रविवार, 12 जनवरी 2025

मानसचर्चा।।हनुमानजी भाग तेरह।।रामकथा।।

मानसचर्चा।।हनुमानजी भाग तेरह।।रामकथा।।
प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया । राम लखन सीता मन बसिया ।। प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया, प्रभु माने जो भी भगवान् हो भगवानराम, भगवान कृष्ण, भोलेनाथजी जो
भगवान् की श्रेणी में हो वे प्रभु हैं। हनुमानजी की रुचि है जहाँ-जहाँ भगवान् की कथा होती है जहाँ-जहाँ
कीर्तन होता है। वहाँ-वहाँ श्री हनुमान जी बैठकर सुनते है।हमने सुना है
यत्र यत्र रघुनाथ कीर्तनम् । तत्र तत्र कृत मस्तकाञ्जलिम्। वाष्पवारि परिपूर्ण लोचनम् । मारुतिं नमत राक्षसान्तकाम्॥
एक बार श्रीमद्बल्लभाचार्य महाराजजी चित्रकूट आए, श्रीमद्भागवत सप्ताह पारायण करने,तो हनुमानजी का आह्वान किया और यजमान बनाया, हनुमानजी प्रकट हो गए। बल्लभाचार्यजी ने कहा कि हम आपको श्रीमद्भागवत सुनाना चाहते हैं। हनुमानजी ने कहा मैं आपके श्रीमुख से एक बार श्रीरामकथा सुनना चाहता हूँ। बल्लभाचार्य ने बैठकर श्रीराम कथा सुनाई। हनुमानजी ने कहा आपने इतनी सुन्दर कथा सुनाई, मैं यजमान बना हूँ और जब तक यजमान कथावाचक को दक्षिणा न दे उसे पुण्य भी नहीं मिलता, बोलिए आपको क्या दक्षिणा दूँ? महाराज ने कहा एक ही दक्षिणा दे दीजिए। बोले क्या? बोले मन्दाकिनी के तट पर बैठकर आप एकबार मेरे मुख से श्रीमद्भागवत सुन लीजिए बस मेरी यही दक्षिणा है। फिर हनुमानजी ने श्रीमद्भागवत सुनी-
प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया । राम लखन सीता मन बसिया ।।।देखो कथा जरूर सुनो। मैं हमेशा कथा सुनने का आग्रह करता हूँ चूँकि जो हम सुनते हैं वह हमारी
सम्पदा बन जाती है, जो हम सुनते हैं वह हमारे भीतर बैठ जाता है और जब तक आप किसी के बारे में
सुनोगे नहीं, तब तक आप उसे के बारे में जानोगे नहीं तो आप उससे मिलोगे कैसे ? हम सब भगवान् से
मिलना चाहते हैं लेकिन भगवान् को जानें, तब न मिलें। अपरिचित से कैसे मिलें? भगवान् को यदि जानना है।
तो भगवान् की कथा सुनें। गोस्वामीजी ने सिद्धान्त लिखा है- जानें बिनु न होई परतीती। बिनु परतीती होड़ नहिं प्रीती ॥ प्रीति बिना नहिं भगति दृढ़ाई। जिमि खगपति जल कै चिकनाई ॥।पहले सुनो श्रवणम् कीर्तनम् ! श्रीमद्भागवत की नवधा भक्ति में श्रवण को पहला स्थान दिया है। जिन्ह के श्रवण समुद्र समाना। कथा तुम्हारी सुभग सरि नाना ॥ भरहिं निरन्तर होहिं न पूरे तिन्ह के हिय तुम्ह कहुँ गृह रुरे ॥ वाल्मीकिजी ने भी कहा है कि भगवान् की कथा सुनना प्रभु मिलन का साधन है। जिनको भी भगवान्का  साक्षात्कार हुआ है, कथा के द्वारा ही हुआ है। गोस्वामीजी को मिले हैं तो कथा से ही मिले हैं। हमको आपको भी मिलेंगे तो कथा से ही मिलेंगे। विभीषण इसके उदाहरण हैं। विभीषण जी जब भगवान के पास तो भगवान ने पूछा कि मेरे पास आना तो इतना सरल नहीं है तुम यहाँ तक आ कैसे गए तो विभीषणजी
