मानसचर्चा ।। हनुमानजी भाग बारह।। निसिचर हीन
सोई गुणज्ञ सोई बड़भागी। जो रघुबीर चरण अनुरागी ॥
जो शास्त्र को जीता है वही गुणी है। गोस्वामीजी ने गुणी की मानस में परिभाषा दी है-
सोई गुणज्ञ सोई बड़भागी। जो रघुबीर चरण अनुरागी ॥
गुणी कौन है? जो रघुवीर के चरणों में अनुराग करते हैं वे गुणी हैं जो भगवान् का भजन करते हैं-
पर मन पर धन हरण को वैश्या परम प्रवीन ।
तुलसी सोई चतुरता रामभक्ति जो लीन।।
चतुरता के कई अर्थ हैं। असली चतुरता तो यही है कि सब कुछ छोड़कर अपना भजन करो उसको चतुर
कहते हैं। कहते हैं न, बहुत चतुर आदमी है केवल अपने काम पर इसकी निगाह है। तो चतुर का यही अर्थ है
कि सारे संसार के झंझटों में भी जिसकी निगाह केवल अपने भजन पर हो। गोस्वामीजी ने कहा है कि-
कठिन काल मल कोस। जोग न यज्ञ ज्ञान तप ॥
परिहरि सकल भरोस । रामहि भजहि ते चतुरनर ॥
इस कठिन काल में भी सारे झंझटों से निकलकर जो अपना भजन करता है वही चतुर है। हमारी चतुराई
केवल स्वार्थसिद्धि में लगी है इसलिए वह निन्दनीय हो गयी। चतुराई शब्द तो वन्दनीय है। चतुर का अर्थ है
जो चतुरविद् पुरुषार्थ में डूबा हुआ है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों के लिए जो डूबा है वही चतुर हम
जगत् में बहुत चतुर हैं, भगवान् बहुत सीधे हैं। दुनियां से काम करने के लिए इतनी चतुराई दिखाएंगे 'येन केन
प्रकारेण' हमारा काम बन जाए लेकिन भगवान् के भजन के लिए उसमें सुविधा ढूढेंगे। समय का रोना रोयेंगे,
परिस्थिति का रोना रोयेंगे। भजन तो करना चाहते हैं। भजन की परिस्थिति नहीं है। सुविधा नही है, समय नही
है, शरीर की क्षमता नहीं है, तबियत ठीक नहीं रहती, यही बिगड़ी हुई तबियत दिनभर रुपए कमा सकती है,
क्लब में नाच सकती है, दुनियां में मटरगश्ती कर सकती है लेकिन भगवान् का भजन नहीं कर सकती तो हम
जगत में चतुर हैं एक संत सुनाते हैं मनुष्य कैसा चतुर होता है-
एक व्यक्ति हनुमानजी के मन्दिर गया, कोई सन्तान नहीं थी। तो हनुमानजी से आराधना की। हे हनुमानजी!
