मानसचर्चा।।हनुमानजी भाग ग्यारह।।हनुमानजी और रावण।
मानसचर्चा।।हनुमानजी भाग ग्यारह।।हनुमानजी और रावण।
बिद्यावान गुनी अति चातुर । राम-काज करिबे को आतुर ॥हनुमानजी विद्यावान हैं, गुणी हैं और अति चतुर हैं। विद्यावान गुणी अति चातुर, चातुर एक सामान्यशब्द आप सुनते हैं, बड़े विद्वान हैं, विद्यावान शब्द आपने यदा-कदा सुना होगा क्योंकि हनुमानजी के अतिरिक्त
यह किसी के लिए प्रयोग नहीं हुआ, विद्यावान सुरक्षित शब्द है। विद्वान अलग होता है। विद्यावान अलग होता
है। दोनों में जमीन-आसमान का अन्तर होता है। रावण विद्वान है, वेदों का पण्डित है, शास्त्रों का ज्ञाता है,
ऋषि का पुत्र है, चारों वेदों का नित्य पाठ परायण करता है और कराता है। वेद पढ़ें विधि सम्भु सभीत,पुजावन रावन के घर आवें ॥ ब्रह्मा जी सशरीर रावण के आँगन में बैठकर वेदों का पाठ करते थे। रावण स्वयं वेदज्ञ है। कल्पना कीजिए जिसके दस सिर हैं, दस सिर का मतलब है उसके भीतर दस गुनी प्रतिभा, योग्यता, विद्वता भरी है। दस शास्त्र जिसके कण्ठ में आ गए हों चार वेद और छह शास्त्र- छहो शास्त्र सब ग्रन्थन को रस, तो कितना
प्रतिभाशाली रावण होगा, कल्पना करो। यहाँ तो कई बार एक खोपड़ी वाले भी पूरी दुनिया को घुमा रहे हैं। रावण के तो दस सिर थे। पूरे ब्रह्माण्ड को रावण घुमा देता था।कितना योग्य रहा होगा, पर जीवन में आचरण में नहीं। चर्चा में तो ज्ञान है पर दिनचर्या में ज्ञान नहीं। जीभ पर तो ज्ञान बहुत है लेकिन जीवन में शून्य है। उच्चारण तो शास्त्रयुक्त करता है शुद्ध करता है लेकिन आचरण सदैव शास्त्र के विरुद्ध करता है। रावण भाषण बहुत अच्छा देता है यह आवश्यक नहीं जिनके भाषण बहुत अच्छे हो उनका आचरण भी बहुत अच्छा हो। अनुभव ऐसा कहता है कि मंच पर जिनके भाषण बहुत अच्छे होते हैं मन उनके उतने ही खराब होते हैं। हो सकता है कि मेरी बात गलत हो, लेकिन अनुभव मुझे जो आया है वह ही मैंने बोला आपका अनुभव इसके विपरीत होगा। आप अपने अनुभव का निर्णय करें। कई लोग मंच पर बहुत अच्छे लच्छेदार शब्द बोलते हैं लेकिन इतना ही जीवन उनका अंधेरे में उलझा होता है। आपने नाटक में सुना होगा कि एक बार हरिश्चन्द्र नाम का एक नाटक खेला गया। हरिश्चन्द्र का अभिनय एक सज्जन ने बहुत अच्छा निभाया, दर्शकों ने बहुत तालियां बजाईं एक दर्शक थे उन्होंने हरिश्चन्द्र नामक अभिनय जिसने निभाया था उनका घर पूछ लिया कि वह कहाँ निवास करते हैं। तो हरिश्चन्द्र से मिलने के लिए यह व्यक्ति उनके घर गया, यह सज्जन बैठे बाहर अखबार पढ़ रहे थे। इसने जाकर प्रणाम किया उन्होंने पूछा कि आप कौन हैं, कहाँ से आए हैं, उन्होंने कहा कि मैं दर्शक हूँ, रात मैंने हरिश्चन्द्र जी का नाटक देखा था। मेरा मन किया कि मैं प्रकट जाकर उनका दर्शन कर आऊं। थोड़ी देर उनके चरणों में बैठूं तो मैं हरिश्चन्द्र जी से मिलने आया हूँ। हरिश्चन्द्र, जो अखबार पढ़ रहे थे मुस्कुराकर बोले कि हरिश्चन्द्र जी तो रात को ही अपने घर चले गए इस समय तो लल्लू राम बैठे हुए हैं। इनकी कोई सेवा हो तो बताओ। तो कई बार जैसा व्यक्ति मंच पर दिखाई देता है मंच के बाहर बिल्कुल विपरीत। रावण उसी श्रेणी में है, उसी कक्षा