रविवार, 5 जनवरी 2025

मानसचर्चा ।।हनुमानजी भाग सात।।जहाँ सुमति तहँ सम्पति नाना।

मानसचर्चा ।।जहाँ सुमति तहँ सम्पति नाना। जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना ।। हमारे हनुमानजी के बारे में हनुमान चालीसा में बाबा ने लिखा है कि-
महावीर विक्रम बजरंगी।कुमति निवार सुमति के संगी।
श्रीहनुमानजी केवल महावीर बजरंगी ही नहीं हैं। अपितु कुमति निवार सुमति के संगी भी हैं। श्रीहनुमानजी
दुर्बुद्धि को दूर करते हैं। दुर्बुद्धि हटाते हैं, सुबुद्धि देते हैं। हनुमानजी सद्बुद्धि देते हैं क्योंकि हनुमानजी
ज्ञानिनाम्ऽग्रगण्यम् अतुलितबलधामम् हैं। वेद में गायत्री को ही महामंत्र की संज्ञा दी। क्यों? क्योंकि पूरे के पूरे गायत्री मंत्र में सूर्य की उपासना है। सूर्य ज्ञान के प्रतीक हैं ,प्रकाश के प्रतीक हैं। तमसो मा ज्योतिर्गमय ।चूंकि पूरे के पूरे गायत्री मंत्र में शुद्ध बुद्धि की माँग की गयी है। “ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यम् भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्" हे सूर्य नारायण, हे सविता, हमको शुद्ध बुद्धि प्रदान करें। हमें बुद्धि निर्मल चाहिए। प्रभु श्री राम भी  कहते है कि -
निर्मल मन जन सो मोहि पावा । मोहि कपट छल छिद्र न भावा ॥
भगवान् कहते हैं मुझे निर्मल बुद्धि वाले ही पाते हैं और निर्मल बुद्धि गायत्री माँ के द्वारा ही मिल सकती है। वेद भी भगवान् सूर्य नारायण के माध्यम से इस गायत्री मंत्र में यही तो कहते  है कि धियो यो नः प्रचोदयात।भगवान् क्या कह रहे हैं। मुझे क्या पसंद नहीं है। मोहि कपट छल छिद्र न भावा। कपट, छल और छिद्र यह तीनों भगवान् को भाते नहीं हैं। ये तीनों भगवान् को पसन्द आते नहीं हैं। दुर्बुद्धि ही छल कराती है। बुद्धि ही कपट कराती है, बुद्धि ही अनेक प्रकार के विकारों के छिद्र करती है। यह तीनों ही बुद्धि के दोष हैं। छिद्र माने दोष, जब तक बुद्धि ही शुद्ध नहीं होगी तब तक मन शुद्ध नहीं होगा और जब तक मन शुद्ध नहीं होगा तब तक जीवन की क्रिया शुद्ध नहीं होगी। आचरण शुद्ध नहीं होगा और आचरण शुद्ध नहीं होगा तो सुमिरन भी शुद्ध नहीं होगा। यह पूरी की पूरी ही जीवन यात्रा है इसलिए मन की शान्ति की माँग मत करो, मन की शुद्धि की माँग करो। मन शुद्ध चाहिए। हमने माँ से भी निर्मल बुद्धि की ही प्रार्थना है- भक्ति महारानी ही बुद्धि शुद्ध करती हैं, और मां जानकी ही हैं भक्ति अर्थात् बुद्धि  तभी तो बाबा ने  माता की वंदना में कहा है-
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की।
ताके जुग पद कमल मनावउँ । जासु कृपा निरमल मति पावउँ ।।
बुद्धि निर्मल होती है भगवान् की भक्ति से भगवान् के भजन से और भगवान् का भजन क्या है केवल माला जप लेना कुछ पाठ कर लेना यह भजन नहीं है यह तो भजन में प्रवेश करने के साधन हैं। भजन कहते हैं सेवा को, सेवा कहते हैं भगवान् में डूब जाने को भगवान् को प्रसन्न रखने की क्रिया का नाम ही सेवा है। उन्हीं को उठाना, उन्हीं को बिठाना, उन्हीं के गीत गाना, उन्हीं को रिझाना, यह भगवान की सेवा है, भजन सेवा है। सेवा से बुद्धि शुद्ध होती है, बुद्धि निर्मल होती है और निर्मल बुद्धि ही भगवान् को भाती है। मोहि कपट छल छिद्र न भावा ।।  कुमति और सुमति सबके अंदर रहती है। तभी तो बाबा गोस्वामीजी ने लिखा है-