आप दुर्गम काज जगत के जेते सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते- सब दुर्गम आपकी कृपा से सुगम होता है। कृपा
करें मुझे एक सुन्दर सा बेटा अगर मिले तो मैं आपको हीरों का हार चढ़ाऊं। पुजारी ने कहा कोई चिंता मत
कीजिए, हम आपकी ओर से अनुष्ठान करेंगे। पुजारी को भी लोभ था हीरे का हार चढ़ेगा तो अपने को ही
मिलेगा। चालीस दिन का पाठ किया। संयोग से, सौभाग्य से इनको पुत्र पैदा हो गया। बेटे का नाम रखा हीरालाल ।
छोटे बच्चों को हीरालाल कोई न बोल। सभी बोलें ओ हीरा-हीरा बोले, पुजारी को पता लगा कि सेठजी को
पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। बड़े खुश हुए कि अब तो जरूर हीरे का हार चढ़ेगा। तीन महीने का बालक हो गया,
पत्नी ने कहा चलो जी मन्दिर में पूजा कर आएं, मनौती तो पूरी हो गयी। बोले रुक, अभी थोड़ा बालक और
बड़ा होने दे। दो साल का हो गया। पति ने कहा पाँच वर्ष का हो जाएगा तो मुण्डन के बाद चलेंगे। बालक
पाँच वर्ष का हो गया तो पत्नी ने फिर कहा, हमने हनुमानजी के वहाँ जो बोला हुआ है वह पूरा करना है,
देवता के सामने मनौती जो रखी जाती है वह पूरी की जाती है अन्यथा अनिष्ट हो सकता है। चलिए न अपने
यहाँ कमी किस बात की है। इसी बालक के नाम पर एक हीरे का हार चढ़ाने को कहा है तो वह चढ़ा दें।
आदमी तो आदमी है जब तक काम पूरा नहीं होता प्रार्थना के और भाव होते हैं, काम पूरा होते ही प्रार्थना
के और भाव हो जाते हैं। पत्नी ने बहुत आग्रह किया इसलिए पत्नी को धर्मपत्नी कहा जाता है। पति का धर्म
से क्या सम्बन्ध ? एक दिन तय हो गया, अच्छा चलो हीरे का हार चढ़ाएं। पुजारी को भी समाचार मिल गया,
सेठजी आ रहे हैं हीरे का हार चढ़ाने मन्दिर धोया, चोला चढ़ाया, अगरबत्ती जलाई, पुष्पमाला चढ़ाई, पत्नी
से बोला आज तो हमारे द्वार खुलने वाले हैं। आनन्द होगा, हीरे का हार, चाहे अंगूठी, या नथ जो भी बनवाना
चाहो। सो अब आगे पूजा-सब हो गयी, माथा टेक दिया बार-बार पत्नी भी देखे, पुजारी भी देखे, सेठजी के
हीरों का हार, पत्नी ने कहा हीरे का हार चढ़ाओ। लड़के के गले में सुन्दर फूलों का हार पहनाकर ले गए थे
और वह उतार कर हनुमानजी के चरणों में चढ़ा दिया। बोले यह लो हीरे का हार बोले क्या मतलब? बोले
हीरा ही तो है लड़का और इसी का हार तो मैं चढ़ा रहा हूँ। गले की माला चढ़ाकर चले गए। भजन में चतुराई,
जीवन में चतुराई, दूसरे का पैसा कैसे अपनी जेब में आए इसी चतुराई में हम डूबे हैं। जो मन के विकारों को
छोड़कर भजन में लगा दे वही मन चतुर है। हम लोग उसी को चतुर मानते हैं जो जैसे-तैसे पैसा कमा ले।
देखो वह कितना चतुर व समझदार है कहाँ से कहाँ पहुंच गया। हनुमान् गुणी चातुर का अर्थ है सब कुछ छूट
सकता है किन्तु प्रभु की सेवा, प्रभु का सिमरन नहीं छूट सकता और रावण को समझाया है हनुमानजी ने बड़ी
चतुराई से। रावण किसी की बात सुनने को तैयार नहीं, पत्नी की, परिवार की, सुनने को तैयार नहीं, मानस में
तो संकेत है, कुम्भकरण ने समझाया, मेघनाथ ने समझाया, उनकी भी सुनने को तैयार नहीं हनुमानजी ने चारों
