मंगलवार, 30 अप्रैल 2024

।। अनुमान के पर्यायवाची।।

  ।। अनुमान के पर्यायवाची।।
   दो दोहों में तेरह पर्यायवाची शब्द
तखमीना कयास कूत,मूल्यांकनआकलन ।
ताड़ना (ताड़ लेना) पूर्वानुमान, भांपना हि प्राक्कलन।।
अंग्रेजी में है गेस (guess) हिन्दी में अंदाज।
अपना अटकल अनुमान, आ जाते है काज।।

रविवार, 28 अप्रैल 2024

मानस चर्चा ।।बंदौं प्रथम महीसुर चरना।।

मानस चर्चा
बंदौं प्रथम महीसुर चरना। मोहजनित संसय सब हरना ॥
    मानस की इस पंक्ति  का बड़ा ही सरल अर्थ है पर भाव गम्भीर। इस पंक्ति पर चर्चा करने से पहले हम जानते हैं कि  ब्रह्मण 'महीसुर' क्यों कहलाते हैं। इसकी कथा स्कन्दपुराण प्रभासखण्ड में यह है कि एक समय देवताओं के हितार्थ समुद्रने ब्राह्मणोंके साथ छल किया जिसको जानकर ब्राह्मणोंने उसको अस्पृश्य होने का शाप दे दिया। शाप की ग्लानिसे समुद्र सूखने लगा तब ब्रह्माजी ने आकर ब्राह्मणों को समझाया। ब्राह्मणों ने उनकी बात मान ली। तब ब्रह्मा जी का वचन रखने और समुद्र की रक्षा करने के लिये यह निश्चय किया कि पर्वकाल,नदीसङ्गम, सेतुबन्ध आदि में समुद्र के स्पर्श, स्नान आदिसे बहुत पुण्य होगा और अन्य समयों में समुद्र अस्पृश्य ही रहेगा और ब्राह्मणों को वरदान मिला  कि ब्राह्मण आजसे पृथ्वी पर 'भूदेव' के नाम से प्रसिद्ध होंगे।
ब्राह्मण के पर्याय भी तो हैं:
अग्रजन्मा द्विजाति विप्र, द्विज महिसुर महिदेव।
ब्राह्मण भूसुर भूमिसुर,भूमिदेव    भूदेव।।
ब्राह्मणों को देवता मानने वाले शास्त्रीय मतों को भी देखते हैं:
पृथिव्यां यानी तीर्थानि तानी तीर्थानि सागरे ।
सागरे सर्वतीर्थानि पादे विप्रस्य दक्षिणे ।।
यही नहीं इन पंक्तियों पर हमें जरूर ध्यान देना चाहिए:
देवाधीनाजगत्सर्वं मन्त्राधीनाश्च देवता:।
ते मन्त्रा: ब्राह्मणाधीना:तस्माद् ब्राह्मण देवता।
मानस में ही कहा गया है:
पूजिय विप्र सकल गुनहीना।
शूद्र न गुन गन ग्यान प्रवीणा।।
भगवान राम ने तो स्वयं ही कहा हैं :
कवच अभेद्य विप्र गुरु पूजा।
एहि सम विजय उपाय न दूजा।।
यहाँ 'महीसुर' कहकर यह दिखाया कि 'मह्यां सुष्ठु राजन्ते' अर्थात् जो पृथ्वीपर अच्छी प्रकारसे "दीप्त"
(प्रकाशित) हों उनको महीसुर कहते हैं। जैसे स्वर्गमें इन्द्रादि प्रकाशित हैं वैसे ही पृथ्वीपर ब्राह्मण ।
अब अर्थ देख लेते हैं : मैं प्रथमतः ब्राह्मणों की वन्दना करता हूँ (जो) मोह से उत्पन्न हुए सब सन्देहों को हरनेवाले हैं । 
पर प्रथम वंदना कैसे? इसके पूर्व 
श्रीवाणी-विनायक, श्रीभवानीशङ्कर, श्रीवाल्मीकिजी,
श्रीहनुमानजी, श्रीसीतारामजी, पञ्चदेव, श्रीगुरु, श्रीगुरुपद, श्रीगुरुपदरज, श्रीगुरुपदनखप्रकाशकी वन्दना  तो हुई ही है।पूर्व में उक्त सबकी वन्दना  कर आये
तब यहाँ ' बंदौ प्रथम' कैसे कहा? यह प्रश्न उठता  ही है उसका समाधान महानुभावों ने  इस प्रकारसे किया
प्रथम देववंदना प्रकरण है दूसरा श्रीगुरुदेववन्दनाप्रकरण तीसरा श्रीसन्तसमाजवन्दनाप्रकरण है तो यह जो प्रथम' शब्द है वह श्रीसन्तसमाजवन्दनाप्रकरण  के साथ है।अब तो यह स्पष्ट  है कि इस चौपाई से तीसरा प्रकरण प्रारम्भ किया गया है। उसमें विप्रपद की वन्दना गोस्वामीजी  प्रथमत: करते हैं क्योंकि  ब्राह्मण चारों वर्णोंमें  प्रथम वर्ण हैं।यहाँ ब्राह्मणके लिये 'महीसुर' पद देकर उनको पृथ्वीके जीवोंमें सर्वश्रेष्ठ और प्रथम वन्दना योग्य जनाया। पर एक प्रश्न और उठता है की सदा प्रथम पूजनीय तो श्रीगणेशजी हैं? ठीक है। पर वे भी तो ब्राह्मणों द्वारा ही पूजनीय हैं। जब जन्म होता है तब प्रथम ब्राह्मण ही नामकरण करते हैं, नक्षत्रका विचारकर  गणेशजीका पूजन होता है। इस प्रकार ब्राह्मण सर्व कार्य में सर्वस्थानों में सबसे मुख्य हैं। सर्वकर्मों में प्रथम इन्हीं का अधिकार है। अतः ब्राह्मण को प्रथम पूजनीय कहा । अब अगली पंक्ति  है 'मोह जनित संसय सब हरना' । पहले तो 'महीसुर' कहकर वन्दना की और अब विशेषण हैं कि जिनकी वन्दना करते हैं वे देवता तुल्य हैं अर्थात् वे दिव्य हैं, उनका ज्ञान दिव्य है, वे श्रोत्रिय एवं अनुभवी ब्रह्मनिष्ठ हैं तभी तो 'सब' संशयोंके हरनेवाले हैं। यह विशेषण देकर गोस्वामीजी प्रार्थना करते हैं कि मैं यह कथासन्देह, मोह, भ्रम हरणार्थ लिखता हूँ, आप कृपा करें कि जो कोई इसे पढ़े या सुने उसके भी संशय दूर हो जायँ ।  पुनः, यह विशेषण इस लिए दिया कि ब्रह्मज्ञान, वेद, शास्त्र, पुराण, इतिहास आदि सबके ज्ञाता ब्राह्मण ही होते आये हैं। पुनः, कथा भी  ब्राह्मणों से ही सुनी जाती है; अतः जो संशय कथा में होते हैं उनका समाधान भी प्रायः उन्हीं के द्वारा होता है।  इस विशेषण से ब्राह्मणोंके लक्षण और कर्तव्य बताये गये जैसा कि महाभारत, भागवत,पद्मपुराणादि में कहे गये हैं। पहले के ब्राह्मण ऐसे ही होते थे इससे आजकल के सभी ब्राह्मणों को उपदेश लेना चाहिये । आइए हम शास्त्र के इस कथन से अपनी चर्चा को आज विराम देते हैं;
ॐ नमो ब्रम्हण्यदेवाय,
गोब्राम्हणहिताय च।
जगद्धिताय कृष्णाय,
गोविन्दाय नमोनमः।।
।। जय श्री राम।।