सुमति कुमति सब के उर रहहीं। नाथ पुरान निगम अस कहहीं ॥
जहाँ सुमति तहँ सम्पति नाना। जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना ।।
यह तो हर जीवों के अन्दर है। इसलिए यह सत्य ही है कि जितने दुर्गुण किसी दुष्ट में होते हैं, उतने ही दुर्गुण किसी शिष्ट भी होते हैं। और जितने सद्गुण किसी शिष्ट में होते हैं, उतने ही सद्गुण किसी दुष्ट में भी होते हैं। भगवान् के यहाँ से बंटवारे में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं है। जितना साधु को देता है उतना ही असाधु को भी देता है। अन्तर इतना है साधु सुमति का सदुपयोग करता है। असाधु कुमति का उपयोग करता है। बस अंतर इतना ही है कि साधु ने सुमति का कमरा खोला हुआ है और असाधु ने कुमति का कमरा खोल रखा है। साधु सुमति के कमरे को खोल कर चाभी यमुनाजी में फेंक देता है और असाधु सुमति के कमरे का ताला बंद कर चाबी लगा कर फेंक देता है और कुमति का कमरा सदैव खुला रखता है। इस विषय में हम विभीषण का दर्शन करें। विभीषणजी सामान्य जीव नहीं हैं, धर्मात्मा, धर्मरुचि कहा गया है इनको, नाम धर्म रुचि सुक्र समाना। विभीषण के महल में भगवान् का एक अलग से मन्दिर बना हुआ था जिसमें श्रीराम के धनुषबाण के चिन्ह अंकित थे और उसमें तुलसी का पौधा लगा हुआ था। विभीषणजी तुलसी महारानी की पूजा करते हैं। सन्ध्या समय आरती करते हैं लेकिन तो भी कितने शोक में डूबे हैं, कितनी निराशा में डूबे हैं, कुमति ने कितना इनको घेर लिया है। जब हनुमानजी ने पूछा तुम रहते कैसे हो तो देखो कि कितना कुमति में डूबे हुवे है वे कहते हैं -
सुनहु पवनसुत रहनि हमारी। जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी ॥ विभीषणजी इतने बड़े भक्त होने के बाद भी निराशा और हताशा में डूबे हुए हैं। उनको ऐसा लगता ही नहीं है कि कभी प्रभु की कृपा उनके ऊपर भी होगी। हनुमानजी ने कहा अरे भाई भगवान् जी इतने सरल हैं कि-
कहहु कवन मैं परम कुलीना । कपि चंचल सबही बिधि हीना ॥
प्रात लेइ जो नाम हमारा। तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा।।
हनुमानजी ने कहा देखो हम तो वानर हैं। कपि चंचल सबही विधि हीना ।अरे, हमारा जन्म कौन कुलीन परिवार में हुआ। पशु योनि में हमारा जन्म है,तो भी कीन्ही कृपा, हमारे ऊपर भी प्रभु की कृपा होती है तो आपके ऊपर क्यों नहीं हो सकती है। भगवान् के स्वभाव का स्मरण कर श्री हनुमान जी बोले-
अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुवीर ।
कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे विचोलन नीर ॥
हनुमानजी के आँसू आ गए। प्रभु इतने दयालु हैं और पूरा भगवान् के स्वभाव का भरोसा प्रकट कर दिया सुनते ही विभीषण भी भरोसे की बात करने लगे हैं। बोले- अब मुझे भी भरोसा हो रहा है।
अब मोहि भा भरोस हनुमंता। बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता ॥
विशाद में डूबे हुए विभीषण को भरोसा दिला दिया-
कुमति निवार सुमति के संगी ने॥ श्री हनुमानजी ने।