का विद्यार्थी है जिसको नाटक तो बहुत अच्छा आता है, वेश तो बहुत ज्ञानियों का बनाया है लेकिन जिसका स्वभाव बहुत विकृत है। रावण बहुत अच्छा भाषण देता है। रावण ने हनुमानजी से पूछा क्यों रे बन्दर, मैंने सुना है कि तू बहुत ज्ञानी है। हमने जो भाषण दिया है बता तुमको कैसा लगा । हनुमानजी ने कहा- रावण, पहले एक बात सुन लो मुझे भाषण कैसा लगा इसे तो थोड़ी देर बाद में बताऊँगा, पहले मेरे एक प्रश्न का उत्तर दो। रावण ने पूछा क्या प्रश्न है तुम्हारा? तो हनुमानजी ने कहा रावण, एक बात बताओ, कोई स्त्री नख से, सिर से स्वर्ण आभूषणों से लदी हो, सजी हो लेकिन अगर उसने वस्त्र धारण न किए हों तो कैसी लगेगी? रावण ने कहा क्या मतलब है तुम्हारा? तब हनुमानजी ने कहा रावण
जो तुमने भाषण दिया है तुम्हारी वाणी उसी प्रकार की नग्न स्त्री के समान है-
राम नाम बिनु गिरा न सोहा। देखु विचार त्यागि मद मोहा।।
बसन हीन नहिं सोह सुरारी। सब भूषन भूषित बर नारी ॥
राम बिमुख संपत्ति प्रभुताई। जाइ रही पाई बिनु पाई ॥
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं। बरषि गएँ पुनि तबहिं सुखाहीं ॥ हनुमान जी ने कहा, रावण, भाषण तो तूने बहुत विद्वतापूर्ण दिया है, वाणी तो तेरी बहुत अच्छी है, लेकिन इसमें राम-नाम कहीं भी नहीं दिखाई दिया। जिसमें राम नहीं हो वह वाणी नहीं है विकार है, वह भाषण नहीं वह तो बकवास है। ऐसी बकवास तू कितनी भी कर, कोई सुनने को तैयार नहीं होगा। तो रावण ने पूछा हम करें क्या, कोई उपाय है तुम्हारे पास? बोले हाँ, एक काम करो, बोले-
राम चरण पंकज उर धरहू।लंका अचल राज तुम्ह करहू।
हनुमानजी ने कहा कि विद्वता तो तेरी ठीक है किन्तु तेरा हृदय खोखला है। इसमें भगवानराम के चरणों को स्थापित कर। रामनाम से तो रावण को बड़ी चिढ़ थी। एकदम क्रोध में आ गया बोला, अरे बड़ा ज्ञानी बनता है, एक बात बता। मैंने सुना है लोग तुझे ज्ञानीनामग्रगण्यम कहते हैं। हनुमानजी ने कहा लोग क्या कहते हैं यह तो मुझे मालूम नहीं, तू बोल, तू क्या कहना चाहता है? रावण ने कहा तू ज्ञान का मुझे उपदेश कर रहा है और तू बड़ा ज्ञानी है इतना बड़ा ज्ञानी होने के बाद तू मेरे सामने बंधन में खड़ा है। आखिर तेरा ज्ञान तुझे बंधन से मुक्त क्यों नहीं कर पा रहा है, यह बता तू बंधन में बँध कैसे गया जो तू मुझे भाषण दे रहा है। हनुमान् ने कहा रावण यह तूने बंधन में नहीं बाँधा। मेरी एक छोटी-सी भूल ने मुझे बंधन में बंधवा दिया। रात मैंने तेरी लंका के घरों में प्रवेश करके देखा था तो इन आँखों ने लंका में होते हुए पाप को देख लिया और चूंकि मैंने गलती से ही पाप देख लिया तो उसके कारण आज पाप के बंधन में बंधना पड़ गया। तू तो इतना बड़ा ज्ञानी है और पाप में डूबा हुआ है अपनी दशा देख कि तेरी क्या दशा हो गयी है मैं तो बंधन से अभी ही मुक्त हो जाऊँगा पर तू अपने बारे में विचार कर हनुमानजी ने रावण को माध्यम बनाया होगा लेकिन यह बात हमारे सबके लिए बोली जा रही है। हनुमानजी कहते हैं कि मैं पाप देखने नहीं गया था मैं तो जानकीजी