मानस चर्चा " देव एकु गुनु धनुष हमारें।

मानस चर्चा " देव   एकु   गुनु  धनुष हमारें।
नव गुन  परम पुनीत तुम्हारें"॥
     ब्राह्मण और ब्राह्मण के गुणों  को जानने के लिए  हम 
मानस में प्रभु श्रीरामजी ने जो भगवान श्रीपरशुराम जी से कहा उन पंक्तियों पर चर्चा करते हैं जो बहुत ही प्रसिद्ध हैं।
देव   एकु   गुनु  धनुष हमारें।
नव गुन  परम पुनीत तुम्हारें॥
सब प्रकार हम तुम्ह सन हारे। 
छमहु   बिप्र  अपराध  हमारे॥
   प्रभु श्री राम भगवान परशुराम से निवेदन कर रहे हैं:   हे देव ! हम क्षत्रिय हैं हमारे पास एक ही गुण अर्थात धनुष ही है । धनुष की एक ढोरी/सूत्र पुनीत तो है पर ,आप ब्राह्मण हैं आप में परम पवित्र 9 गुण हैं।यहाँ यज्ञोपवीत के नौ सूत्रों की ओर संकेत जो परम पुनीत हैं क्यो, क्योंकि इसके हर सूत्र में एक-एक देवता वास करते हैं और तो और जो तीन  सूत्र/धागें साफ-साफ दिखते हैं वे त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु, महेश के प्रतीक हैं और इनके अंतर निहित 3×3=9 सूत्रों में जो 9 देव वास करते हैं उन्हें देखें-
ओंकारः प्रथमे सूत्रे द्वितीयेअग्निः प्रकीर्तितः।
तृतीये कश्यपश्चैव चतुर्थे सोम एव च।
पञ्चमे पितृदेवाश्च षष्ठे चैव प्रजापतिः।
सप्तमे वासुदेवः स्यादष्टमे रविरेव च।
नवमे सर्व देवास्तु  इत्यादि संयोगात्।।
अतः हम तो सब प्रकार से आपसे हारे हैं। हे विप्र! हमारे अपराधों को क्षमा कीजिए। यहाँ हमें प्रसंगवश 
यज्ञोपवीत धारण करने का मन्त्र
यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्।
आयुष्यमग्रं प्रतिमुंच शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः ।
और यज्ञोपवीत उतारने का मंत्र
एतावद्दिन पर्यन्तं ब्रह्म त्वं धारितं मया।
जीर्णत्वात्वत्परित्यागो गच्छ सूत्र यथा सुखम्।।
को भी अपने जीवन मे उतार लेना चाहिए।
आखिर ये नव गुन जो परम पुनीत हैं वे कौन-कौन हैं उनको तो हमें जानना ही चाहिए।आइये इस श्लोक को देखते हैं-
ऋजुस्तपस्वी संतुष्टः शुचिः दान्तो जितेन्द्रियः।
दाता विद्वान दयालुश्च ब्राह्मणो  नवभिर्गुणैः   ।। 
 अर्थात् ब्राह्मण के अन्दर ये नव गुण होने ही चाहिए:
ब्राह्मण 1-ऋजु: = सरल हो ।
ब्राह्मण 2-तपस्वी = तप करनेवाला हो। 
ब्राह्मण 3-संतुष्ट:= मेहनत की कमाई पर  सन्तुष्ट रहनेवाला हो ।
ब्राह्मण 4-शुचिः=शुद्ध,पवित्र,उज्ज्वल, योग्य हो।
ब्राह्मण 5-दान्तो=संयमी, मन को वश में रखने वाला हो।
ब्राह्मण 6-जितेन्द्रियः = इन्द्रियों को वश में रखनेवाला हो।
ब्राह्मण 7-दाता= दान करनेवाला हो।
ब्राह्मण 8-विद्वान= विद्या वान हो, अपने विषय में पारंगत हो, पांडित्य हासिल किया हो। 
ब्राह्मण 9-दयालुश्च= सब पर दया करनेवाला हो।     
  श्रीमद् भगवतगीता  में भी ब्राह्मण के 9 गुण/कर्म इस प्रकार बताए गये हैं-
शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च ।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्।।
अर्थात् 
(1)  शमः– शान्तिप्रियता    (2)   दमः– आत्मसंय
(3)   तपः– तपस्या;  तप- तपस्या-श्रम करना तपस्या करना किसके लिए लक्ष्य प्राप्ति के लिए जो हमारा सबसे ताकतवर पक्ष है तभी तो गोस्वामीजी ने लिखा- तपबल बिप्र सदा बरिआरा। और भी देखें- तप अधार सब सृष्टि भवानी।  (4)शौचं - शुद्धता- पवित्रता-बाहर और भीतर से शुद्ध रहना (5)  क्षान्तिः– सहिष्णुता (6) आर्जवम्- सत्यनिष्ठा-शरीर, मन आदि में सरलता रखना (7) ज्ञानं-ज्ञान- वेद शास्त्र आदि का ज्ञान होना (8) विज्ञानं-विज्ञान- विशेष ज्ञान भी अलग से होना ही चाहिये (9) आस्तिक्यम्– धार्मिकता-   आस्तिकता - परमात्मा वेद आदि में आस्था रखना यह सब ब्राह्मणों के स्वभाविक कर्म हैं जो हर ब्राह्मण में के लिए हैं।
श्लोक में आये "ब्रह्म कर्म स्वभावजम्" के अनुसार ये सब ब्राह्मण के स्वभाव से उत्पन्न   स्वाभाविक कर्म हैं ।  स्वभाव के कर्म हमारे गुण बन जाते हैं। अतः हमें अपने कर्म पथ पर ही रहना है क्योंकि work is worship -कर्म ही पूजा है।
यहाँ हमारे एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण गुण की बात भी प्रभु श्रीराम करते है-छमहु   बिप्र  अपराध  हमारे- वह है हमारा दसवाँ और सबसे महत्त्वपूर्ण गुण क्षमा, क्षमा कौन कर सकता है? देखें राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर जी की इन पंक्तियों को-
क्षमा शोभती उस भुजंग को
जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दंतहीन
विषरहित, विनीत, सरल हो।
  हमें यह भी सदा ध्यान रखना है कि-
देवाधीनाजगत सर्वं , मन्त्राधीनाश्च  देवता:। 
ते मंत्रा: ब्राह्मणाधीना: , तस्माद्  ब्राह्मण देवता:।। 
अर्थात देवताओं के अधीन संसार, मंत्रों के अधीन देवता और ब्राह्मणों के अधीन मंत्र  होते हैं।अतः मन्त्रों को जानने वाले ब्राह्मण देवता ही हैं। तभी तो-
विश्वामित्रजी को वशिष्ठजी से हारने के बाद स्वीकार ही करना पड़ा  कि-
धिग्बलं क्षत्रिय बलं ,  ब्रह्म तेजो बलम बलम् ।
एकेन ब्रह्म दण्डेन  ,   सर्वास्त्राणि   हतानि मे ।। 
इस श्लोक में भी गुण से हारे ; त्याग, तपस्या, गायत्री  के बल से  हारे और आज  हम  उसी को त्यागते जा रहे हैं। यह बात हमें जानना ही चाहिए कि- 
विप्रो वृक्षस्तस्य मूलं च सन्ध्या।
वेदा: शाखा धर्मकर्माणि पत्रम् l।
तस्मान्मूलं यत्नतो रक्षणीयं।
छिन्ने मूले नैव शाखा न पत्रम् ll
अर्थात ब्राह्मण एक ऐसे वृक्ष के समान हैं जिसका मूल (जड़), सन्ध्या (गायत्री मन्त्र का जाप) करना है, चारों वेद उसकी शाखायें हैं, तथा  वैदिक धर्म के  आचार विचार का पालन करना उसके पत्तों के समान हैं । अतः प्रत्येक ब्राह्मण का यह कर्तव्य है कि वह सन्ध्या रूपी मूल गायत्री मन्त्र'ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्' का नित्य जाप करे जिससे उसका मूल सुरक्षित रहे।जब मूल सुरक्षित रहेगा तो स्वयं ब्राह्मण-वृक्ष सुरक्षित रहेगा इस हेतु सभी ब्राह्मण बंधुओं को रहीम का दोहा
एकै साधे सब सधै, सब साधै सब जाय।
रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूलै फलै अघाय॥ 
को ध्यान में रखते हुवे अपने लिए ही सही गायत्री मंत्र का जाप तो करना ही चाहिये जिससे स्वयं के साथ-साथ,अपनो की,सबकी रक्षा हो। इसके साथ ही साथ हमें भगवान परशुराम जी को सच्ची श्रद्धांजलि देते हुवे प्रभु श्रीराम के इस कथन -
देव   एकु   गुनु  धनुष हमारें।
नव गुन  परम पुनीत तुम्हारें॥
सब प्रकार हम तुम्ह सन हारे।  इस कथन को भी हम सभी ब्राह्मणों को हेमेशा सही बनाए रखना चाहिए।।जय श्री राम।।

।।मानस चर्चा ।।सुजन समाज सकल गुन खानी।

मानस चर्चा
सुजन समाज सकल गुन खानी। करौं प्रनाम सप्रेम सुबानी ।। समस्त गुणोंकी खानि सज्जन समाजको मैं प्रेमसहित सुन्दर वाणीसे प्रणाम करता हूँ ॥ सुजन कौन होता है,सुजन के क्या-क्या गुण होते हैं एवं सुजन की अन्य सभी बातों को जानते हैं आज इस मानस चर्चा में।
'सुजन समाज' यहाँ 'सुजन' शब्द  'साधु', 'सन्त' के लिए
कहा  गया है। 
''सकल गुन खानी' से तात्पर्य है---
वे सब गुण जो मानस में  दिये हैं  उन सभी की खान हैं सुजन।
तो अब हम उन गुणों को देखें मानस में ---
सुजन/सज्जन के गुणों को: देखें --
षट बिकार जित अनघ अकामा। अचल अकिंचन सुचि सुखधामा॥
अमित बोध अनीह मितभोगी। सत्यसार कबि कोबिद जोगी॥
सुजन / संत (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर- इन) छह विकारों (दोषों) पर विजय पाए हुए, पापरहित, कामनारहित, निश्चल (स्थिरबुद्धि), अकिंचन (सर्वत्यागी), बाहर-भीतर से पवित्र, सुख के धाम, असीम ज्ञानवान, इच्छारहित, मिताहारी, सत्यनिष्ठ, कवि, विद्वान, योगी और---++
सावधान मानद मदहीना। धीर धर्म गति परम प्रबीना।।
गुनागार संसार दु:ख रहित बिगत संदेह।
तजि मम चरन सरोज प्रिय तिन्ह कहुँ देह न गेह॥
निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं। पर गुन सुनत अधिक हरषाहीं॥
सम सीतल नहिं त्यागहिं नीती। सरल सुभाउ सबहि सन प्रीति॥
जप तप ब्रत दम संजम नेमा। गुरु गोबिंद बिप्र पद प्रेमा॥
श्रद्धा छमा मयत्री दाया। मुदिता मम पद प्रीति अमाया॥
बिरति बिबेक बिनय बिग्याना। बोध जथारथ बेद पुराना॥
दंभ मान मद करहिं न काऊ। भूलि न देहिं कुमारग पाऊ॥
गावहिं सुनहिं सदा मम लीला। हेतु रहित परहित रत सीला॥
मुनि सुनु साधुन्ह के गुन जेते। कहि न सकहिं सादर श्रुति तेते॥
ये तो अरण्यकाण्ड के संत गुन हैं।' 
अब  उत्तरकाण्ड में ' आए संतन्ह
के लच्छन सुनते हैं :
संतन्ह के लच्छन सुनु भ्राता। अगनित श्रुति पुरान बिख्याता।।
संत असंतन्हि कै असि करनी। जिमि कुठार चंदन आचरनी॥
काटइ परसु मलय सुनु भाई। निज गुन देइ सुगंध बसाई॥
ताते सुर सीसन्ह चढ़त जग बल्लभ श्रीखंड।
अनल दाहि पीटत घनहिं परसु बदन यह दंड॥
बिषय अलंपट सील गुनाकर। पर दु:ख दुख सुख सुख देखे पर॥
सम अभूतरिपु बिमद बिरागी। लोभामरष हरष भय त्यागी॥
कोमलचित दीनन्ह पर दाया। मन बच क्रम मम भगति अमाया॥
सबहि मानप्रद आपु अमानी। भरत प्रान सम मम ते प्रानी।
बिगत काम मम नाम परायन। सांति बिरति बिनती मुदितायन॥
सीतलता सरलता मयत्री। द्विज पद प्रीति धर्म जनयत्री॥
ए सब लच्छन बसहिं जासु उर। जानेहु तात संत संतत फुर॥
सम दम नियम नीति नहिं डोलहिं। परुष बचन कबहूँ नहिं बोलहिं॥4॥
निंदा अस्तुति उभय सम ममता मम पद कंज।
ते सज्जन मम प्रानप्रिय गुन मंदिर सुख पुंज॥
गुणखानि कहनेका भाव यह है कि जैसे खानिसे सोना, चाँदी, मणि, माणिक्य आदि निकलते हैं, वैसे ही शुभगुण सुजन समाज में ही होते हैं, अन्यत्र नहीं। जो इनका सङ्ग करे उसीको शुभ गुण प्राप्त हो सकते हैं। पुनः, 'खानी' कहकर यह भी जनाया कि इनके गुणों का अन्त नहीं, अनन्त हैं, कितने हैं कोई कह नहीं सकता। यथा-'
'मुनि सुनु साधुन्हके गुन जेते। कहि न सकहिं सारद श्रुति तेते ॥' 
सुजन समाज सकल गुन खानी। करौं प्रनाम सप्रेम सुबानी।।
यहां  सुजन को मन, वचन और कर्म तीनों से प्रणाम सूचित किया। 
'सप्रेम' से मन, 'सुबानी' से वचन और करौ' से कर्मपूर्वक प्रणाम जनाया गया है।
केवल मानस की ही क्यों योगीराज भर्तृहरि की भी सुनें 
'जाड्य धियो हरति सिञ्चति वाचि सत्यं
मानोन्नतिं दिशति पापमपाकरोति ।
चेतः प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्ति 
सत्संगतिः कथय किन्न करोति पुंसाम् ।। ।।' 
अर्थात् सज्जनोंकी सङ्गति बुद्धिकी जड़ता (अज्ञान) को नाश करती है, वाणीको सत्यसे सींचती है, मानकी उन्नति करती है, पाप नष्ट करती है, चित्तको प्रसन्न करती है और दिशाओंमें कीर्तिको फैलाती है । कहिये तो वह मनुष्योंके लिये क्या-क्या नहीं करती? ऐसे सुजन समाज को हम मन कर्म वचन से सादर प्रणाम करते हैं और विनय पूर्वक प्रार्थना करते हैं कि वे संपूर्ण मानवता पर अपनी कृपा बनाए रखें।
।।जय श्री राम जय हनुमान।।

शुक्रवार, 26 अप्रैल 2024

कोयल के पर्यायवाची


काकपाली  श्यामा पिक, बसंतदूत कोयल।
मदनशलाका कलघोष,कोकिला ही कोकिल।।1।।
कुहुकिनी की कुहू कुहू जग अपना कर लेत।
वनप्रिया सारंग सहित, सारिका  खुशी देत।।2।।
सारिका (मैना को भी) 
   cuckoo