भ्रम के वशीभूत मोह के जाल में जो विभीषण फंसे थे, हनुमान् जी की बातें सुनकर भगवान् की ओर जाने लगे। भले ही लात खानी पड़ी। लात तो इसलिए खानी पड़ी कि चूंकि विभीषण ने हनुमानजी की बात को एकदम नहीं माना। और जो संत की बात नहीं मानेगा उसको तो संसार की लात खानी ही पड़ेगी। लेकिन रावण की लात भी विभीषण को भगवान् के चरणों तक ले आयी क्योंकि हनुमानजी की बात याद रही। ऐसे ही सुग्रीव थे। बाली का वध करके भगवान् ने सुग्रीव का राजतिलक करवा दिया और भगवान् ने कहा कि सुग्रीव जाओ - अंगद सहित करेउ पुर राजू। संतत हृदय धरेउ मम काजू । राज्य का पालन करना, संचालन करना लेकिन हृदय में मेरे काम का सुमिरन रखना, मेरे कार्य को भूल नहीं जाना लेकिन जीव का ऐसा स्वभाव होता है जब तक जीव पर संकट रहता है तब तक भगवान् का सुमिरन करता है। संकट टलते ही सबसे पहले अगर किसी को बिसारता है तो भगवान् को बिसारता है।संकट आया तो मन्दिरों में भीड़ आएगी लेकिन आनन्द के दिनों में सब टीबी पर बैठते हैं। सुग्रीव का भी यही हाल है, चार मास वर्षाकाल बीत गया। भगवान् ने आकाश की ओर देखकर कहा लखन देखो तो सही-
वरषा गत निर्मल रितु आई। सुधि न तात सीता कै पाई ॥
सुग्रीवहुँ सुधि मोरि बिसारी। पावा राज कोसपुर नारी ॥
जेहिं सायक मारा मैं बाली । तेहिं सर हतौं मूढ़ कहँ काली ॥भगवान् बहुत भाव में बोले वर्षा ऋतु चली गयी, शरद ऋतु का आगमन हो गया। लखन अभी सीता की कोई सुधि नहीं। देखो तो भैया! सुग्रीव को राज मिल गया, पत्नी मिल गयी, सब कुछ मिल गया राज्य, खजाना, नगर और नारी इसलिए हमारे कार्य को ही भूल गया। भगवान् थोड़े रोष में भी आए। भगवान् ने कहा कि अगर कल तक यह नहीं सुधरा तो इसको कल मार डालेंगे। लक्ष्मणजी ने कहा महाराज कल कभी नहीं आता। राजतिलक भी पिताजी ने कल के लिए घोषित किया था मगर कर नहीं पाए। कल किसी का आता ही नहीं। जो करना है अभी करो। ऐसा करो प्रभु बड़े भाई का काम आपने किया था। बहुत दिनों से खाली बैठा हूँ छोटे की जिम्मेदारी मुझे दे दीजिए। भगवान् ने कहा, नहीं लखन! हमने मित्र बनाया है, मित्र को मारा नहीं जाता। मित्र को सुधारा जाता है। भय देखाई ले आवहु तात सखा सुग्रीव, जाओ काल का भय दिखाकर उसको मेरी ओर ले आओ। हनुमानजी ने भगवान् के रोष की ओर लक्ष्मण के संकल्प की बात सुनी। हनुमानजी को लगा कि लखन लाल साक्षात् काल है। कहीं उन्नीस-बीस न हो जाए? दूसरे रास्ते से गये देखा सुग्रीव रानियों के बीच ताश खेल रहा था, रानियों के बीच में हनुमानजी ने कहा अरे सुग्रीव! यह क्या हो रहा है?
इहाँ पवन सुत हृदयँ बिचारा । रामकाज सुग्रीवँ बिसारा ।।
निकट जाइ चरनन्हि सिरु नावा । चारिहुँ बिधि तेहिं कहि समुझावा ॥ सुनि सुग्रीव परम भय माना। विषय मोर हरि लीन्हेउ ग्याना ।।
संत का काम है सोते हुए जीव को जगा देना। चारों विचार साम, दाम, दण्ड, भेद दिखाकर । क्योंकि भगवान् ने कहा था कि "भय देखाई ले आवहुँ" क्योंकि हनुमानजी ने कहा सुग्रीव जिस बाण से भगवान् ने बाली को मारा था वह बाण बाद में कहाँ चला गया? बोले वह तो लौटकर तरकश में चला गया था प्रभु के। तो हनुमानजी ने कहा कि तुमको मालूम नहीं है कि तरकश में लौट कर क्यों गया था? बोले मुझे तो नहीं मालूम शायद उसका कोई नियम होगा? बोले नहीं, तरकश में बाण प्रभु ने तुम्हारे सामने इसलिये लौटाया था कि जिस बाण से मैं बाली को मार सकता हूँ गलती करने पर वह तुमको भी मार सकता है। भविष्य की रक्षा के लिए भगवान् ने उसको सुरक्षित रखा था और जैसे ही सुग्रीव भयभीत हुआ कहा महाराज मेरे विषयों ने मेरे ज्ञान का हरण कर लिया और श्रीहनुमानजी ज्ञानिनामग्रगण्यम्, कुमति निवार सुमति के संगी ।।