प्रकार से रावण को समझाया, साम, दाम, दण्ड, भेद ।
साम माने समझाकर, हाथ जोड़कर विनती करहुँ जोरि कर रावण, सुनहु मान तजि मोर सिखावन ।।
मन्दोदरी ने समझाया, विभीषण ने समझाया माल्यवंत, मारीच, कालनेमि, हनुमानजी व अंगद जी आदि सभी
ने समझाया। दाम यानि लोभ से समझाया। अरे रावण-
राम चरन पंकज उर धरहू। लंका अचल राजु तुम्ह करहू ॥
नहीं माना। दण्ड से, भय से समझाया अगर तुम नहीं मानोगे तो-
संकर सहस विष्णु अज तोही सकहिं न राखि राम कर द्रोही ।।
फिर तुमको ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी नहीं बचा पाएंगे, तुम रामद्रोह छोड़ दो और भेद से कपट से भी
समझा दिया। हनुमानजी ने सारी लंका जलाकर राख कर दी केवल एक विभीषन, कर गृह नाहीं। रावण और
विभीषण में भेद डाल दिया और परिणाम यह हुआ कि अंत में विभीषण रावण को छोड़कर राम की शरण में
आ गया। वैसे इसमें बुराई नहीं है। अज्ञानतावश मानसिक कमजोरी के कारण अगर कोई दुर्जन के चंगुल में
सज्जन फँस गया तो येन-केन प्रकारेण दुर्जन के चंगुल से निकालकर परमात्मा के सम्पर्क में ले आना कपट
नहीं है बल्कि नीति है तो दुर्जन से सज्जन को हनुमानजी ने दूर कर दिया। रावण को जब यह पता लगा कि
पूरी लंका जल गयी केवल विभीषण का घर बचा है तो रावण का माथा उसी समय उनक गया था कि यह
विभीषण लगता है इस वानर से अन्दर ही अन्दर मिला हुआ है। इसी ने उसे मृत्युदण्ड से बचाया है। नीति
विरोध न मारिय दूता।। इसी ने बोला था आन दण्ड कछु करिअ गोसाँई। और उसी आग को रावण हृदय
में लिए बैठा रहा। अंत में रावण ने विभीषण पर लात का प्रहार कर दिया। जा, उसी तपस्वी की शरण में जा ।
तो साम, दाम, दण्ड, भेद चारों नीतियों का जो जीवन में पालन करता हो वह चतुर नहीं, अति चतुर है और
रामकाज करिबे को आतुर॥ हनुमानजी राम काज करिबे को आतुर हम सब कामकाज करिबे को आतुर । जब
देखो यही सुनने को मिलता है, बड़े जरूरी काम से जा रहा हूँ। कहाँ गए थे? बड़े जरूरी काम से। कहाँ जा
रहे हो, बड़े जरूरी काम से। भई न रात, न दिन, न सुबह, न शाम चौबीस घण्टे काम ही काम। श्रीहनुमानजी
रामकाम में और हम कामकाज में श्रीहनुमानजी रामकाज करिबे को आतुर और हम कामकाज करिबे को आतुर। देखो रामकाज और कामकाज ये कोई विरोधाभाषी नहीं इन दोनों में कोई विरोध नहीं है। दोनों बिल्कुल
एक हैं कई बार हम लोग कहते हैं काम काज में डूबे हैं, राम काज कैसे कर पाएंगे इनको अलग-अलग मत
समझिए। भजन करने में सब कुछ छोड़कर बैठ जाने को भजन नहीं कहा है। यह तो आलस्य है कुछ काम
नहीं है तो कहते हैं कि हम भजन कर रहे हैं। हम कई साधुओं को देखते हैं कि वे आराम कर रहे हैं कहते
हैं हम तो अनुष्ठान कर रहे हैं। बढ़िया माल खाना हमारा अनुष्ठान चल रहा है। हमारा व्रत चल रहा है। यह
चतुराई है, यह चालाकी है। भजन माने पलायनवाद नहीं, आलस्य नहीं है। सब कुछ छोड़ कर किसी कमरे में
कैद हो जाना भजन नहीं है। भजन का अर्थ है सब कुछ भगवान् से जोड़ देना। यही रामकाज है, सुग्रीव का
राजतिलक करने के बाद सुग्रीव से भगवान् ने यह नहीं कहा था सुग्रीव माला लेकर बैठ जाना। अपितु क्या
कहा था? सग्रीव!