का दर्शन करने गया था-मंदिर-मंदिर प्रति करि सोधा देखे जहँ तहँ अगनित जोधा। गयउ दसानन मंदिर माँहीं। अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं ॥ सयन किये देखा कपि तेही। मंदिर महुँ न दीखि बैदेही ।। मैं तो जानकी माता की खोज में आया था लेकिन भूलवश मैंने पाप को देख लिया और यदि भूलवश भी पाप को देख लिया तब मेरे जैसे भी ज्ञानी को भी बंधना पड़ता है। जो पाप को भूलवश देखते नहीं बल्कि पाप में डूब जाते हैं वह कितने बड़े बंधन में बंधेंगे, उनके बारे में विचार करो तो हनुमानजी ने रावण से कहा।रावण तू अपना विचार कर, मेरी चिंता मत कर। हमने ऐसा सुना था जब अंगदजी रावण की सभा में गए थे।तो रावण को अंगदजी घूर घूर कर देख रहे थे तो रावण ने पूछा कि अरे बन्दर, ऐसे क्यों मुझको घूर कर देख।रहा है। अंगदजी ने कहा मैं सर्कस के अजूबें को देख रहा हूँ। रावण ने कहा क्या मतलब है? अंगदजी ने कहा।हनुमानजी ने मुझसे चलते समय कहा था कि लंका में बीस आँख और कानवाला अँधा और बहरा जन्तु रहता।है तो उसे जरूर देखकर आना तो मैं उसे ही देख रहा हूँ लक्षण मिला रहा हूँ कि वही है या कोई और है। बीसहुँ लोचन अंध। धिग तव जन्म कुजाति जड़ । बीस आँखें, कल्पना करो कितनी बड़ी होंगी रावण की दृष्टि, कितनी विशाल रही होगी लेकिन इसकी दृष्टि नहीं इसको कुदृष्टि थी। यह माँ के साथ भी दुर्व्यवहार करता है। माँ के साथ में भोग भोगने की आकाँक्षा रखता है। जिसकी खोपड़ी में शास्त्र भरे हों वह आचरण कैसा कर रहा है। कुदृष्टि का अर्थ है जो शुभ में भी अशुभ ढूँढ ले और बहरा तो पूरा का पूरा है। रावण किसी की सुनता है क्या? किस ने नहीं समझाया रावण को? भरी सभा में इसको भाषण दिया जा रहा है-तात राम नहिं नर भूपाला। भुवनेस्वर कालहु कर काला ॥ ब्रह्म अनामय अज भगवंता । व्यापक अजित अनादि अनंता ॥ गो द्विज धेनु देव हितकारी। कृपा सिन्धु मानुष तनुधारी ॥
जन रंजन भंजन खलु व्राता। बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता ।। ताहि बरु तजि नाइअ माथा । प्रनतारति भंजन रघुनाथा ॥.विभीषण ने कितने तर्क दिए हैं: तात राम नहीं नर भूपाला वे अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड के नायक हैं।
माल्यवान इसके मंत्री भी हैं इसके नाना भी हैं लेकिन रावण उनकी भी बात नहीं सुन रहा है। कदम-कदम
पर मंदोदरी समझाती है कितने प्रमाण देकर। अरे तुम उनको साधारण मनुष्य समझ रहे हो जिसके दूत ने लंका को जलाकर राख कर दिया। अशोकवाटिका को उजाड़ दिया। आपके बेटे को मार दिया जिसने चार सौ कोस अथाह सागर पर पुल बाँध दिया, उसको आप मनुष्य समझते हैं और उनकी नारी का हरण करते हैं। आपकी मति मारी गयी है। हमारे बृज में गाते हैं। मन्दोदरि कह रही है- रघुवर की सिया हरि लाये रे । मति मारी गयी रे भरतार ॥ तीन लोक के नाथ राम से बैर बढ़ायौ सैंया ।
खण्ड-खण्ड लंका के करि दें, राम लखन दोऊ भैया ॥
सिन्धु पार कर कैसे आवें, ये तुमको अभिमान ।
सूख जाँय पाताल लोक, जब छोड़ें अग्नि बाण ॥
शक्ति का अवतार सिया हैं, नहिं साधारण नारी।
कहाँ गयौ बल गर्व तेरौ जब वानर लंका जारी ।।
सीता कूँ ले जाओ नाथ, रघुवर की शरण पधारौ ।
शरणागत के रक्षक हैं, बचि जाइगौ वंश तिहारी ॥