भोग में लिप्त सुग्रीव को हनुमानजी पकड़कर भगवान् के चरणों में ले गए। यह हनुमानजी का काम है। जानकीजी चिता बना कर बैठी हैं, जलने की तैयारी है। श्रीहनुमानजी भगवान् की कृपा का भरोसा दिलाते हैं। माँ रोओ मत, जलो मत, भगवान् की कृपा आने ही वाली है। तो संसारी बुद्धि को ईश्वर में लगा देना इसी का नाम सुमति है। मान व अपमान से ऊपर उठकर भगवान् के कार्य में बुद्धि को लगा देना यही सुमति है और इसलिए हमने वेदों से, शास्त्रों से, सन्तों से, आचार्यों से, ऋषियों से बुद्धि की ही माँग की है कि हमको सद बुद्धि प्रदान करें। बुद्धिनाशात् प्रणस्यतिः- बुद्धि अगर बिगड़ती है तो व्यक्ति का नाश होता है। विभीषण बोल चुके हैं रावण की सभा में, 'जहाँ सुमति तह सम्पति नाना और  सुमति कुमति सबके उर रहहीं।' हमारे गुरुदेव यशश्वी  कथावाचक स्वामी राजेश्वरानन्द महाराज, ने इसकी बहुत ही  अच्छी व्याख्या किया है।  उन्होंने कहा है कि सुमति और कुमति यह दोनों बहनें हैं लेकिन लोग सुमति को पसन्द करते हैं कुमति को कोई पसन्द नहीं करता। हालांकि जगह कुमति को ही देते हैं लेकिन पसन्द सब सुमति को ही करते हैं। एक बार सुमति व कुमति दोनों ब्रह्मा के पास गईं और।कुमति ने ब्रह्मा से शिकायत की। भगवान् आपने ही हम दोनों का निर्माण किया है किन्तु इसको तो सभी पसन्द करते हैं किन्तु मुझे तो कोई पसन्द नहीं करता, क्यों? क्या मैं बुरी लगती हूँ? ब्रह्माजी ने कहा नहीं नहीं कौन कहता है कि तुम बुरी लगती हो?" तो हमको कोई क्यों नही चाहता है? मैं जहाँ जाती हूँ वहीं फटकार मिलती है। क्या दोष है हमारे में? ब्रह्माजी ने कहा मुझे तो कोई दोष नहीं दिखाई पड़ रहा है। अरे अगर कोई दोष नहीं तो मुझे फटकार क्यों मिलती है? ब्रह्मा जी ने कहा अच्छा ऐसा करो चलकर दिखाओ तब पता चलेगा, कुमति चलकर गयी और आयी ब्रह्माजी ने कहा बहुत अच्छी लगती हो बैठो। अब ब्रह्माजी ने सुमति से कहा तुम चलकर दिखाओ सुमति  चलकर आई तो ब्रह्माजी ने कहा तुम भी बहुत सुन्दर लगती हो । तब कुमति क्रोध में बोली- कुमति भी अच्छी लगती है, सुमति भी अच्छी लगती है यह कोई न्याय हुआ? निर्णय दीजिए अच्छी कौन लगती है? ब्रह्मा जी ने कहा कि तुम दोनो ही अच्छी लगती हो किन्तु सुमति तुम आती हुई अच्छी लगती हो और कुमति तुम जाती हुई अच्छी लगती हो। तुम अगर चली जाओ तो बहुत अच्छी लगती हो। उत्तानपाद नाम के एक बड़े श्रेष्ठ राजा हुए हमारे देश में जिनके घर में ध्रुवजी का अवतार हुआ। उनकी दो रानियां थी। उत्तानपाद का मतलब दोनों पैर ऊपर की ओर बुद्धि गड्ढे की ओर पैर ऊपर की ओर। भोग में डूबी हुई बुद्धि उत्तानपाद ही है हमारी बड़ी बुद्धि खोपड़ी के नीचे की ओर है और हर उत्तानपाद की दो पत्नियाँ हुआ करती हैं सुनीति और सुरुचि। सुरुचि माने भोग, वासना, वैभव, पदार्थ। सुरुचि को राजा बहुत प्रेम करते हैं। राजभवन में राज करती  । सुरुचि को कौन पसन्द नहीं करेगा। अपनी कोठी, बंगले, भोग, वासना, ऐश्वर्य, वैभव किसे प्रिय नहीं होगी। सुनीति माने नीति, नीति माने धर्म, नीति यानि सत्य, सुनीति यानि समर्पण, त्याग, वैराग्य। आपने सुना है कि सुनीति को जंगल में निवास करना पड़ा । फूस की झोपड़ी में सवा सेर जौ में गुजारा करना पड़ता । भैया ! नीति, धर्म और सत्य को तो झोपड़ी