अंगद सहित करेहु तुम्ह राजू । संतत हृदयँ धरेहु मम काजू ॥
भगवान् ने कहा कि हे सुग्रीवजी शरीर से कामकाज करना और हृदय से रामकाज का सुमिरन करना,
लेकिन सुग्रीव कामकाज में डूब गया। रामकाज सुग्रीव बिसारा ।। हम सबकी यही स्थिति है। हम काम-काज
में इतने डूब जाते हैं कि राम काज को बिसार देते हैं। शरीर का काम है कामकाज और मन का काम है
रामकाज। लेकिन हम भजन के लिए फुर्सत देखते हैं। अरे भाई साधना तो संकल्प से होती है। साधना सुविधा
से नहीं होती, संकल्प से होती है। क्योंकि संकल्प से सोई हुई शक्तियां जगती हैं। संकल्प चाहिए इतना मुझे
करना है। आपने देखा होगा कि सुविधा से नहरें निकला करती हैं। उनका सर्वे होता है, उनका नक्शा बनता है,
उनकी खुदाई होती है, उनकी पटरियां बनाई जाती हैं। लेकिन सुविधा से निकली नहर सौ-दो सौ तीन सौ किमी
जाकर खत्म हो जाती है। नदियां संकल्प से निकलती हैं, नदी का संकल्प है कि मुझे महासागर से मिलना है।
उसको यह भी मालूम नहीं है कि महासागर किस दिशा में है मार्ग कौन सा है, नक्शा व एटलस लेकर नहीं
चलती नदी । छोड़ दिया हिमालय, बाबुल का घर छोड़ दिया, चली प्रियतम से मिलने के लिए। भरोसा है, यही
उसका संकल्प है कि मुझे मिलना है। परिणाम क्या होता है बड़े-बड़े हिमालय के शिखरों को चूरण करती
हुई, बड़े-बड़े रेगिस्तानों को व टीलों को ढहाती हुई बड़ी-बड़ी झीलों को भरती हुई एक दिन नदी महासागर
से मिल जाती है। जीवन में संकल्प था कि मार्ग में आने वाली विघ्न बाधाओं के कारण भी रुक नहीं पाई
और यह भी नियम है कि संकल्पवान के मार्ग में बाधाएं नहीं आतीं, विघ्न नहीं आते तब तक कार्य में तेजी
नहीं आती। नदियों के मार्ग में पहाड़ जैसे विघ्न, बाधाएं न आएं तो नदियों के वेग कम हो जाएं उनको टक्कर
मार कर, तोड़कर जब आगे बढ़ती है तो उनमें वेग बढ़ता है। तो साधना का संकल्प चाहिए और संकल्प पूरा
होता है नियम से। संकल्प माने नियम । इसलिए इन साधुओं की भाषा सुनो और नित्य नियम पर चलो। जब
सारी सृष्टि नियम से चलती है, सूर्य नियम से, चन्द्र नियम से, प्रकृति नियम से, वर्षा नियम से, हर चीज के
नियम हैं तो साधना का क्या कोई नियम नहीं होना चाहिए? साधना का भी नियम चाहिए। नियम से ही निष्ठा
पैदा होती है, निष्ठा से रुचि बनने लगती है, रुचि से आसक्ति होने लगती है, आसक्ति से भाव बनने लगता
है, भाव ही परमात्मा के प्रेम में परिवर्तन करता है यह पूरी की पूरी यात्रा है, पूरी की पूरी सीढ़ी है। इसलिए
कोई न कोई नियम ये जो संत लोग, साधु लोग, साधक लोग नियम बना देते हैं कि जब तक इतना पाठ नहीं
कर लेंगे तो मौन रहेंगे, तब तक चाय, जलपान कुछ भी स्पर्श नहीं करेंगे। तो कोई न कोई नियम होना चाहिए
और कोई नियम पालन तब होता है जब नियम छोटा होता है। जितना नियम छोटा होगा उतना ही आनन्द से
उसका पालन होगा। सो रहे हों खर्राटे लेकर तो नियम कौन पूरा करेगा? अपने को ही पालन करना पड़ेगा तो
