीर परित्याग किया।इनकी मृत्यु के सम्बन्ध में निम्न दोहा भी प्रचलित है –
संवत् सोलह सौ असी, असी गंग के तीर ।
श्रावण कृष्णा तीज शनि, तुलसी तज्यो शरीर।।
इस प्रकार मानवता और समरसता का पुजारी हिन्दी साहित्य गगन का मार्तण्ड सदा सदा के लिए गोलोक अस्ताचल को अपना निवास बना लिया।
।।जय श्री राम।।