में ही निवास करना पड़ेगा और सवा सेर जौ में ही गुजारा करना पड़ेगा। सुरुचि के गर्भ से उत्तम पैदा हुए। एक बेटे का जन्म हुआ नाम रखा गया उत्तम और सुनीति के गर्भ से ध्रुवजी का आगमन हुआ और यह भी सत्य है कि सुरुचि भोग है, वासना है। वासना के भोग के गर्भ से उत्तम का ही जन्म होगा। उत्तम का सन्धि-विच्छेद कीजिए। उत् यानि गहन, तम माने अन्धकार अर्थात् उत्तम यानि गहन अंधकार , भोग और वासना से तो गहन अंधकार ही आयेगा। नीति के गर्भ से, सत्य के गर्भ से, मर्यादा के गर्भ से तो ध्रुव का अवतार होगा और ये दोनों इन्सान  के जीवन में निवास करती हैं। सुमति भी जीवन में है और कुमति भी जीवन में हैं। दोनों ही जीवन में हैं हम किसका स्वागत करें? हमारी सुमति बनी रहे इसके लिए हनुमानजी का सुमिरन करें और कुमति से सदा सदा  के लिए दूर रहें। हनुमानजी से किसी ने  कहा आप बताइए सुमति किसे कहते हैं। हनुमानजी ने कहा मेरी परिभाषा तो और दूसरी है। क्या है, हनुमानजी ने कहा ऐसी मति, मति माने बुद्धि जो हमेशा सुमिरन में लगी रहे उसको सुमति कहते हैं और जिसकी बुद्धि हमेशा सुमिरन में लगी रहे मैं उसके साथ हमेशा रहता हूँ। इसलिए हनुमानजी बड़े सरल हैं। आप।जब भी हनुमानजी को बुलाइए वह तुरन्त आएंगे। क्योंकि वह सुमति के संगी हैं। कुमति निवार सुमति के संगी। कभी भी कीर्तन हो घर में हनुमानजी को बुलाइए। निश्चित ही वह आकर बैठ जाएंगे। हम सब  लोग गाते भी तो  हैं-
कीर्तन की है रात, बाबा आज थानें आणों है।
थानें कौल निभाणों है। कीर्तन की है रात बाबा आज थानें आणों है।
दरबार यो धारो, ऐसो सजो प्यारो, थे कृपा आज करो ||
भगतां ने दरस दिखा, हृदय में प्रेम जगा, चरणों को दास करो ॥ सेवा में थारी, बाबा आज बिछ जाणों है।
थानें कौल निभाणों है। कीर्तन की है रात बाबा आज थानें आणों है।
कीर्तन की है मन में, अब मेहर करो बाबा थे, क्यूँ अब देर करो। वादो थारो बाबा, कीर्तन में आणे को, कृपा अब ढेर करो ।।जो जी स्वीकार करो।
भजना सू थानै, बाबा आज रिझाणौ है।
थानें कौल निभाणों है। कीर्तन की है रात बाबा आज थानें आणों है।
बण्यो म्हास्यूँ, अर्पण प्रभु थाणें, प्रभु नादान स्यूं गलती होती ही आई है-प्रभु मत ध्यान धरो ॥
भगतां स्यूं नातो, बाबा बोहत पुराणों है।
कुछ  थाने कौल निभाणों है,
कीर्तन की है रात, बाबा आज थानैं आणों है ।
सुमति अर्थात्  जिनकी मति सदा सुमिरन में लगी रहे।
सदा राम नाम ही जपे और करे राम को ध्यान,
तिनकी रक्षा करत नित गदा धरे हनुमान् । वास्तव में
श्रीहनुमानजी सुमति के रक्षक हैं उसका सदैव साथ देते है। कुमति निवार सुमति के संगी हैं । कुमति ,कहते किसे हैं, कुमति की पहचान क्या है? गोस्वामी जी ने मानस में कुमति की पहचान बताई है-
तब उर कुमति बसी बिपरीता । हित अनहित मानहु रिपु प्रीता ॥
यह कुमति का संकेत है जब शत्रु हमको मित्र और मित्र हमको शत्रु लगने लगता है। तब समझना चाहिए
कि भीतर कुमति आ चुकी है। हित करने वाले हमको विरोधी लगने लगते हैं और विरोध करने वाले हमको