जीवन में नियम चाहिए साधना का संकल्प चाहिए। फिर उसके लिए सातत्य का स्वभाव भी चाहिए जो नियम
लिया है अखण्ड, सतत् चाहिए। साधना का नियम, साधना अगर एक दिन भी छूट गयी तो वहीं से शुरू करनी
पड़ती है जहाँ से प्रारम्भ की थी। साधना हम कुछ दिन तो करते हैं, कुछ दिन छोड़ देते हैं और फिर वही
उठक-बैठक दो दिन चले, तीन दिन वापस हो गए। ऐसा नहीं हो। और जो संकल्प जीवन में लिया है उसकी
सुरक्षा भी चाहिए। हमने पौधा तो बहुत अच्छा लगाया लेकिन बाड़ लगाना भूल गए, बच्चों ने तोड़ दिया, गाय,
भैंस व बकरी कुतर गयी। जल नहीं दिया सूख गया, फिर माथा पकड़कर रोते रहे। अरे राम-राम इतना महंगा
पौधा लगाया था, सूख गया। सुरक्षा चाहिए पर उसकी सुरक्षा नहीं कर पाते। कैसा स्वभाव हो गया जैसे हम
अपने घर में प्रतिदिन झाडू लगाते हैं, बुहारी लगाई, कूड़ा निकाला और कूड़ा बाहर फेंक दिया तो कूड़ा तो
घर के बाहर निकल गया पर खिड़की-दरवाजा बंद करना भूल गए तो हवा का झौंका आया और वही कूड़ा
फिर घर में आ गया फिर बुहारी लगाई फिर कूड़ा बाहर फेंका फिर खिड़की-दरवाजा बंद करना भूल गए
फिर झौंका आया फिर कूड़ा अन्दर पूरी जिन्दगी हमारी बुहारी लगाते कूड़ा फेंकने में निकल जाएगी और अंत
समय हमारे एक हाथ में बुहारी और एक हाथ में कूड़ा ही रहेगा। दिन में हम चार सीढ़ी चढ़ते हैं और रात
को पाँच सीढ़ी नीचे उतर जाते हैं। दिन में गीता पाठ कर लिया, रात्रि को मनोहर कहानी पढ़ ली। प्रातः काल
मन्दिर हो आए और सायंकाल मदिरालय हो आए। सुबह सत्संग कर लिया सायंकाल सिनेमा देख लिया। दिन
में चढ़े, रात में गढ्ढे में उतर गए तो जीवन पूरा का पूरा घसीटन बन गया। दो नाव में सवारी, भोग भी चाहते
हैं, भगवान् भी चाहते हैं। स्वामी रामतीर्थजी के जीवन की बड़ी मार्मिक घटना है। देखो सीखना हो तो छोटे
से भी सीखा जा सकता है और न सीखना हो तो गुरु की वाणी भी ठुकराई जा सकती है। उसमें भी कुतर्क
किया जा सकता है। सती सीखने को तैयार नहीं, शंकर जी की वाणी में हजार तर्क कर दिए कि कैसे भगवान्
हैं? यह भगवान् नहीं हो सकते हैं ऐसा है वैसा है। और जिसको सीखना है वह चपरासी से भी सीख सकता
है। जिसको नहीं सीखना है वह सद्गुरु से भी क्या सीखेगा? जब स्वामी रामतीर्थ के मन में वैराग्य जागा तो
उस समय वह लाहौर विश्वविद्यालय में प्राध्यापक थे। एक इनकी बिटिया थी तो घर छोड़ें तो बिटिया का क्या
होगा, बंगले का क्या होगा, परिवार का क्या होगा, पत्नी का क्या होगा? भीतर से हिलोरे हैं, मन उहा पोह में
था, प्रातः काल बंगले में टहल रहे थे। कई बार आपने देखा होगा कि बड़े लोग किसी चिंता में डूबे टहलते हैं
तो निगाह नीचे को, अपनी धुन में इधर-उधर टहल रहे थे। मेहतरानी बुहारी लगाने आयी थी उस समय थोड़ा
छुआछूत भी ज्यादा था तो अब इधर झाडू लगाए या उधर -उधर झाडू लगाए तो बड़ी मुश्किल कि झाडू कैसे