इससे बड़ा कोई उपदेश होता है, भला, पर रावण की मति मारी गयी है और रावण कुछ भी न सुनने को तैयार है न मानने को तैयार, बड़ा विचित्र जानवर हनुमानजी ने कहा- रावण बाकी तेरा सब ठीक-ठाक है लेकिन तेरे अन्दर प्राण नहीं हैं, प्राण राम होते हैं। कहते हैं यदि किसी की मौत हो जाए तो कहते हैं, उसके राम निकल गए। आपने देखा होगा कि मुर्दे को जब जलाने ले जाते हैं
तो उस समय यही बोला जाता है राम-राम सत्य है, राम नाम सत्य है, सत्य बोलो गत है, सत्य बोलो गत है
या सत्य बोलो मुक्ति क्यों असत्य तो देह है इसको जलाने ले जा रहे हैं जो सत्य था वह निकल गया। राम नाम जो अमृत था वह तो निकल गया। अब तो यह मृत है इसका तो दाह संस्कार ही किया जा सकता है। रावण राम का नाम तो नहीं ले सकता, मृत जो होगा वह राम का नाम क्या लेगा। आपने कभी कबीरदास के बारे में सुना है,
एक बार कबीरदास जी काशी में गंगास्नान करने जा रहे थे। काशी में मुर्दे बहुत लाए जाते हैं। काशी मुक्ति
की भूमि है इसलिए मुर्दों की भूमि हो गयी है। काशी में मैंने सुना है कि सब लोग मरने के लिए बैठे हुए
हैं। एक मुर्दे को लेकर लोग जा रहे थे-.राम नाम सत्य है, सत्य बोलो मुक्ति है।कबीरदासजी ने एक आदमी से पूछा, भैया, यह क्या तमाशा जा रहा है। उस आदमी ने कहा बाबा, यह तमाशा नहीं है। एक दिन तुम्हारा भी होगा, चिन्ता न करो। अरे बताओ तो सही। बोले कि इस आदमी की मौत हो गई। उसको जलाइवे ले जा रहे संस्कार करवे। अच्छा-अच्छा तो यह क्यों बोल रहे हैं राम नाम सत्य हैं उस आदमी ने कहा बाबा जब मरने के बाद जलावें ले जाए तो यही कहा जाता है क्योंकि सत्य से ही
मुक्ति है। तो कबीरदासजी ने कहा फिर तुम क्यों बोल रहे हो यह स्वयं क्यों नहीं बोल रहा है। यही बोले न
मुक्ति तो इसे ही चाहिए। इस आदमी ने कहा कि बाबा बड़े अजीब हैं आप इतने बूढ़े महात्मा दिखाई दे रहे
हो और तुमको यह भी नहीं मालूम कि कोई मुर्दा कैसे बोल सकता है। कबीरदासजी ने कहा कि क्यों नहीं
बोल सकता अगर इसे मुक्ति चाहिए तो इसे बोलना ही पड़ेगा, जिसे प्यास लगी है पानी उसी को माँगना पड़ेगा
कि मुझे एक गिलास जल चाहिए। उस आदमी ने कहा कि यह नहीं बोल सकता क्योंकि यह मरा हुआ है।
तब कबीरदास को समझ में आया कि जो मरा हुआ होता है वह राम-राम नहीं बोल सकता । राम का उल्टा
ही मरा है जो राम नहीं बोलता वह मरा हुआ ही है। इसलिए जिंदा रहना चाहते हो तो हर समय बोलिए-
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।
हरे कृष्णा हरे कृष्णा कृष्णा कृष्णा हरे हरे ।।
सत्य तो भगवान श्रीराम का नाम है। विभीषण स्वयं बोले हैं राम सत्य संकल्प प्रभु! राम निकलने के
बाद तो केवल शव ही बचता है और शव का जितना जल्दी दाह संस्कार करो उतना ही अच्छा है। लोग कहते
हैं कि अरे मिट्टी क्यों खराब कर रहे हो। इसे जल्दी ठिकाने लगाओ। ऐसा किसी की मौत के बाद लोग कहते
हैं। हनुमानजी ने जब लंका जला दी तो एक बार वानरों ने पूछा, हनुमानजी किसी को जलाना तो आतातायी
का कार्य माना जाता है और आपने सारी लंका को जला दिया तो हनुमानजी ने कहा देखो अगर कोई अनाथ
शव, लावारिस शव, लाशें पड़ी हों और उनका संस्कार करने वाला कोई न हो तो जो व्यक्ति, ऐसी संस्था जो
इनका संस्कार करती हो उसको अच्छा कहेंगे या बुरा? बोले, उसको तो अच्छा कहेंगे, धन्यवाद देंगे। तो भैया