हितैशी दिखाई देते हैं, तब हमें समझना चाहिए कि कुमति आ चुकी है। जब भगवान् के स्वरुप में बुद्धि संदेह करने लगती है और सद्गुरु के उपदेश में भी हमें कुतर्क दिखने लगता है तब समझना चाहिए कुमति आने लग गई है। यह कुमति केवल किसी सामान्य के भीतर ही नहीं आयी है। सती माता के भी भीतर आ चुकी है। आपने प्रसंग सुना होगा कि कुम्भज ऋषि के आश्रम से भगवान् शिव और माता सती दोनों कथा सुन कर लौट रहे थे। दण्डकारण्य में शिव प्रभु राम का रोते हुए का दर्शन करते हैं। भगवान् को शंकरजी ने दूर से प्रणाम कर दिया और कहा जय “सच्चिदानन्द जगपावन" सती को संदेह हो गया है। भगवान् के स्वरूप में संदेह यह कुमति है। पूछा आपने किसको प्रणाम किया, शंकर जी ने सती से कहा कि आपने प्रणाम नहीं किया क्या? बोली नहीं, मैंने तो नहीं किया। शिव बोले- प्रणाम करो न। सती ने कहा मैं ऐसे-वैसे को प्रणाम नहीं करती हूँ  कि चाहे जिसको प्रणाम कर लूँ। शंकरजी ने कहा देवी जो चाहे जो यह नहीं है। साक्षात् ब्रह्म हैं, अनन्त कोटि ब्रहमाण्ड के नायक हैं। चराचर जगत के स्वामी हैं।  परब्रह्म भगवान् श्रीराम ही हैं। इस समय मानवरूप में लीला कर रहे हैं। प्रणाम करो इन्हें सती ने कहा आपकी तो मति मारी गयी है। देखो यह तो कुमति है जो सुमति को कह रही है। तेरी तो मति मारी गयी है। क्यों मति कैसे मारी गयी? सती ने कहा ब्रह्म तो व्यापक होता है और व्यापक को तो कभी वियोग नहीं होता है। अगर ये ब्रह्म है तो इनको मालूम नहीं है कि इनकी धर्मपत्नी को कौन चुरा कर ले गया? एक कामी पुरुष की तरह रुदन कर रहे हैं। शंकरजी ने कहा यह लीला का एक पार्ट है। इस समय प्रभु लीला में हैं इसलिए लीलाधारी को प्रणाम करो, बोली, नहीं मैं नहीं करूँगी। बोली, मैं पढ़े लिखे बाप की बेटी हूँ, चाहे जिस किसी को प्रणाम नहीं करती। बन्धुओं इसी को कुमति कहते हैं। जो न भगवान् को प्रणाम करे और जो न बड़ों को प्रणाम करे  और न बड़ों की बात माने उसी को कुमति कहते हैं।
गुरुदेव के वचनों में भी जो सन्देह करे तो समझना चाहिए कुमति आ गयी। शंकर जी केवल पति ही नही है अपितु शंकर जी ईश्वर भी हैं और सद्गुरु भी हैं। सद्गुरु समझा रहे हैं लेकिन सतीजी मानने को तैयार नहीं हैं। इसलिए गोस्वामी जी को कहना पड़ा कि
गुरु के बचन प्रतीति न जेही । सपनेहुँ सुगम न सुख सिद्धि तेही ॥
जिसको गुरुदेव के वचनों के प्रति प्रतीति नहीं, भरोसा नहीं उसे जाग्रत की तो बात ही छोड़ दीजिए, स्वप्न में भी  सुख और सिद्धि की प्राप्ति नहीं हो सकती और इसके विपरीत
जेहि गुरु चरन रेणुसिर धरहीं। ते जनु सकल बिभव बस करहीं ।
यह गुरु कृपा की महिमा है जिनको गुरुदेव के चरणों में भरोसा है वे सारे वैभव के मालिक बनते हैं। सारे वैभव उसके वशीभूत होकर आ जाते हैं। गुरुदेव के चरणों की रज को अपने सिर पर धारण करना यह इसका अर्थ है किन्तु मुझे तो यह अर्थ सही नहीं लगता क्योंकि रावण ने तो सिर्फ चरणों की रज को ही नहीं बल्कि सारे गुरुजी को आश्रम सहित अपने सिर पर उठा लिया था परन्तु रावण का अंत क्या हुआ, सर्वनाश।
इसमें अहंकार जैसा हो सकता है कि थोड़े झुके और चरण रज उठाई और शीश पर रखी। देखने में ठीक लगता है, गुरुभक्ति भी दिखाई देती है लेकिन मैं इसका दूसरा भाव लेता हूँ। गुरुदेव के चरणों की रज को अपने शीश पर धारण करे इस चौपाई का सिर्फ इतना ही अर्थ नहीं है।