बोले कि प्रभु आपकी मंगलमय मधुर कथा को सुनकर -
आए - श्रवन सुजसु सुनि आयडु, प्रभु भंजन भव भीर ।
त्राहि-त्राहि आरति, हरण-सरन सुखद रघुवीर ॥
आपकी कथा सुनकर आया हूँ। कथा किसने सुनाई बोले तब हनुमंत कही सब रामकथा । ठीक है कथा तो सुनाई थी लेकिन कथा यहाँ तक कैसे ले आयी आपको। विभीषणजी ने कहा, महाराज इतनी सुन्दर आपकी कथा सुनाई थी कि कथा सुनकर मेरे मन में भाव आ गया कि जिनकी कथा इतनी सुन्दर है वह स्वयं कितने सुन्दर होंगे, जरा चलकर एकबार श्यामसुन्दर के दर्शन कर लें। कथा मुझे आपके चरणों तक ले आयी इसलिए गोस्वामीजी ने कहा है- जानें बिनु न होय परतीती।
बिनु परतीति होय नहिं प्रीती ।। प्रीति बिना नहिं भगति दृढ़ाई। जिमि खग पति जल कै चिकनाई ॥ कथा
का श्रवण करें और मैंने कई बार आपको यह सिद्धांत सुनाया है। यह सिद्धान्त समझिए हमारे मुख से जो अन्दर जाता है वह हमारे मलद्वार से बाहर निकल जाता है और जो हमारे कानों के द्वारा भीतर जाता है वह हमारे मुख के द्वारा बाहर निकलता है। कान में औषधि डाली तो मुख में आ जाती है अब कान के द्वारा यदि क्रोध की
बातें भीतर ले जाओगे तो मुख दिन भर गाली-गलौज करेगा। कान के द्वारा आप विषय भोगों की चर्चा भीतर ले जाओगे, मुख दिनभर विषय भोगों की चर्चा करेगा और कान के द्वारा आप भगवान् की मंगलमय कथा भीतर ले जाओगे मुख दिनभर भगवान् की भक्ति की भजन की, कथा की चर्चा करेगा। निर्णय हम करें कि कानों से कथा ले जानी है या कचरा ले जाना है। अनुभव यह कह रहा है कि कथा कम जाती है, सामान्यतः कचरा ही जाता है। मुख दिनभर कचरे में ही लगा रहता है। तो जहाँ कचरा होता है वहाँ गन्दगी, मक्खी, मच्छर व सुअर
जमा हो जाते हैं। वहाँ कोई खड़ा होना पसंद नहीं करता है। लोग नाक बंद करके वहाँ से दौड़ते हैं। कचरे घर
के पास कोई खड़ा होना पंसद नहीं करता। जीवन को कचराघर मत बनाइए। भगवान के सत्संग की कथा का
भवन बनाइए । जहाँ नित्य नियमित कथा गाई जाए ऐसा हमारा मन - मन्दिर चाहिए, सत्संग भवन हमारे भीतर
चाहिए। दूसरा सिद्धान्त, जो कुछ हम सुनते हैं वह हमारे मन में बैठ जाता है और जो हमारे मन में बैठा होता
है फिर माथे की आँखें हमेशा उन्हीं की खोज करती हैं। गोस्वामीजी ने लिखा है कि-
प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया । राम लखन सीता मन बसिया ।। भगवान् की जब कथा सुनेंगे तो राम लखन सीता मन में बस जाएंगे क्योंकि जो कान सुनते हैं वह हमारे मन की सम्पदा हो जाते हैं। जिसने भी कथा सुनी उसने यही माँग की- अनुज जानकी सहित प्रभु चाप बान