गुरुवार, 25 अप्रैल 2024

✓नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये

मानस चर्चा
नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये 
सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा।
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां मे 
कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च ॥ 
नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये
गोस्वामीजी कहते ही हैं कि मुझे कोई दूसरी इच्छा नहीं है, लेकिन जिस तरह से 'नान्या' को इस श्लोक में प्रथम शब्द के रूप में ध्वनित और रेखांकित किया गया है, उससे अर्थ के बहुत से फूल बिखरते हैं। ‘स्पृहा' और 'काम' में बहुत फर्क है। काम दोष है, स्पृहा नहीं। काम बांधेगा, स्पृहा मुक्त करेगी। काम जीवन में संचय करेगा, जबकि गोस्वामीजी की स्पृहा जीवन में समेटकर ठूंस-ठूंस कर सब कुछ अपने पास भर लेने की नहीं है। वे तो उसे अतिक्रांत करना चाहते हैं। काम मद है, उत्तेजना है।  स्पृहा चेतना है, जागरण है। काम द्वैत है,  स्पृहा अनन्यता  है। काम ऊर्जा का स्खलन है,  स्पृहा ऊर्जा की उत्स्फूर्ति । इच्छा का भी अपना एक दुष्चक्र है।  गोस्वामीजी इस श्लोक में स्पृहा और काम के जिन द्वन्द्वों का चित्र खींचते हैं वहाँ वे और बात भी स्थापित करते चलते हैं । वह यह कि बात सिर्फ कर्म की पवित्रता की ही नहीं, इच्छा की पवित्रता की भी है। कर्म तो बाहरी आलोक है, लेकिन इच्छा एक अन्तः दीप्ति है।
हे रघुपते! मेरे हृदय में और कोई इच्छा नहीं है।
अन्य कुछ नहीं अर्थात् ऋद्धि सिद्धि, अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष कुछ भी नहीं चाहता, -
'अर्थ न धर्म न काम रुचि गति न चहउँ निर्वान । जनम जनम रति राम पद यह बरदानु न आन ॥'
और भी देखें:-
 'चहउँ न सुगति सुमति संपति कछु रिधि सिधि बिपुल बड़ाई।
हेतु रहित अनुराग राम पद बढ़ौ अनुदिन अधिकाई 
 वीतिच्छ जातक में कहा गया : 'इच्छा हि अनन्तगोचराः' कि इच्छा की गति अनंत है।  गोस्वामीजी ने तो और ज्यादा सुस्पष्ट तरीके से जाना था कि इच्छाएं क्रमशः क्षरण करती हैं। 'कीट मनोरथ दारु सरीरा। जेहि न लाग घुन को अस धीरा' प्रसादजी के शब्दों में "सर्ग इच्छा का है परिणाम," इच्छा के बिना संसार तो फ्रीज हो जाएगा - न जीने का कारण होगा, न मरने का । कालीदासजी ने अभिज्ञानशाकुन्तल में  कहा कि : 'पिण्ड खजूर से अरुचि उत्पन्न हुए व्यक्ति को इमली की इच्छा होती है। लेकिन यह भी 'नान्या स्पृहा' की स्थिति नहीं है। प्रतिस्थापन हो जाता है।
लेकिन इच्छाएं बनी रहती हैं : 'दमे मर्ग तक रहेंगी
ख्वाहिशें।यह नीयत कोई आज मर जाएगी ।'
मृत्यु- पर्यन्त कामनाओं का क्रम । बल्कि दुरतिक्रम। प्राकृत के आचारांग में कहा गया "कामा दुरतिकम्मा" कामनाओं का पार पाना बहुत कठिन है। 
‘नान्या स्पृहा' की स्थिति तब आती है जब हम अपने आपको अपनी समस्त इच्छाओं को सिकोड़कर किसी एक ही लाइफ - डिफाइनिंग चीज पर केन्द्रित कर देते हैं। क्या सुन्दर कहा गया है:- न जातु कामःकामानामुपभोगेन शाम्यतिहविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते - कि विषय भोग की इच्छा विषयों का उपभोग करने से कभी शान्त नहीं  हो सकती। घी की आहुति डालने से अधिक प्रज्ज्वलित होने वाली आग की भाँति वह और भी बढ़ती ही जाती है।अष्टावक्रजी  स्पृहा के गलने  को लेकर कहा है कि : 'क्व धनानि क्व मित्राणि गलिता स्पृहा ।जब मेरी इच्छा गल गई तब कहां धन है, कहां मित्र हैं, कहां मेरे विषयरूपी दस्यु ( लुटेरे) हैं, कहां शास्त्र हैं और कहां विज्ञान है! वही मस्तराम का भाव : चाह नहीं, चिंता नहीं, मनवां बेपरवाह।जाको कछू न चाहिए, सो जग साहंसाह। 
मनुस्मृति कहती है : 'अकामस्य क्रिया काचिद्
दृश्यते नेह कर्हिचित्। यद्यद्धि कुरुते किंचित् तत्तत्
कामस्य चेष्टितम्'- 
'इच्छा को लोग एक भाव समझते हैं, लेकिन जरा ध्यान
से देखें तो इच्छा एक अभाव है। किसी चीज का न
होना, कोई अपूर्णता ।' शिवानंदजी कहते हैं कि 'डिज़ायर इज़ पावर्टी'  इच्छा दरिद्रता है।इच्छा की यात्रा को तो हृदय में पहुंचना ही है क्योंकि वह स्वयं उद्भूत भी वहीं से होती है: 'भुवनं मनसो नान्यदन्यन्न हृदयान्मनः। अशेषा हृदये तस्मात्कथापरिसमाप्यते।'अर्थात् संसार मन से भिन्न नहीं है, मन हृदय से भिन्न नहीं है, अतः समस्त कथा हृदय में ही समाप्त होती है । इच्छा की 'डीपनिंग' 'हृदयस्थो भगवान मंगलाय तनो हरिः' तक ले जाएगी। गोस्वामीजी  वह इच्छा करते हैं जो सबसे सम्बन्ध जोड़ती है, न कि ऐसी कि जो सम्बन्ध तोड़ती है। इसलिए वह विकास और विस्तार को सुनिश्चित करने वाली स्पृहा रखते हैं, वह स्पृहा जिससे मैथ्यू आर्नल्ड की वह पंक्ति सच लगने लगती है 
: The same heart beats in every human
breast.  वही एक हृदय हर मानव वक्षस्थल में
धड़कता रहता है। बात इस हृदय की ही है और इसीलिए गोस्वामीजी  'हृदयेऽस्मदीये' शब्द के माध्यम से बस उसे ही रेखांकित करते हैं।  शतपथ ब्राह्मण का निर्देश भी है : 'न ह्युक्तेन मनसा किंचन संप्रति शक्नोति कर्तुम्' कि अयुक्त मन से कुछ भी करना संभव नहीं है।और जब हम एक ही सद स्पृहा लालसा इच्छा  कामना लेकर चले,उसके लिए कर्म करेगें तो वह हमें  प्राप्त होगी ही।
।।सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा।।
गोस्वामीजी कहते हैं कि- 'सत्य कहउँ लिखि कागद कोरे', यहां भी उसी आग्रह के साथ कह रहे हैं कि 'मैं सत्य कहता हूँ।' मार्कण्डेय पुराण में भी यही कहा गया : 'सत्यं चोक्तं परो धर्मः स्वर्गः सत्ये प्रतिष्ठितः'  सत्य- भाषण सबसे बड़ा धर्म है। सत्य पर ही स्वर्ग प्रतिष्ठित है, बल्कि ऋग्वेद तो स्वर्ग क्या धरती कोभी सत्य प्रतिष्ठित मानता था- 'सत्योनोत्तमिता भूमिः' भूमि सत्य द्वारा प्रतिष्ठित है।गोस्वामीजी  'मैं' को वदामि कह कर सामने लाया हैं।फिर तत्काल कहते हैं : 'भवानखिलान्तरात्मा'  आप सबके अन्तरात्मा ही हैं,न केवल मेरे बल्कि सबके इसलिए यह एक समस्वर 'मैं' है ।  यह 'मैं' किसी तरह की अस्मिताई भक्ति के रूप में नहीं लिया जा सके, इसीलिए वे 'भवान खिलान्तरात्मा'  'मैं' और 'अखिल' दोनों को एक सांस में बोलते हैं क्योंकि वे आत्म-रति में ग्रस्त होने का दूर तक भी संकेत नहीं देना चाहते। उनके 'मैं' और 'अखिल एक दूसरे को प्रतिबिम्बित करते हैं। गोस्वामीजी के समेकन की यह एक शैली है। कई बार लोग कहते हैं कि कविता में 'मैं' शैली छायावाद से आई।  लेकिन उसके बहुत बहुत पहले गोस्वामीजी ने 'मैं' शैली को खूब जमकर अपनाया है देखें 
, 'मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा', जेहि विधि नाथ होइ हित मोरा','कबित बिबेक एक नहिं मोरें', 'सोइ भरोस मोरे मन भावा', , 'तेहि बल मैं रघुपति गुन गाथा',
'ताते मैं अति अलप बखाने', 'सो उमेस मोहि पर अनुकूला'आदि ढेरों उदाहरण हैं। गोस्वामीजी के इन शुरुआती कथनोंमें 'मैं' का जबर्दस्त निदर्शन है। सोचिए कि एक पूरीपरंपरा है जो 'मैं' को खत्म करने पर तुली हुई है। यहां तक कि कबीरजी भी 'मैं मैं मेरी जिनि करै, मेरी मूल विनास / मेरी पग का पौंखड़ा, मेरी गल की फाँस'- कहते हैं। गोस्वामीजी  की एक सब्जेक्टिविटी है। यह 'आत्मपरकता' अपने आप में अहंकृति नहीं है बल्कि एक तरह से 'स्व' का उद्भावन है, जयशंकर प्रसादजी की कामायनी की ये  पंक्तियां भी कुछ कहती हैं 
 'मैं हूं, यह वरदान सदृश / क्यों लगा गूंजने कानों में / मैं भी कहने लगा, रहूँ मैं / शाश्वत नभ के गानों में ।'  गोस्वामीजी  जब यह कहते हैं कि आप सबके अन्तरात्मा ही हैं तो वे पूरी कायनात में ईश- संचार देखते हैं, हमारे यहां ईश्वर को अंतर्पुरुष, अंतर्यामी, घटघटवासी, जगदात्मा,विश्वंभर, विश्वात्मा, सर्वव्यापी, सर्वांतर्यामी आदि कहा गया तो वह भी इसीलिए कि वह सभी के भीतर है। यह सब कितना रहस्यमय है? आपके भीतर वह कौन सा तहखाना है जहां वह कोई बैठा हुआ है, वहां न तो नेत्र जाता है, न वाणी, न मन (न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति नो मनः-  वह कोई
जिसे न शस्त्र काट सकते हैं, न आग जला सकती है, न
पानी गला सकता है और न वायु सुखा सकता है। हमारे
भीतर एक जासूस है। हमारे भीतर एक साक्षी है। 'आत्मैव ह्वात्मनः साक्षी'- । इससे भागकर कहां जाया जाएगा? हमारी सारी चतुराइयों के सामने यह ‘निर्विकल्प'?  इसे भेष बदलकर नहीं भरमाया जा सकता। यह अव्यक्त और अशरीरी है। इसे मारा नहीं जा सकता कि चलो इसके वध के जरिये ही इससे पिंड छूटे । गीता  में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत!- हे अर्जुन ! यह आत्मा सबके शरीर में सदा ही अवध्य है यही आत्मा परमात्मा है। यह सम्पूर्ण जगत् सूत्र में मणियों के सदृश परमात्मा में गुंथा हुआ है । ( मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव-) 
  भगवान कृष्ण यही तो कहते हैं: ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति - कि ईश्वर सभी प्राणियों के हृदयमें विराजमान है। 'सत्यं वदामि,' यथा- 'सत्य कहउँ लिखि कागद कोरे।' आप अखिलान्तरात्मा अन्तर्यामी हो, अतः सबकी जानते हो। और आप हमें भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां मे। हे  रघुपुङ्गव रघुकुलमें श्रेष्ठ  आप हमें 'निर्भरां  भक्ति देवें । निर्भर भक्तिके दो अर्थ होते हैं। एक तो परिपूर्ण, अविचल और अतिशय'। यथा-निर्भर प्रेम मगन मुनि ज्ञानी । कहि न जाइ सो दसा भवानी ॥', 'अबिरल प्रेम भगति मुनि पाई।', 'अतिसय प्रीति देखि रघुबीरा प्रगटे हृदय हरन भव भीरा ॥', 'अबिरल भगति बिसुद्ध तव श्रुति पुरान जो गाव। जेहि खोजत जोगीस मुनि प्रभु प्रसाद कोई पाव ॥' , 'तन पुलक निर्भर प्रेम पूरन नयन मुख पंकज दिये।
दूसरा अर्थ है-'वह भक्ति जिसमें मनुष्य अपनी शरीरयात्रा तथा आत्मयात्राके निर्वाहका सम्पूर्ण भार श्रीजानकीनाथके चरणारविन्दोंमें समर्पण करके निश्चिन्त हो जाता है। यहाँ दोनों भाव हैं। 
कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च ।कामादि दोष-काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह और मत्सर षट् विकार इन विकारोंके रहनेसे भगवान्को प्राप्ति दुर्लभ है। कहा भी है- 'काम आदि मद दंभ न जाके। तात निरंतर मैं बस ताके ॥ 'तात तीन अति प्रवल खल काम क्रोध अरु लोभ ।' इसीसे इनमें भी 'काम' को ही प्रथम कहा गया उत्तरार्द्धमें योग और क्षेम दोनोंकी याचना की। 'भक्तिं प्रयच्छ' यह योग और 'कामादिदोषरहितं कुरु' यह क्षेम है। भक्तका मन निर्मल होता है पर मायावश कुसङ्गादि पाकर उनका मन भी मैला हो जाता  है। देखिये भक्तप्रवर श्रीनारदजीके 'सहज बिमल मन' में कामके जीतनेका अहङ्कार, विश्वमोहिनीकी प्राप्तिका लोभ और उसके न मिलनेपर क्रोध सभी विकार उत्पन्न हो गये हैं। काम-क्रोधादि भक्तोंके शत्रु हैं, सदा घातमें लगे रहते हैं। ' इसीसे गोस्वामीजी भक्तिकी याचना करके उसकी कामादिसे रक्षा भी माँगते हैं।'नान्या स्पृहा' अर्थात् कोई काङ्क्षा नहीं है, यह कहकर अपनेको अकिंचन बताया और इसकी पुष्टताके लिये 'सत्यं वदामि' और 'अखिलान्तरात्मा' कहा। इस प्रकार अपनेको भक्तिका अधिकारीठहराकर तब भक्ति माँगते हैं। क्योंकि जो कुछ नहीं चाहता वही भक्तिका अधिकारी है, उसीको भक्ति मिलती है। यथा- 'बहुत कीन्ह प्रभु लषन सिय नहिं कछु केवट लेइ। बिदा कीन्ह करुनायतन भगति बिमल बर देइ ॥' 
 भक्ति माँगनेका भाव यह है  इससे बढ़कर कोई लाभ नहीं है।
यथा- 'लाभ कि कछु हरि भगति समाना । जेहि गावहिं श्रुति संत पुराना ॥ यह यह याचना इसी काण्डमें क्यों की गयी है? यह श्लोक श्रीरामवन्दना और श्रीहनुमान्जीकी वन्दनाके बीचमें क्यों रखा ? प्रथम शंकाके समाधानके लिये पिछले चार काण्डोंका सिंहावलोकन अति संक्षिप्तरूपमें करना पड़ेगा। बालकाण्डमें कहा है कि स्वान्तः सुखकी प्राप्ति चाहिये, इसके लिये स्वान्तःस्थ ईश्वरका दर्शन चाहिये। ईश्वर कौन हैं और उनकी प्राप्तिका साधन क्या है यह 'रामाख्यं ईशं हरिम्' और 'यत्पादप्लवमेकमेव हि' से बताया। सात्त्विक श्रद्धासे धर्माचरण करनेसे वैराग्य होता है यह 'भरत चरित करि बिरति' से बताया। सद्गुरु संत संगति बिना श्रद्धा, धर्म, वैराग्य और ज्ञानकी प्राप्ति नहीं यह अरण्य काण्ड में बताया। वैराग्यादि साधनोंकी प्राप्ति 'राम' महामन्त्रके अनुष्ठानसे होगी यह किष्किन्धाकाण्डमें कहा। जब पूर्वोक्त साधनोंसे मोक्ष प्राप्तिकी शुभवासना भी निःशेष हो जाती है, तब इन्सान भक्तिका अधिकारी बनता हैं, यह इस श्लोकमें बताया। दूसरी शंकाका समाधान यह है कि भक्तिका अधिकारी साधक यद्यपि प्रार्थना कर रहा है सही तथापि केवल उसकी याचनापर भगवान् उसे वह अनुपम भक्तिरस थोड़े ही दे देंगे। वे देखते हैं कि इसकी पीठपर कौन है, किसका सहारा लेकर यह आया है। किसी महान् भक्तका सहारा लेकर आया होगा तो उसकी मुरव्वतसे देना ही पड़ेगा। अतः अगले श्लोकमें श्रीहनुमान्जीकी वन्दना है जो कैसे बलवान रक्षक हैं यह श्लोक तथा काण्डभरसे स्पष्ट है। भगवान् जिनके वशमें हैं वही पीठपर हैं। इससे यह जनाया कि श्रीरामभक्तिकी प्राप्तिके लिये इनकी कृपाका सम्पादन आवश्यक है। 'कामादिदोषरहितं कुरु' कहनेका भाव कि मेरे हृदयमें श्रीसीता - अनुजसहित धनुषबाण धारण करके आप बसिये, इससे कामादि निकट न आ सकेंगे। यथा- 'तब लगि हृदय बसत खल नाना। लोभ मोह मत्सर मद नाना ॥ जब लगि उर न बसत रघुनाथा धरे चाप सायक कटि भाथा ॥' इसी  से तो अत्रि, शरभंग, सुतीक्ष्ण, अगस्त्य आदि महर्षियोंने माँगा है कि 'अनुज जानकी सहित प्रभु चाप बान धरा राम। मम हिय गगन इंदु इव बसहु सदा निहकाम॥ ' मम हिय गगन इंदु इव बसहु सदा निहकाम॥ जय श्री राम जय हनुमान।।