जो गुरुदेव के चरणों की रज में अपने शीश को धरते हैं, वैभव उनके वशीभूत होता है। यानि जिनका शीश सदैव गुरुदेव के सम्मुख झुका रहता है, पूर्ण समर्पण में ही सुमति है और जो गुरुदेव के, भगवान के वचनों पर स्वरुप पर संदेह करते हैं उसको कुमति कहा जाता है लेकिन हमारा स्वभाव है हम संसार पर तो भरोसा करते हैं पर भगवान पर नहीं। आपको कितने लोग मिलेंगे जो कहेंगे कि भगवान कहाँ हैं? किसने देखा है? कौन कहता है? यह सब कपोल कल्पित बातें हैं, ऊपर-ऊपर की बातें हैं किसी के पास कोई प्रमाण नहीं। ईश्वर का प्रमाण नहीं माँगा जाता है बल्कि ईश्वर को प्रणाम किया जाता है। शिवजी कह रहे हैं कि देवी, ईश्वर है कि नहीं इस बात का प्रमाण मत मांगो। मैं कह रहा हूँ। कुमति इतनी विचित्र है कि विष पर भरोसा कर रही है और विश्वास पर सन्देह कर रही है। भगवान् शिव विश्वास हैं, कुतर्क विष है। विष पर भरोसा है। कुमति की अपनी आँख  तो है नहीं , और आँखवाले की माने नहीं अपनी तो दो कौड़ी की समझ नहीं और जिसको समझ है उसकी सुने नहीं। सती कहाँ सुन रही है शंकर जी उदाहरण दे रहे हैं कि देवी-जासु कथा कुम्भज रिषि गाई । भगति जासु मैं मुनिहिं सुनाई ॥
सोई मम इष्टदेव रघुबीरा। सेवत जाहि सदा मुनि धीरा ।।
भगवान् शिव कितना समझाकर बोल रहे हैं। अरे इन्हीं भगवान श्रीराम की कथा हम कुम्भज ऋषि से सुनकर
लौट रहे हैं। उनकी भक्ति का वरदान मैं कुम्भज ऋषि को दे कर आ रहा हूँ और प्रमाण दे दिया भगवान् ने -
मुनि धीर जोगी सिद्ध संतत बिमल मन जेहि ध्यावहीं।
कहि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहीं ॥।
सोई रामु व्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी ।
अवतरेउ अपने भगत हित निजतन्त्र नित 'रघुकुल
मनी ॥ अरे देवी ऋषि-मुनि, योगी, ध्यानी और सिद्ध-सन्त निरन्तर निर्मल मन से जिनका ध्यान करते हैं तथा वेद पुराण 'नेति नेति' कहकर जिनकी कीर्ति गाते है, उन्हीं सर्वव्यापक, समस्त ब्रहमाण्डों के स्वामी,मायापति,
नित्य ब्रहमरुप भगवान् श्रीराम ने अपने भक्तों के हित के लिए रघुकुलमणि के रुप में अवतार लिया | मैं निवेदन कर रहा हूँ कि इनको प्रणाम करो। सती ने कहा आप हमेशा भांग के नशे में रहते हैं। मैं पढ़े-लिखे बाप की बेटी हूँ। मैं बिना ठोक बजाए प्रणाम नहीं कर सकती। क्या करना चाहती हो? बोले पहले यह ब्रह्म हैं या नहीं मैं इनकी परीक्षा करना चाहती हूँ। शंकरजी ने कहा देवी भगवान् परीक्षा से नहीं बल्कि जिज्ञासा से मिलते हैं। वेद कहता है-
अथातो ब्रह्म जिज्ञासा । अथातो भक्ति जिज्ञासा ॥
ब्रह्म जिज्ञासा का विषय है, चर्चा का विषय नहीं है, शोध का विषय नहीं है। किसी सद्गुरु के चरणों में विनम्र भाव से जिज्ञासा प्रकट करें तब कुछ प्राप्त होगा। यह परीक्षा का विषय नहीं है। बुद्धि परीक्षा लेती हैं और भक्ति परीक्षा देती है। और जो भगवान तथा अपने गुरु की परीक्षा ले वही कुमति है। कई लोग गुरु की भी परीक्षा लेते हैं कि इनको कुछ आता है या नहीं, कुछ सिद्धि है कि नहीं। आज पति की बात भी पत्नी नहीं मान रही है और ईश्वर की बात भी नहीं मान रही। दुनिया की हर स्त्री अपने पति को बेवकूफ समझती है, ऐसा पूज्य मुरारीबापूजी कहते हैं। हो सकता है कि विनोद व्यंग में कहते हों उनका अपना अनुभव है  लेकिन देखने में थोड़ा-थोड़ा आता तो है। सबकी बात मानेगी किन्तु पति को वो मूर्ख ही कहेगी तो जो बुद्धि अभिमान से भरी है वो कुमति है और जो बुद्धि भगवान् से भरी है वो सुमति है। अभिमान से भरी हुई बुद्धि अपवित्र हो जाती है और भगवान् से यदि बुद्धि भर जाए तो वो पवित्र हो जाती है। जो हमको अंधेरे की ओर ले जाए वो कुमति है। मंथरा तो इससे और आगे है वह मंदमती है तथा कैकेयी कुमति है। और परिणाम क्या देती है अगर कुमति आ जाये, सुमति यदि कुमति बन जाए? कैकेयी जब तक सुमति थी तब तक कनक भवन में वास करती थी और जब कैकेयी कुमति हो गयी तो यही कुमति कैकेयी को कनक भवन से निकालकर कोपभवन में छोड़ आयी। सुमति प्रकाश की ओर चलती है- “तमसो मा ज्योतिर्गमय” ।