लगाए। चूंकि उनके ऊपर धूल जाती है। जब बहुत देर हो गयी। यह इधर आएं तो मेहतरानी उधर बचे, बाबूजी
कैसे बचें। मेहतरानी बोली बाबूजी एक तरफ हो जाओ, मेहतरानी ने तो अपने हिसाब से कहा कि आप एक
तरफ हो जाओ तो मैं झाडू लगाऊं। मेहतरानी ने तो वैसे ही स्वाभाविक बोल दिया कि बाबूजी एक तरफ हो
जाओ तो एकदम हृदय में चोट कर गई मेहतरानी की बात और उसी समय फिर बंगले में अन्दर नहीं गए।
बंगले को आँख उठाकर देखा भी नहीं। बंगले के बाहर निकल गए क्योंकि मेहतरानी ने मार्गदर्शन दे दिया।
बाबूजी एक तरफ चलो चाहे इधर चलो चाहे उधर चलो तो जीवन का निर्णय, उसकी सुरक्षा, उसका संकल्प,
, उसका सातत्य तब जीवन में साधना होती है। एक निर्णय करो कि हमको किधर जाना है। स्वर्ग जाना है तो
फिर स्वर्ग की चिन्ता, स्वर्ग का ही वातावरण, स्वर्ग का ही सुमिरन फिर नरक जो होगा सो होगा हमको नहीं
मालूम। नरक भोगना हो तो पूरा भोगो । स्वर्ग अगले जन्म में देखेंगे लेकिन दोनों पैर रहेंगे तो घसीटन हो जाएगी। जैसे जिस गाड़ी में आगे-पीछे दोनों ओर बैल जोड़ दो चलेगी क्या गाड़ी? वहीं की वहीं रहेगी। दूसरी घटना यदि हमारे वृन्दावन में आप आए होंगे तो रंगजी के मन्दिर के पास दूसरा मन्दिर है लाला बाबू का। इनके
जीवन की भी बड़ी विचित्र घटना है। यह कोलकाता के राजा थे। सायंकाल लॉन में बाहर बैठे थे। धोबी और
धोबिन कपड़ा धोकर आए । अन्दर धोबी कपड़े की गठरी लेकर गया तो गठरी खुलवा कर गिनवानी पड़ती है। देर हो गयी। उस समय हावड़ा का पुल नहीं बना था, नाव भी बहुत कम थीं। बहुत देर हो गयी तो धोबिन
ने बड़ी जोर से बाहर से बोला दिन गैलो पोरे चौल।
लाला राजा बाबू ने पूछा तुम इनसे क्या कहती हो? तो वो घबरा गयी। राजा साहब, मैंने तो कोई ऐसी
बात बोली नहीं, बोलो बोलो अभी क्या बोल रही थी। बोली मैंने तो ऐसा कुछ भी नहीं बोला, बोले अभी-अभी
तुम क्या बोल रही थी। बोली हमारा जो मानुष है वह अन्दर गया है। बहुत देर हो गयी अभी तक आया नहीं
इसलिए कह रही थी कि दिन गैलो पोरे चौल।
दिन जानेवाला है पार जाना है कैसे चलोगे। रात हो गई। इतना सुनना था लालाबाबू उसी वक्त ट्रेन
पकड़कर वृन्दावन आ गये। दिन जा रहा है पार कब उतरोगे जीवन जा रहा है। कब पार उतरोगे। हम कामकाजको तो आतुर हैं पर रामकाज को आतुर नहीं साधना में संकल्प चाहिये, तप चाहिए और सुरक्षा चाहिये।रामकाज करिवे को आतुर । राम का काज क्या है? निसिचर हीन करउँ महि,भुज उठाइ प्रण कीन्ह ॥
राम का एक ही कार्य है राक्षसों का विनाश करना, राक्षसी प्रवृत्ति का नाश करना और इसी रामकाज में
हनुमानजी लगे हुए हैं। पूँछ में लपेट लपेट कर राक्षसों को मारना यह हनुमानजी का एकमेव जीवन का कार्य
था, भगवान् का भजन करना हनुमानजी का एकमेव जीवन का कार्य था।
।। जय श्री राम जय हनुमान
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