केवल हिन्दी के छंद


चंचला छंद विधान – (वर्णिक छंद परिभाषा) <– 

“राजराजराल” वर्ण षोडसी रखो सजाय।
‘चंचला’ सुछंद राच आप लें हमें लुभाय।।

“राजराजराल” = रगण जगण रगण जगण रगण लघु
21×8 = 16 वर्ण प्रत्येक चरण का वर्णिक छंद। 4 चरण, 2-2 चरण समतुकांत।

छा गयी सुहावनी बसंत की छटा अपार।

झूम के बसंत की तरंग में खिली बहार।।

कूँज फूल से भरे तड़ाग में खिले सरोज।

पुष्प सेज को सजा किसे बुला रहा मनोज।।

चौपाई

चौपाई मात्रिक सम छंद है। इसके प्रत्येक चरण में 16-16 मात्राएँ होती हैं। 
उदाहरण -
बंदउँ गुरु पद पदुम परागा।
सुरुचि सुबास सरस अनुराग॥
अमिय मूरिमय चूरन चारू।
समन सकल भव रुज परिवारू॥
कुण्डलिया
कुण्डलिया विषम मात्रिक छंद है। इसमें छः चरण होते हैं अौर प्रत्येक चरण में २४ मात्राएँ होती हैं। दोहों के बीच एक रोला मिला कर कुण्डलिया बनती है। पहले दोहे का अंतिम चरण ही रोले का प्रथम चरण होता है तथा जिस शब्द से कुण्डलिया का आरम्भ होता है, उसी शब्द से कुण्डलिया समाप्त भी होता है। उदाहरण -

कमरी थोरे दाम की, बहुतै आवै काम।
खासा मलमल वाफ्ता, उनकर राखै मान॥
उनकर राखै मान, बँद जहँ आड़े आवै।
बकुचा बाँधे मोट, राति को झारि बिछावै॥
कह गिरिधर कविराय, मिलत है थोरे दमरी।
सब दिन राखै साथ, बड़ी मर्यादा कमरी॥

गीतिका 

गीतिका (छंद) मात्रिक सम छंद है जिसमें २६ मात्राएँ होती हैं। १४ और १२ पर यति तथा अंत में लघु -गुरु आवश्यक है। इस छंद की तीसरी, दसवीं, सत्रहवीं और चौबीसवीं अथवा दोनों चरणों के तीसरी-दसवीं मात्राएँ लघु हों तथा अंत में रगण हो तो छंद निर्दोष व मधुर होता है। उदाहरण-

खोजते हैं साँवरे को,हर गली हर गाँव में।
आ मिलो अब श्याम प्यारे,आमली की छाँव में।।
आपकी मन मोहनी छवि,बाँसुरी की तान जो।
गोप ग्वालों के शरीरोंं,में बसी ज्यों जान वो।।
छप्पय
छप्पय मात्रिक विषम छन्द है। यह संयुक्त छन्द है, जो रोला (11+13) चार पद तथा उल्लाला (15+13) के दो पद के योग से बनता है।उदाहरण-

डिगति उर्वि अति गुर्वि, सर्व पब्बे समुद्रसर।
ब्याल बधिर तेहि काल, बिकल दिगपाल चराचर।
दिग्गयन्द लरखरत, परत दसकण्ठ मुक्खभर।
सुर बिमान हिम भानु, भानु संघटित परस्पर।
चौंकि बिरंचि शंकर सहित,कोल कमठ अहि कलमल्यौ।
ब्रह्मण्ड खण्ड कियो चण्ड धुनि, जबहिं राम शिव धनु दल्यौ।।
सवैया
सवैया चार चरणों का समपद वर्णछंद है। वर्णिक वृत्तों में 22 से 26 अक्षर के चरण वाले जाति छन्दों को सामूहिक रूप से हिन्दी में सवैया कहा जाता है।सवैये के मुख्य १४ प्रकार हैं:- १. मदिरा, २. मत्तगयन्द, ३. सुमुखी, ४. दुर्मिल, ५. किरीट, ६. गंगोदक, ७. मुक्तहरा, ८. वाम, ९. अरसात, १०. सुन्दरी, ११. अरविन्द, १२. मानिनी, १३. महाभुजंगप्रयात, १४. सुखी। उदाहरण-