कुमति अन्धेरे की ओर, कोप भवन माने जहाँ अंधेरे में ठोकर खानी हो अंधकार। सुमति थी तो श्रृंगारयुक्त थी। कुमति आ गयी तो श्रृंगारमुक्त हो गयी। विधवा हो गयी, सदा-सदा के लिए शरीर के अंगों से श्रृंगार उतर गया। सुमति थी तो जय-जयकार, कुमति आ गयी तो हाहाकार मच गया। बेटा भी माँ कहने को तैयार नहीं। सुमति वह है जो हमको उत्सव से आनन्द से भर दे। कुमति और सुमति दोनों बाहर से एक लगते हैं। 'मन मैला, 'तन उजला, बगुला जैसा वेश। इससे तो कागा भले भीतर बाहर एक। मूर्ख हमेशा भगवान् की परीक्षा लेते हैं। दो मूर्ख एक बार भगवान की रचना में दोष ढूंढने निकले, देखो। इनमें भगवान् में गुण ढूंढने की इच्छा नहीं हुई यह कुमति है। यह भगवान् में भी दोष ढूंढने लगे। दोष तो प्रभु में होता ही नहीं लेकिन उसमें भी दोष खोज लें। गांव के बाहर निकले तो तरबूज की बेल देखी। बड़े-बड़े पांच से दस 
किलो के तरबूज । मूर्ख ने कहा देखो यह भगवान् की मती मारी गयी है। ऐसी पतली-पतली बेल, इस पर दस से पन्द्रह किलो के भारी तरबूज लटका दिए हैं। अरे जैसी कोमल बेल है छोटे-छोटे फल लगने चाहिए थे। भगवान् को अकल ही नहीं मिलेंगे तो समझाऊंगा। थोड़े और आगे बढ़े, एक देसी आम का पेड़ था। अचार वाले छोटे-छोटे हरे-हरे आम। गर्मी थी तो छाया के नीचे लेट गए झपकी लग गयी। उधर एक हवा का झोंका आया और कच्चा आम गिरा और सीधे नाक पर आ गिरा तो नाक की हड्डी बोली चट्ट । एकदम चीखकर बोले क्या हुआ, बोले हो गया फैंसला क्या फैसला, बोले हम ही पागल हैं। भगवान् ने जो कुछ भी किया है ठीक ही किया। अगर इतने बड़े आम के पेड़ पर तरबूज लगा दिया होता तो सीधे मरघट ही जाना पड़ता। तो जो भगवान् में दोष ढूंढ ले उसको कुमति कहते हैं। जिसको सर्वत्र भगवान् दिखाई दे उसे सुमति कहते हैं और जो भीतर रहता है वही बाहर दिखाई देता है। श्री हनुमानजी के हृदय में राम हैं तो सर्वत्र राम ही राम दिखाई देते हैं। चन्द्रमा के प्रसंग में जब प्रभु ने यह पूछा था कि चन्द्रमा में कालिख क्यों है तो सबने अपने-अपने हिसाब से उत्तर दिया। किसी ने कहा कि रति का सारा भाग निचोड़ दिया गया, किसी ने कहा कि अमृत निचोड़ दिया गया है, किसी ने कहा कि गुरु का कलंक लगा है। किसी ने कुछ, किसी ने कुछ, हनुमान जी से पूछा तो हनुमान जी ने कहा प्रभु कोई बड़ी बात नहीं है। चन्द्रमा आपका दास है आपका सुमिरन चौबीस घण्टे करता है तो आपकी मूरत इसके हृदय में बस गयी है इसलिए वही श्यामलता का प्रभाव है उसी के कारण से वह श्यामल रूप धरे है। हनुमान जी की सुमति सर्वत्र भगवान के सुमिरन में लगी है। सुमति माने जो भगवान की सेवा में लगी है, जो परोपकार में लगी है, धर्म में लगी है। सुमति माने जो अति शुभ में लगी है वही सुमति है। हनुमानजी सुमति के साथ में लगे हैं। 
।। जय श्री राम जय हनुमान।।


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