धर राम । मम् हिय गगन इंदु इब बसहु सदा निहकाम ।।
प्रभु आप जानकीजी तथा अनुज सहित मेरे हृदय में निवास करें और चाप - बाण धर इसी रूप में मेरे
हृदय में निवास करें। शरभंग ऋषि ने क्या माँगा-
सीता अनुज समेत प्रभु नील जलद तनु स्याम ।
मम हियँ बसहु निरंतर सगुनरूप श्रीराम ॥
और श्री हनुमानजी के हृदय में राम, लखन सीता मन बसिया । व्यक्ति जब अपना यश सुनता है.तो भीड़ में रहना चाहता है और सुने लोग क्या कहते हैं? नारदजी ने अपना थोड़ा सा यश सुना तो भीड़भाड़ में शादी समारोहों में घूमने लगे। साधु को सामान्यत: शादी समारोह में नहीं जाना चाहिए। अपनी शादी से तो बच ही जाए, दूसरे की शादी समारोह से भी बचा रहे तो अच्छा है। अगर वहाँ से बचा रहेगा तो बहुत सी चीजों से बच जाएगा क्योंकि वह श्रृंगारिक प्रसंग है, कामुक प्रसंग है। तो ठाकुरजी का श्रृंगार, बिहारीजी फूल बंगले में सजे हैं। दर्शन करोगे तो मन पवित्र होता है लेकिन विवाह का श्रृंगार देखोगे तो मन कामुकता से भरता है। कुछ न कुछ अपने मन में भी होने लगता है और हमारी आपकी हैसियत क्या नारद जैसे साधक लोग विश्वमोहिनी के समारोह में चले गए तो क्या बोलने लगे-
जप-तप कछु न होइ तेहि काला । हे बिधि मिलइ कवन बिधि बाला ॥.करौं जाइ सोइ जतन बिचारी। जेहि प्रकार मोहि बरै कुमारी ।। दूसरे का स्वयंवर देखा तो अपने स्वयंवर की इच्छा होने लगी। साधु-संन्यासी जितना शादी समारोह से दूर रहेंगे उतना ही बचे रहेंगे। अन्यथा न साधु रह पाते हैं न गृहस्थी रह पाते हैं बीच की खचेड़न हो जाते हैं। वेश साधु का, स्वरूप साधु का और स्वभाव कुछ और चिन्तन करने लगता है। न इधर के रहे न उधर के। मनुष्य जब अपना यश सुनता है तो भीड़ की तरफ भागता है, और मनुष्य जब भगवान् का यश सुनता है तो एकांत।पसंद करता है, क्योंकि उसका मन भगवान से लग जाता है। हनुमानजी की एक विशेषता है कि वह रामजी के बिना तो रह सकते हैं लेकिन रामकथा के बिना नहीं रह सकते इसलिए इस कथा के लोभ से वह साकेत नहीं गए। जब भगवान् अपनी लीला पूर्ण कर साकेत को जाने लगे तो प्रभु ने हनुमानजी से पूछा कि क्या बात है।
तैयारी नहीं की, चलोगे नहीं क्या हमारे साथ बोले नहीं। क्यों तुम तो हमेशा हमारे साथ रहते हो। बोले हाँ प्रभु,
लेकिन अब हम यहीं रहेंगे। क्यों क्या बात है, हमारे साथ क्यों नहीं चलना । हनुमानजी ने कहा प्रभु, वहाँ आप
तो मिलागे पर आपकी कथा नहीं मिलेगी और मैं आपकी कथा के बिना नहीं रह सकता। इसलिए सिद्धान्त बन
गया कि जब तक पृथ्वी पर रामकथा चलेगी, तब तक हनुमानजी पृथ्वी पर ही निवास करेंगे।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

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