मानुस हौं तो वही रसखान,बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पसु हौं तो कहा बस मेरो,चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥
पाहन हौं तो वही गिरि को,जो धर्यो कर छत्र पुरंदर कारन।
जो खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदी कूल कदम्ब की डारन॥
सेस गनेस महेस दिनेस,सुरेसहु जाहि निरंतर गावैं।
जाहि अनादि अनंत अखण्ड,अछेद अभेद सुभेद बतावैं॥
नारद से सुक व्यास रहे,पचिहारे तौं पुनि पार न पावैं।
ताहि अहीर की छोहरियाँ,छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं॥
कानन दै अँगुरी रहिहौं,जबही मुरली धुनि मंद बजैहैं।
माहिनि तानन सों रसखान,अटा चढ़ि गोधन गैहैं पै गैहैं॥
टेरि कहौं सिगरे ब्रजलोगनि,काल्हि कोई कितनो समझैहैं।
माई री वा मुख की मुसकान,सम्हारि न जैहैं,न जैहैं,न जैहैं॥

कवित्त

कवित्त एक वार्णिक छन्द है। इसमें चार चरण होते हैं और प्रत्येक चरण में १६, १५ के विराम से ३१ वर्ण होते हैं। प्रत्येक चरण के अन्त में गुरू वर्ण होना चाहिये। छन्द की गति को ठीक रखने के लिये ८, ८, ८ और ७ वर्णों पर यति रहना चाहिये। इसके दो प्रकार हैं:- 1.मनहरण कवित्त और घनाक्षरी। घनाक्षरी छंद के दो भेद हैं:- 1.रूप घनाक्षरी, 2.देव घनाक्षरी। उदाहरण-

नाव अरि लाब नहि,उतरक दाब नहि,
एक बुद्धि आब नहि,सागर अपार में।
वीर अरि छोट नहि, संग एक गोट नहि,
लंका लघु कोट नहि, विदित संसार में।।

मधुमालती (छंद)

मधुमालती छंद में प्रत्येक चरण में 14 मात्राएँ होती हैं, अंत में 212 वाचिक भार होता है, 5-12 वीं मात्रा पर लघु अनिवार्य होता है।उदाहरण -

होंगे सफल,धीरज धरो ,
कुछ हम करें,कुछ तुम करो ।
संताप में , अब मत जलो ,
कुछ हम चलें , कुछ तुम चलो ।।
विजात
विजात छंद के प्रत्येक चरण में 14 मात्राएँ होती हैं, अंत में 222 वाचिक भार होता है, 1,8 वीं मात्रा पर लघु अनिवार्य होता है। उदाहरण -

तुम्हारे नाम की माला,
तुम्हारे नाम की हाला ।
हुआ जीवन तुम्हारा है,
तुम्हारा ही सहारा है ।।

मनोरम

मनोरम छंद के प्रत्येक चरण में 14 मात्राएँ होती हैं ,आदि में 2 और अंत में 211 या 122 होता है ,3-10 वीं मात्रा पर लघु 1 अनिवार्य है।उदाहरण-

उलझनें पूजालयों में ,
शांति है शौचालयों में।
शान्ति के इस धाम आयें,
उलझनों से मुक्ति पायें।।

पुष्पिताग्रा

एक अर्धसम वृत्त जिसके पहले और तीसरे चरण में दो नगण, एक रगण और एक यगण होता है तथा दूसरे और चौथे चरण में एक नगण दो जगण, एक रगण और गुरु होता है । जैसे -

प्रभु सम नहिं अन्य कोइ दाता।
सुधन जु ध्यावत तीन लोक त्राता।
सकल असत कामना बिहाई।
हरि नित सेवहु मित्त चित्त लाई।

शक्ति (छंद)

शक्ति छंद में 18 मात्राओं के चार चरण होते हैं, अंत में वाचिक भार 12 होता है तथा 1,6,11,16 वीं मात्रा पर लघु 1 अनिवार्य होता है। उदाहरण -

चलाचल चलाचल अकेले निडर,
चलेंगे हजारों, चलेगा जिधर।
दया-प्रेम की ज्योति उर में जला,
टलेगी स्वयं पंथ की हर बेला ।।

पीयूष वर्ष

पीयूष वर्ष छंद में 10+9=19 मात्राओं के चार चरण होते हैं,अंत में 12 होता है तथा 3,10,17 वीं मात्रा पर लघु 1 अनिवार्य है। यदि यति अनिवार्य न हो और अंत में 2 = 11 की छूट हो तो यही छंद 'आनंदवर्धक' कहलाता है।

उदाहरण-

लोग कैसे , गन्दगी फैला रहे ,
नालियों में छोड़ जो मैला रहे।
नालियों पर शौच जिनके शिशु करें,
रोग से मारें सभी को खुद मरें।।

सुमेरु

सुमेरु छंद के प्रत्येक चरण में 12+7=19 अथवा 10+9=19 मात्राएँ होती हैं ; 12,7 अथवा 10,9 पर यति होतो है ; इसके आदि में लघु 1 आता है जबकि अंत में 221,212,121,222 वर्जित हैं तथा 1,8,15 वीं मात्रा लघु 1 होती है।उदाहरण-

लहै रवि लोक सोभा , यह सुमेरु ,
कहूँ अवतार पर , ग्रह केर फेरू।
सदा जम फंद सों , रही हौं अभीता ,
भजौ जो मीत हिय सों , राम सीता।।

सगुण (छंद)

सगुण छंद के प्रयेक चरण में 19 मात्राएँ होती हैं , आदि में 1 और अंत में 121 होता है,1,6,11, 16,19 वी मात्रा लघु 1 होती है।उदाहरण -

सगुण पञ्च चारौ जुगन वन्दनीय ,
अहो मीत, प्यारे भजौ मातु सीय।
लहौ आदि माता चरण जो ललाम ,
सुखी हो मिलै अंत में राम धाम।।

शास्त्र (छंद)

शास्त्र छंद के प्रत्येक चरण में 20 मात्राएँ होती हैं ; अंत में 21 होता है तथा 1,8,15,20 वीं मात्राएँ लघु होती हैं।उदाहरण -

मुनीके लोक लहिये शास्त्र आनंद ,
सदा चित लाय भजिये नन्द के नन्द।
सुलभ है मार प्यारे ना लगै दाम ,
कहौ नित कृष्ण राधा और बलराम।।

सिन्धु (छंद)

सिन्धु छंद के प्रत्येक चरण में 21 मात्राएँ होती है और 1,8,15 वीं मात्रा लघु 1 होती है।उदाहरण -

लखौ त्रय लोक महिमा सिन्धु की भारी ,
तऊ पुनि गर्व के कारण भयो खारी।
लहे प्रभुता सदा जो शील को धारै ,
दया हरि सों तरै कुल आपनो तारै।।

बिहारी (छंद)

बिहारी छंद के प्रत्येक चरण में 14+8=22 मात्राएँ होती हैं,14,8 मात्रा पर यति होती है तथा 5,6,11,12,17,18 वीं मात्रा लघु 1 होती है। उदाहरण -

लाचार बड़ा आज पड़ा हाथ बढ़ाओ ,
हे श्याम फँसी नाव इसे पार लगाओ।
कोई न पिता मात सखा बन्धु न वामा ,
हे श्याम दयाधाम खड़ा द्वार सुदामा।।

दिगपाल (छंद)

दिगपाल छंद के प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होती हैं ;12,24 मात्रा पर यति होती है,आदि में समकल होता है और 5,8,17,20 वीं मात्रा अनिवार्यतः लघु 1 होती है।इस छंद को मृदुगति भी कहते हैं।उदाहरण-

सविता विराज दोई , दिक्पाल छन्द सोई
सो बुद्धि मंत प्राणी, जो राम शरण होई।
रे मान बात मेरी, मायाहि त्यागि दीजै
सब काम छाँड़ि मीता, इक राम नाम लीजै।।

सारस (छंद)

सारस छंद के प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होती हैं , 12,12 मात्रा पर यति होती है ;आदि में विषम कल होता है और 3,4,9,10,15,16,21,22 वीं मात्राएँ अनिवार्यतः लघु 1 होती हैं।उदाहरण-

भानु कला राशि कला, गादि भला सारस है
राम भजत ताप भजत, शांत लहत मानस है।
शोक हरण पद्म चरण, होय शरण भक्ति सजौ
राम भजौ राम भजौ, राम भजौ राम भजौ।।

गीता (छंद)

गीता छंद के प्रत्येक चरण में 26 मात्राएँ होती हैं; 14,12 पर यति होती है , आदि में सम कल होता है ; अंत में 21 आता है और 5,12,19,26 वीं मात्राएँ अनिवार्यतः लघु 1 होती हैं।उदहारण -

कृष्णार्जुन गीता भुवन, रवि सम प्रकट सानंद l
जाके सुने नर पावहीं, संतत अमित आनंद l
दुहुं लोक में कल्याण कर, यह मेट भाव को शूल l
तातें कहौं प्यारे कवौं, उपदेश हरि ना भूल ll

शुद्ध गीता

शुद्ध गीता छंद के प्रत्येक चरण में 27 मात्राएँ होती हैं ; 14,13 मात्रा पर यति होती है . आदि में 21 होता है तथा 3,10,17,24,27 वीं मात्राएँ लघु होती हैं।उदाहरण -

मत्त चौदा और तेरा, शुद्ध गीता ग्वाल धार
ध्याय श्री राधा रमण को, जन्म अपनों ले सुधार।
पाय के नर देह प्यारे, व्यर्थ माया में न भूल
हो रहो शरणै हरी के, तौ मिटै भव जन्म शूल।।

विधाता (छंद)

विधाता छंद के प्रत्येक चरण में 28 मात्राएँ होती है ; 14,14 मात्रा पर यति होती है ; 1, 8, 15, 22 वीं मात्राएँ लघु 1 होती हैं। इसे शुद्धगा भी कहते हैं। उदाहरण -

ग़ज़ल हो या भजन कीर्तन,सभी में प्राण भर देता ,
अमर लय ताल से गुंजित,समूची सृष्टि कर देता।
भले हो छंद या सृष्टा,बड़ा प्यारा 'विधाता' है ,
सुहानी कल्पना जैसी,धरा सुन्दर सजाता है।।

हाकलि

हाकलि एक सम मात्रिक छंद है। इसके प्रत्येक चरण में 14 मात्रा होती हैं , तीन चौकल के बाद एक द्विकल होता है। यदि तीन चौकल अनिवार्य न हों तो यही छंद 'मानव' कहलाता है। उदाहरण -

बने बहुत हैं पूजालय,
अब बनवाओ शौचालय।
घर की लाज बचाना है,
शौचालय बनवाना है।।

चौपई

चौपई एक सम मात्रिक छंद है। इसके प्रयेक चरण में 15 मात्रा होती हैं, अंत में SI अनिवार्य होता है, कुल चार चरण होते हैं, क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं। इस छंद को जयकरी भी कहते हैं। उदाहरण :

भोंपू लगा-लगा धनवान,
फोड़ रहे जनता के कान।
ध्वनि-ताण्डव का अत्याचार,
कैसा है यह धर्म-प्रचार।।

पदपादाकुलक

पदपादाकुलक एक सम मात्रिक छंद है। इसके एक चरण में 16 मात्रा होती हैं,आदि में द्विकल अनिवार्य होता है किन्तु त्रिकल वर्जित होता है, पहले द्विकल के बाद यदि त्रिकल आता है तो उसके बाद एक और त्रिकल आता है,कुल चार चरण होते हैं, क्रमागत दो-दो चरण तुकान्त होते है।उदाहरण :

कविता में हो यदि भाव नहीं,
पढने में आता चाव नहीं।
हो शिल्प भाव का सम्मेलन,
तब काव्य बनेगा मनभावन।।

श्रृंगार (छंद)

श्रृंगार एक सम मात्रिक छंद है। इनके प्रत्येक चरण में 16 मात्रा होती हैं, आदि में क्रमागत त्रिकल-द्विकल (3+2) और अंत में क्रमागत द्विकल-त्रिकल (2+3) आते हैं, कुल चार चरण होते हैं,क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं। उदाहरण :

भागना लिख मनुजा के भाग्य,
भागना क्या होता वैराग्य।
दास तुलसी हों चाहे बुद्ध,
आचरण है यह न्याय विरुद्ध।।

राधिका (छंद)

राधिका एक सम मात्रिक छंद है। इसके प्रत्येक चरण में 22 मात्रा होती हैं, 13,9 पर यति होती है, यति से पहले और बाद में त्रिकल आता है, कुल चार चरण होते हैं , क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं।उदाहरण :

मन में रहता है काम , राम वाणी में,
है भारी मायाजाल, सभी प्राणी में।
लम्पट कपटी वाचाल, पा रहे आदर,
पुजता अधर्म है ओढ़, धर्म की चादर।।

कुण्डल/उड़ियाना (छंद)

यह एक सम मात्रिक छंद है। इसके प्रत्येक चरण में 22 मात्रा होती हैं, 12,10 पर यति होती है , यति से पहले और बाद में त्रिकल आता है औए अंत में 22 आता है। यदि अंत में एक ही गुरु 2 आता है तो उसे उड़ियाना छंद कहते हैं l कुल चार चरण होते हैं, क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं।

कुण्डल का उदाहरण :

गहते जो अम्ब पाद, शब्द के पुजारी,
रचते हैं चारु छंद, रसमय सुखारी।।
देती है माँ प्रसाद, मुक्त हस्त ऐसा,
तुलसी रसखान सूर, पाये हैं जैसा।।
उड़ियाना का उदाहरण :

ठुमकि चालत रामचंद्र, बाजत पैंजनियाँ,
धाय मातु गोद लेत, दशरथ की रनियाँ।
तन-मन-धन वारि मंजु, बोलति बचनियाँ,
कमल बदन बोल मधुर, मंद सी’ हँसनियाँ।।

रूपमाला

रूपमाला एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 24 मात्राएं होती हैं एवं 14,10 पर यति होती है, आदि और अंत में वाचिक भार 21 होता है। कुल चार चरण होते हैं और क्रमागत दो-दो चरणों में तुकांत होता है। इसे मदन भी कहते हैं। उदाहरण :

देह दलदल में फँसे हैं, साधना के पाँव,
दूर काफी दूर लगता, साँवरे का गाँव।
क्या उबारेंगे कि जिनके, दलदली आधार,
इसलिए आओ चलें इस, धुंध के उसपार।।

मुक्तामणि

मुक्तामणि एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 25 मात्राएं होतीं हैं और 13,12 पर यति होती है। यति से पहले वाचिक भार 12 और चरणान्त में वाचिक भार 22 होता है। कुल चार चरण होते हैं; क्रमागत दो-दो चरण तुकांत। दोहे के क्रमागत दो चरणों के अंत में एक लघु बढ़ा देने से मुक्तामणि का एक चरण बनता है। उदाहरण :

विनयशील संवाद में, भीतर बड़ा घमण्डी,
आज आदमी हो गया, बहुत बड़ा पाखण्डी।
मेरा क्या सब आपका, बोले जैसे त्यागी,
जले ईर्ष्या द्वेष में, बने बड़ा बैरागी।।

गगनांगना छंद

गगनांगना एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 25 मात्राएं होती हैं और 16,9 पर यति होती है एवं चरणान्त में 212। इसमें कुल चार चरण होते हैं और क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं।उदाहरण :

कब आओगी फिर, आँगन की, तुलसी बूझती
किस-किस को कैसे समझाऊँ, युक्ति न सूझती।
अम्बर की बाहों में बदरी, प्रिय तुम क्यों नहीं
भारी है जीवन की गठरी, प्रिय तुम क्यों नहीं।।

विष्णुपद

विष्णुपद एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 26 मात्राएं होतीं हैं और 16,10 पर यति होती है। अंत में वाचिक भार 2 होता है। इसमें कुल चार चरण होते हैं एवं क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं। उदाहरण :

अपने से नीचे की सेवा, तीर-पड़ोस बुरा,
पत्नी क्रोधमुखी यों बोले, ज्यों हर शब्द छुरा।
बेटा फिरे निठल्लू बेटी, खोये लाज फिरे,
जले आग बिन वह घरवाला, घर पर गाज गिरे।।

शंकर (छंद)

शंकर एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 26 मात्राएं होतीं हैं और 16,10 पर यति होती है एवं चरणान्त में 21। इसमें कुल चार चरण होते हैं और क्रमागत दो-दो चरणों पर तुकांत होता है।उदाहरण :

सुरभित फूलों से सम्मोहित, बावरे मत भूल
इन फूलों के बीच छिपे हैं, घाव करते शूल।
स्निग्ध छुअन या क्रूर चुभन हो, सभी से रख प्रीत
आँसू पीकर मुस्काता चल, यही जग की रीत।।

सरसी

सरसी एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 27 मात्राएं होती हैं औथ 16,11 पर यति होती है, चरणान्त में 21 लगा अनिवार्य है। इसमें कुल चार चरण होते हैं और क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं। इस छंद को कबीर या सुमंदर भी कहते हैं। चौपाई का कोई एक चरण और दोहा का सम चरण मिलाने से सरसी का एक चरण बन जाता है l उदाहरण :

पहले लय से गान हुआ फिर,बना गान ही छंद,
गति-यति-लय में छंद प्रवाहित,देता उर आनंद।
जिसके उर लय-ताल बसी हो,गाये भर-भरतान,
उसको कोई क्या समझाये,पिंगल छंद विधान।।

रास (छंद)

यह एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 22 मात्रा होती हैं एवं 8,8,6 पर यति होती है अंत में 112। चार चरण होते हैं एवं क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं।उदाहरण :

व्यस्त रहे जो, मस्त रहे वह, सत्य यही,
कुछ न करे जो, त्रस्त रहे वह, बात सही।
जो न समय का, मूल्य समझता, मूर्ख बड़ा,
सब जाते उस, पार मूर्ख इस, पार खड़ा।।

निश्चल (छंद)

यह एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 23 मात्रा होती हैं एवं 16,7 पर यति होती है और चरणान्त में 21। इसमें कुल चार चरण होते हैं और क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं। उदाहरण :

बीमारी में चाहे जितना, सह लो क्लेश,
पर रिश्ते-नाते में देना, मत सन्देश।
आकर बतियायें, इठलायें, निस्संकोच,
चैन लूट रोगी का, खायें, बोटी नोच।।

सार (छंद)

सार एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 28 मात्राएं होतीं हैं और 16,12 पर यति होती है। अंत में वाचिक भार 22 होता है। कुल चार चरण होते हैं और क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं। उदाहरण :

कितना सुन्दर कितना भोला,था वह बचपन न्यारा
पल में हँसना पल में रोना,लगता कितना प्यारा।
अब जाने क्या हुआ हँसी के,भीतर रो लेते हैं
रोते-रोते भीतर-भीतर,बाहर हँस देते हैं।।

लावणी (छंद)

लावणी एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 30 मात्राएं होतीं हैं और 16,14 पर यति होती है। कुल चार चरण होते हैं और क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं। इसके चरणान्त में वर्णिक भार 222 या गागागा अनिवार्य होने पर ताटंक , 22 या गागा होने पर कुकुभ और कोई ऐसा प्रतिबन्ध न होने पर यह लावणी छंद कहलाता है। उदाहरण :

तिनके-तिनके बीन-बीन जब,पर्ण कुटी बन पायेगी,
तो छल से कोई सूर्पणखा,आग लगाने आयेगी।
काम अनल चन्दन करने का,संयम बल रखना होगा,
सीता सी वामा चाहो तो,राम तुम्हें बनना होगा।।

वीर (छंद)

वीर एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 31 मात्राएं होतीं हैं और 16,15 पर यति होती है। चरणान्त में वाचिक भार 21 होता है। इसमें कुल चार चरण होते हैं और क्रमागत दो-दो चरणों पर तुकांत होते हैं। इसे आल्हा भी कहते हैं। उदाहरण :

विनयशीलता बहुत दिखाते,लेकिन मन में भरा घमण्ड,
तनिक चोट जो लगे अहम् को,पल में हो जाते उद्दण्ड l
गुरुवर कहकर टाँग खींचते,देखे कितने ही वाचाल,
इसीलिये अब नया मंत्र यह,नेकी कर सीवर में डाल l

त्रिभंगी

त्रिभंगी एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 32 मात्राएं होतीं हैं और 10,8,8,6 पर यति होती है एवं चरणान्त में 2 होता है। कुल चार चरण होते हैं और।क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं। पहली तीन या दो यति पर आतंरिक तुकांत होने से छंद का लालित्य बढ़ जाता है। तुलसी दास ने पहली दो यति पर आतंरिक तुकान्त का अनिवार्यतः प्रयोग किया है। उदाहरण :

तम से उर डर-डर, खोज न दिनकर, खोज न चिर पथ, ओ राही,
रच दे नव दिनकर, नव किरणें भर, बना डगर नव, मन चाही l
सद्भाव भरा मन, ओज भरा तन, फिर काहे को, डरे भला,
चल-चल अकेला चल, चल अकेला चल, चल अकेला चल, चल अकेला l

कुण्डलिनी (छंद)
कुण्डलिनी एक विषम मात्रिक छंद है। दोहा और अर्ध रोला को मिलाने से कुण्डलिनी छंद बनता है जबकि दोहा के चतुर्थ चरण से अर्ध रोला का प्रारंभ होता हो (पुनरावृत्ति)। इस छंद में यथारुचि प्रारंभिक शब्द या शब्दों से छंद का समापन किया जा सकता है (पुनरागमन), किन्तु यह अनिवार्य नहीं है। दोहा और रोला छंदों के लक्षण अलग से पूर्व वर्णित हैं l कुण्डलिनी छंद में कुल चार चरण होते हैं, क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं।

कुण्डलिनी = दोहा + अर्धरोला
उदाहरण :

जननी जनने से हुई, माँ ममता से मान,
जननी को ही माँ समझ, भूल न कर नादान।
भूल न कर नादान, देख जननी की करनी,
करनी से माँ बने, नहीं तो जननी जननी।।

वियोगिनी
इसके सम चरण में 11-11 और विषम चरण में 10 वर्ण होते हैं। विषम चरणों में दो सगण , एक जगण , एक सगण और एक लघु व एक गुरु होते हैं। जैसे -

विधि ना कृपया प्रबोधिता,
सहसा मानिनि सुख से सदा
करती रहती सदैव ही
करुण की मद-मय साधना।।


 मत्तगयन्द (मालती)
इस छन्द के प्रत्येक चरण में सात भगण (ऽ।।, ऽ।।, ऽ।।, ऽ।।, ऽ।।, ऽ।।, ऽ।।) और अन्त में दो गुरु (ऽ) के क्रम से 23 वर्ण होते हैं;

जैसे-
ऽ। ।ऽ। ।ऽ। ।ऽ। ।ऽ। ऽ। ।ऽ।। ऽऽ
“सेस महेश गनेस सुरेश, दिनेसहु जाहि निरन्तर गावें।
नारद से सुक व्यास रटैं, पचि हारे तऊ पुनि पार न पावें।।”
सुन्दरी सवैया
इस छन्द के प्रत्येक चरण में आठ सगण (।।ऽ, ।।ऽ, ।।ऽ, ।।ऽ, ।।ऽ, ।।ऽ, ।।ऽ, ।।ऽ) और अन्त में एक गुरु (ऽ) मिलाकर 25 वर्ण होते हैं;

जैसे-
।। ऽ।। ऽ।। ऽ। ।ऽ।। ऽ। ।ऽ। ।ऽऽ
“पद कोमल स्यामल गौर कलेवर राजन कोटि मनोज लजाए।
कर वान सरासन सीस जटासरसीरुह लोचन सोन सहाए। को
जिन देखे रखी सतभायहु तै, तुलसी तिन तो मह फेरि न पाए।
यहि मारग आज किसोर वधू, वैसी समेत सुभाई सिधाए।।”

यह छन्द मात्रा की गणना पर आधृत रहता है, इसलिए इसका नामक मात्रिक छन्द है। जिन छन्दों में मात्राओं की समानता के नियम का पालन किया जाता है किन्तु वर्णों की समानता पर ध्यान नहीं दिया जाता, उन्हें मात्रिक छन्द कहा जाता है। मात्रिक छन्दों का विवेचन इस प्रकार है-

 

रोला (काव्यछन्द)

यह चरण वाला मात्रिक छन्द है। इसके प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होती हैं तथा । व 13 मात्राओं पर ‘यति’ होती है। इसके चारों चरणों की ग्यारहवीं मात्रा लघु रहने पर, इसे काव्यछन्द भी कहते हैं;

जैसे-
ऽ ऽऽ ।। ।।। ।ऽ ऽ ।ऽ ।।। ऽ = 24 मात्राएँ
हे दबा यह नियम, सृष्टि में सदा अटल है।
रह सकता है वही, सुरक्षित जिसमें बल है।।
निर्बल का है नहीं, जगत् में कहीं ठिकाना।
रक्षा साधक उसे, प्राप्त हो चाहे नाना।।

हरिगीतिका
यह चार चरण वाला सममात्रिक छन्द है। इसके प्रत्येक चरण में 28 मात्राएँ होती हैं, अन्त में लघु और गुरु होता है तथा 16 व 12 मात्राओं पर यति होती है;
जैसे-
।। ऽ। ऽ।। ।।। ऽ।। ।।। ऽ।। ऽ।ऽ = 28 मात्राएँ।
“मन जाहि राँचेउ मिलहि सोवर सहज सुन्दर साँवरो।
करुना निधान सुजान सीलु सनेह जानत राव।।
इहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हिय हरषित अली।
तुलसी भवानिहिं पूजि पुनि पुनि मुदित मन मन्दिर चली।।”

अथवा

‘हरिगीतिका’ शब्द चार बार लिखने से उक्त छन्द का एक चरण बन जाता है;

जैसे-
।।ऽ।ऽ ।।ऽ।ऽ ।।ऽ।ऽ ।।ऽ।ऽ = 28 मात्राएँ
हरिगीतिका, हरिगीतिका, हरिगीतिका, हरिगीतिका

वीर (आल्हा)
वीर छन्द के प्रत्येक चरण में 16, ।ऽ पर यति देकर 31 मात्राएँ होती हैं तथा अन्त में । गुरु-लघु होना आवश्यक है;

जैसे-
।। ।। ऽ ऽऽ। ।।। ।। ऽ। ।ऽ ऽ ऽ।। ऽ। = 31 मात्राएँ
“हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँह।
एक पुरुष भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय-प्रवाह।।”


सोरठा

सोरठा
सोरठा अर्ध सम मात्रिक छंद है और यह दोहा का ठीक उल्टा होता है। इसके विषम चरणों(प्रथम और तृतीय ) में 11-11 मात्राएँ और सम (द्वितीय तथा चतुर्थ) चरणों में 13-13 मात्राएँ होती हैं। विषम चरणों के अंत में एक गुरु और एक लघु मात्रा का होना उत्तम माना जाता है।
सोरठा छंद के द्वितीय तथा चतुर्थ चरण के आरम्भ में जगण का आना अच्छा नहीं माना जाता है।
उदाहरण -
1-जो सुमिरत सिधि होय,
  गननायक करिबर बदन।
  करहु अनुग्रह सोय, 
  बुद्धि रासि सुभ गुन सदन॥1।।
2-जानि गौरि अनुकूल, 
   सिय हिय हरषु न जाइ कहि।
   मंजुल मंगल मूल,
    बाम अंग फरकन लगे॥2।।
।।।धन्यवाद।।।

मंगलवार, 23 अप्रैल 2024

वंदना में समानता

 मानस चर्चा 
लंकाकांड की वंदना और सुंदरकांड की वंदना में समानता :
लंकाकांड की वंदना आप सब जानते ही हैं: जो यो है:
रामं कामारिसेव्यं भवभयहरणं कालमत्तेभसिंहं
योगीन्द्रं ज्ञानगम्यं गुणनिधिमजितं निर्गुणं निर्विकारम्‌।
मायातीतं सुरेशं खलवधनिरतं ब्रह्मवृन्दैकदेवं
वंदे कंदावदातं सरसिजनयनं देवमुर्वीशरूपम्‌॥ 1॥
यहाँ के 'योगीन्द्रम् १, अजितम् २,
निर्विकारम् ३, भवभयहरणम् ४, कामारिसेव्यम् ५, ज्ञानगम्यम् ६, निर्गुणम् ७, रामम् ८, ईशम् ९, सुरेशम् १०,माया (तीतम्) ११, ब्रह्मवृन्दैकदेवम् १२, कन्दावदातम् १३, खलवधनिरतं रामम् १४, उर्वीशरूपम् १५ और वन्दे
१६ की जगह यहाँ
सुंदरकांड की वंदना है
शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं
ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम्‌।
रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं
वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूड़ामणिम्।।
जिसमे शान्तम् १, शाश्वतम् २, अनघम् ३, निर्वाणशान्तिप्रदम् ४, ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यम् ५, वेदान्तवेद्यम् ६, विभुम् ७, रामाख्यम् ८, जगदीश्वरम् ९, सुरगुरुम् १०, मायामनुष्यम् ११, हरिम् १२, करुणाकरम् १३ रघुवरम्१४भूपालचूड़ामणीं१५ और वंदे१६ शब्द हैं।।
इस मिलानसे प्रभु श्री राम के विशेषणोंके भाव स्पष्ट हो जाते है।





रविवार, 21 अप्रैल 2024

।।प्रतिवस्तूपमा अलंकार(Typical Comparison)।।

प्रतिवस्तूपमा अलंकार-(TypicalComparison)
    प्रतिवस्तूपमा का शाब्दिक अर्थ है-प्रतिवस्तु अर्थात् प्रत्येक वस्तु में उपमा (सादृश्य या समानता)का होना।इस अलंकार में दो वाक्य रहते हैं, एक उपमेय वाक्य तथा दूसरा उपमान वाक्य। इन दोनों वाक्यों में साधारण धर्म एक ही होता है, परन्तु उसे अलग-अलग ढंग से कहा जाता है । 
परिभाषा:-
जहाँ उपमेय और उपमान के पृथक-पृथक वाक्यों में एक ही समानधर्म दो भिन्न-भिन्न शब्दों द्वारा कहा जाय, वहाँ प्रतिवस्तूपमा अलंकार होता है।
जैसे:- 
(अ)सिंहसुता क्या कभी स्यार से प्यार करेगी ? 
     क्या परनर का हाथ कुलस्त्री कभी धरेगी ?

       यहाँ दोनों वाक्यों में पूर्वार्द्ध (उपमानवाक्य) का धर्म 'प्यार करना' उत्तरार्द्ध (उपमेय-वाक्य) में 'हाथ धरना' के रूप में कथित है।वस्तुतः दोनों का अर्थ एक ही है।
एक ही समानधर्म सिर्फ शब्दभेद से दो बार कहा गया है। अतः यहाँँ प्रतिवस्तूपमा अलंकार है।

(आ)चटक न छाँड़त घटत हू, सज्जन नेह गँभीर ।

      फीको परे न बरु फटे, रंग्यो चोल रंग चीर ।

यहाँ ‘चटक न छाँडत’ तथा ‘फीको परै न ‘ में केवल शब्दों का ही अन्तर है, दोनों के अर्थ में समानता है । अत: यहाँ भी प्रतिवस्तूपमा है ।

    यह साधर्म्य, वैधर्म्यं और माला इन तीन रूपों में पाया जाता है।इन तीनों को हम उदाहरणों के माध्यम से समझते हैं। 

1-साधर्म्य प्रतिवस्तूपमा अलंकार

 (एक धर्मता या समानधर्मता बताने वाला)

जैसे :-(अ)सठ सुधरहिं सतसंगति पाई।

        पारस परस कुधातु सुहाई।।

(आ) अरुनोदय सकुचे कुमुद 

       उडगन ज्योति मलीन।

       तिमि तुम्हार आगमन सुनि

       भये नृपति बलहीन।।

2-वैधर्म्यं प्रतिवस्तूपमा अलंकार

(असमानता भिन्नता - गुण, धर्म या कर्तव्य की भिन्नता वैपरीत्य, विपरीतता विषमता, अन्तर बताने वाला) जैसे:-

सूर समर करनी करहि कहि न जनावहिं आपु।

बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहि प्रतापु।।

3-माला प्रतिवस्तूपमा अलंकार

(एक तरह की चीजों का निरन्तर चलता रहने वाला क्रम)

सरुज सरीर बादि बहु भोगा।

बिनु हरि भगति जाइ जप जोगा।।

जाय जीव बिनु देह सुहाई।

बादि मोर बिनु सब रघुराई।।

काकु (वह विचित्र या परिवर्तित ध्वनि जो आश्चर्य, कष्ट, क्रोध, भय आदि के कारण मुँह से निकलती है। ऐसी बात जो अप्रत्यक्ष रूप से किसी का मन दुखाती हो को काकु  कथन माना जाता है।)द्वारा एक धर्म-सम्बंध वर्णन के कारण चौथा भेद भी माना  गया है-

4-काकु प्रतिवस्तूपमा अलंकार

(अ)प्रिय लागिहि अति सबहि मम

      भनिति राम जस संग।

     दारु बिचारु कि करइ कोउ

     बंदिअ मलय प्रसंग


(आ)तिन्हहि सुहाव न अवध-बधावा।

       चोरहिं चाँदनि रात न भावा।।

यहाँ 'न सुहाना साधारण धर्म है जो उपमेय वाक्य में 'सुहाव न' शब्दों से और उपमान वाक्य में 'न भावा' शब्दों से व्यक्त किया गया है।

इस अलंकार के अन्य उदाहरण भी देखें _

1. नेता झूठे हो गए, अफसर हुए लबार.

  हम अनुशासन तोड़ते, वे लाँघे मर्याद.

2. पंकज पंक न छोड़ता, शशि ना तजे कलंक.

3. ज्यों वर्षा में किनारा, तोड़े सलिला-धार.

त्यों लज्जा को छोड़ती, फिल्मों में जा नार..

4. तेज चाल थी चोर की गति न पुलिस की तेज


सोमवार, 15 अप्रैल 2024

।। विनोक्ति अलंकार।।

।।विनोक्ति अलंकार।।
परिभाषा:
जहाँ कोई वस्तु किसी दूसरी वस्तु के बिना
शोभा प्राप्त न होते हुए दिखाई जाय वहाँ 
विनोक्ति अलंकार होता है।

व्याख्या:

जहाँ पर उपमेय अर्थात् प्रस्तुत को किसी
अन्य वस्तु के बिना हीन अर्थात् अशोभन
या रम्य अर्थात् शोभन कहा जाता है वहाँ 
विनोक्ति अलंकार होता है।

दूसरे शब्दों में उपमेय अर्थात् प्रस्तुत को
शोभनीय या अशोभनीय बताने के लिए
जहाँ काव्य में बिना,विना, बिन,बिनु,विनु
ऋते,रीते, रिते ,रहित आदि शब्दों का 
प्रयोग होता है वहाँ विनोक्ति अलंकार 
होता है।अनेक विद्वानों ने शोभनीय के 
आधार पर शोभन विनोक्ति और 
अशोभनीय  के आधार पर अशोभन 
विनोक्ति नाम के  दो भेद भी बताया हैं।
जो शब्दों पर ध्यान देने मात्र से ही
आसानी से पहचाने जाते  हैं।

उदाहरण:-

1.जिमि भानु बिनु दिनु प्रान बिनु तनु 
  चंद बिनु    जिमि       जामिनी।
  तिमि अवध तुलसीदास प्रभु बिन
  समुझि धौं जियँ         भामिनी।

2-राज नीति बिनु धन बिनु धर्मा।
  हरिहि समर्पे बिनु सतकर्मा॥4॥
  बिद्या बिनु बिबेक उपजाएँ।
  श्रम फल पढ़ें किएँ अरु पाएँ॥


3-जिय बिनु देह नदी बिनु बारी।
 तैसिअ नाथ पुरुष बिनु नारी॥


4-लसत न पिय अनुराग बिन
    तिय के सरस सिंगार।

5-भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ।
  राम नाम बिनु सोह न सोउ॥
  बिधुबदनी सब भाँति सँवारी। 
  सोह न बसन बिना बर नारी॥2॥


धन्यवाद

रविवार, 14 अप्रैल 2024

।।उदाहरण अलंकार ।।

।।उदाहरण अलंकार ।।
व्याख्या :
जहाँ दो वाक्यों का साधारण धर्म भिन्न
हो पर उसमें वाचक शब्द के द्वारा
समता बताया जाए वहाँ उदाहरण 
अलंकार होता है। 
विशेष ध्यान रखने योग्य बात है कि
 उदाहरण अलंकार में 
उपमेय वाक्य देने के बाद: जैसे,जैसी,तैसे,तैसी,जिमि,तिमि,
यथा,जथा,जस, तस आदि वाचक
 शब्दों का प्रयोग होता है और ये
 उदाहरण अलंकार की पहचान भी हैं।

परिभाषा:

जहाँ किसी बात के समर्थन में उदाहरण
किसी वाचक शब्द के साथ दिया जाय,
वहाँ उदाहरण अलंकार होता है।
उदाहरण:-

1-वे रहीम नर धन्य है, 
पर उपकारी अंग।
बाँटन वारे को लगे, 
ज्यों मेंहदी को रंग ।

2-जपत एक हरि-नाम के, 
पातक कोटि बिलाहिं।
ज्यों चिनगारी एक तें, 
घास-ढेर जरि जाहिं।।

3-जो पावै अति उच्च पद, 
ताको पतन निदान।
ज्यों तपि-तपि मध्याह्न लौं, 
असत होत है भान।।

4-एक दोष गुन-पुंज में,
 तौ बिलीन ह्वै जात।
  जैसे चन्द-मयूख में,
 अंक कलंक बिलात।।

5-हरित-भूमि तृन-संकुल, 
समुझि परहि नहिं पंथ।
जिमि पाखंड-बिबाद तें,
लुप्त होहिं सद्ग्रन्थ।।

6-नयना देय बताय सब,
 हिय को हेत अहेत।
जैसे निर्मल आरसी, 
भली बुरी कही देत।।

7-निकी पै फिकी लगै,
 बिनु अवसर की बात।
जैसे बरनत युद्ध में,
 रस सिंगार न सुहात।।

8-बसै बुराई जासु तन,
ताही को सन्मान।
भलौ-भलौ को छाङियौ,
खोटे ग्रह जप दान।।

9-मन मलीन, तन सुंदर कैसे।
 विष रस भरा कनक-घट जैसे।।

10-उदित कुमुदिनी नाथ
     हुए प्राची में ऐसे
     सुधा-कलश
    रत्नाकर से उठता हो जैसे।

11-बूंद आघात सहै गिरी कैसे ।
  खल के वचन संत सह जैसे ।।

 12- छुद्र नदी भरि चलि उतराई।
       जस थोरेहुँ धन खल बौराई।

13- ससि सम्पन्न सोह महि कैसी ।
     उपकारी कै संपति जैसी ।।

14-कामिहि नारि पियारी जिमि
   लोभिहि प्रिय जिमि दाम।
   तिमि रघुनाथ निरन्तर 
   प्रिय लागहु मोहि राम।।

।।।। धन्यवाद। ।।।।   

शनिवार, 6 अप्रैल 2024

।।स्रग्धरा छन्द हिन्दी एवं संस्कृत में।

।।स्रग्धरा छन्द।।
छन्द का नामकरण
स्रग्धरा का अर्थ माला को धारण करने वाली है। इस छन्द में कवि अपनी बात को 'स्रक्' अर्थात् 'माला' रुप में विस्तार के साथ कहता है। यह एक ऐसा विशिष्ट छन्द है, जिसके इक्कीस अक्षरों का विभाजन यति की दृष्टि से
सात-सात अक्षरों में बराबर किया गया है और इस तरह सात-सात अक्षरों की समानाकार वाली तीन मालाएँ बन जाती है।
छन्द का लक्षण— 
गंगादास छन्दोमंजरी में स्रग्धरा का लक्षण देते हुए कहा है कि- 
'म्रभ्नैर्यानां त्रयेण त्रिमुनियतियुता स्रग्धरा कीर्तितेयम्' 
छन्द सूत्र में स्रग्धरा का लक्षण देते हुए कहा है कि-
"स्रग्धरा म्-रौभ् -नौ यौ य् त्रिः सप्तकाः।" 
लक्षणों की व्याख्या-
जिस छंद के प्रत्येक  चरणों में मगण रगण भगण नगण यगण यगण यगण के क्रम में वर्ण हो और "त्रिमुनियतियुता"मुनियों के क्रम से तीन बार यति हो उसे  स्रग्धरा छंद के नाम से जाना जाता है।
हिंदू मान्यताओं के अनुसार सप्तर्षि की उत्पत्ति इस सृष्टि पर संतुलन बनाने के लिए हुई। उनका काम धर्म और मर्यादा की रक्षा करना और संसार के सभी कामों को सुचारू रूप से होने देना है। सप्तर्षि अपनी तपस्या से संसार में सुख और शांति कायम करते हैं।सप्त ऋषियों के नाम हैं- कश्यप, अत्रि, वशिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और भारद्वाज।इन सात ऋषियों को सप्तर्षि कहा जाता है। इस प्रकार यह छंद एक बहुत ही मर्यादित छंद है जिसके द्वारा मर्यादापूर्ण बातों की अभिव्यक्ति की जाती है।त्रिः सप्तकाः का भी यही अर्थ है की सात-सात वर्णों पर हर चरण में तीन-तीन बार यति होता है।प्रत्येक चरणों में इक्कीस वर्णों वाला यह एकल छंद है।यह अति छंद परिवार का प्रकृति छंद है।सच बात तो यह है कि जो अर्थ मालिनी और स्रग्विणी का है, वही अर्थ स्रग्धरा का भी है। केवल प्रकृति और प्रत्यय का अन्तर है। स्रग्धरा में दो शब्द है 'स्रक' एवं 'धरा' जिसमें स्रक का अर्थ है 'माला' और धरा का अर्थ है 'धारण करने वाली' । स्रग्धरा छन्द में जब कवि को ढेर सारा अभिप्राय या बहुत लम्बे वृतांत का वर्णन करना होता है या प्रभुत अर्थ को परस्पर समेटना होता है तब वह प्रायः इस छन्द का प्रयोग होता है।दीर्घ छन्दों में ओजभाव को प्रकाशित करने वाला छन्द स्रग्धरा है। 
परिभाषा :- 
जिस छंद के प्रत्येक चरणों में मगण रगण भगण नगण यगण यगण यगण के क्रम में अर्थात् S S S, S I S, S I I, I I I, I S S, I S S, I S S  के क्रम में वर्ण हो और सात-सात वर्णों पर हर चरण में तीन-तीन बार यति हो उसे स्रग्धरा छंद कहते है।
छन्द का उदाहरण-1-
S S S  S I S  S I I  I I I  I S S  I S S  I S S
या सृष्टिः स्रष्टुराद्या वहतिविधिहुतं या हविर्या च होत्री,
S S S  S I S  S I I  I I I  I S S   I S S  I S S
येद्वेकालंविधत्तः श्रुतिविषयगुणा यास्थिताव्याप्य विश्वम्।
S S S   S I S   S I I   I I I  I S S  I S S   I S S
यामाहुः सर्वबीज - प्रकृतिरितियया प्राणिनः प्राणवन्तः,
S S S  S I S  S I I  I I I  I S S  I S S  I S S
प्रत्यक्षाभिः प्रपन्नस्तनुभिरवतु वस्ताभिरष्टाभिरीशः।।
उदाहरण-2-
S S S S I S S I I I I I I S S I S S I S S
रामं कामारिसेव्यं भवभयहरणं कालमत्तेभसिंहं
S S S  S I S  S I I  I I I  I S S  I S S  I S S
योगीन्द्रं ज्ञानगम्यं गुणनिधिमजितं निर्गुणं निर्विकारम् ।
S S S  S I S  S I I  I I I  I S S  I S S  I S S
 मायातीतं सुरेशं खलवधनिरतं ब्रह्मवृन्दैकदेवं
S S S  S I S  S I I  I I I  I S S  I S S  I S S
 वन्दे कन्दावदातं सरसिजनयनं देवमुर्वीशरूपम् ॥
उदाहरण-3-
S S S  S I S  S I I  I I I  I S S  I S S  I S S
केकीकण्ठाभनीलं सुरवरविलसद्विप्रपादाब्जचिह्नं
S S S  S I S  S I I  I I I  I S S  I S S  I S S
  शोभाढ्यं पीतवस्त्रं सरसिजनयनं सर्वदा सुप्रसन्नम्‌।
S S S  S I S  S I I  I I I  I S S  I S S  I S S
  पाणौ नाराचचापं कपिनिकरयुतं बन्धुना सेव्यमानं
S S S  S I S  S I I  I I I  I S S  I S S  I S S
  नौमीड्यं जानकीशं रघुवरमनिशं पुष्पकारूढरामम्‌॥
हिन्दी:- 

हिन्दी में भी इस छंद के लक्षण, परिभाषा एवम् विवरण संस्कृत की तरह ही है।
उदाहरण :-
काशी के आप वासी, शुभ यह नगरी, मोक्ष की है प्रदायी।
दैत्यों के नाशकारी, त्रिपुर वध किये, घोर जो आततायी।।
देवों की पीड़ हारी, भयद गरल को, कंठ में आप धारे।
देवों के देव हो के, परम पद गहा, सृष्टि में नाथ न्यारे।।
।।धन्यवाद।।