मैंने तो लावारिस लाशों को ही जलाया है। मैंने एक-एक को टटोल कर देखा लेकिन किसी मन्दिर महँ न
दीख वैदेही मुझे लंका के अन्दर कहीं भक्ति का दर्शन नहीं हुआ और मेरा यह सिद्धान्त है-
जिन्ह हरिकथा सुनी नहिं काना। श्रवन रन्ध्र अहिभवन समाना ।। जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहिं आनी जीवत शव समान तेइ प्रानी। श्रीहनुमानजी ने कहा कि वहाँ लाशें सड़ रही थीं जिनके हृदय में भक्ति नहीं, हरि नाम नहीं, वे लाशों के समान हैं। मैंने सोचा इतनी लाशें सड़ रही हैं इनका जल्दी से जल्दी दाह संस्कार कैसे किया जाए तो इन्द्र ने मेरी सहायता कर दी। चूंकि जब बड़ी संख्या में शव होते हैं तो सरकार के लोग पैट्रोल से उनका दाह संस्कार करते हैं। इन्द्र ने मेरी थोड़ी ज्यादा सेवा कर दी, उन्होंने एक साथ सबका काम कर दिया। रावण के दस सिर हैं वह विद्वान है। कई लोग रावण के सिर का भी बड़ा वर्णन करते हैं। दस सिर हो सकते हैं क्या? हर विद्वदजन के दस सिर होते हैं। विद्वान माने जिसमें बुद्धि है। कितने रूप दिखाता है मन्दिर में जाएगा, अलग प्रकार।से दिखाई देता है, ऑफिस में जाएगा तो अलग प्रकार से दिखाई देगा, पत्नी के साथ अलग प्रकार से दिखाई देगा, क्लब में अलग प्रकार से दिखाई देगा दुकान में अलग प्रकार से दिखाई देगा। तो विद्वान का अर्थ ही है जिसके दस सिर हों और हम अगर जानना चाहते हैं कि हमारे कितने सर हैं तो आप टटोलकर देखेंगे कि हमारे कितने सिर हैं तो आपको दिखाई दे जाएंगे कि मेरे कितने सिर हैं। हम दिन भर सिर बदलते हैं, हम पूरे दिन चेहरा बदलने में लगे रहते हैं। आप अपने बारे में विचार करें, अपने चेहरों को देखिए। हमसे कोई कर्जा लेने आता है तो हमारा चेहरा अलग प्रकार का होता है। हम किसी से कर्जा लेने जाते हैं तो वहाँ हमारा चेहरा किसी और प्रकार का हो जाता है। हमारे लड़के को कोई
लड़कीवाला देखने आता है तो हमारा चेहरा और प्रकार का हो जाता है और जब हम सब अपनी बेटी के लिए
लड़का देखने जाते हैं तो हमारा वही चेहरा और हो जाता है। कितने अवसरों पर हमारे चेहरे बदलते हैं, यही
रावण के दस सिर का अर्थ हो सकता है। विद्वान का अर्थ है जो बुद्धि से जीता है। विद्यावान का अर्थ है जो
हृदय से जीता है, जो तर्क से जिए, जो शास्त्र से जिए वह विद्वान है और जो शास्त्र को जिए, वह विद्यावान
है। मैं शास्त्र की निन्दा नहीं कर रहा लेकिन आपको शास्त्र कितना आता है यह बहुत महत्व की बात नहीं है।
आप शास्त्रों को जीते कितना हैं यह महत्व की बात है। आप शास्त्र को जानते कितना यह आवश्यक नहीं।
आप जो दिखाई दे रहे हैं सचमुच में आप वह नहीं हैं। आप जो जी रहे हैं आप वह हैं और विद्वान हमसे
तालमेल बिठाता है, बुद्धि इसमें तालमेल बिठाती है। बुद्धि जीती कुछ है दिखाती कुछ है बुद्धि है तो कुछ, प्रकट कुछ और करती है। जिसके भीतर और बाहर अलग-अलग है, वह विद्वान है वह दोनों में तालमेल बिठाता है। और अगर हम इस सत्य को स्वीकार कर लें कि जैसा मैं हूँ वैसा दिखाई नहीं दे रहा और जैसा मैं दिखाई दे रहा हूँ वैसा मैं हूँ नहीं। जिस दिन आप यह स्वीकार कर लेंगे उसी दिन आपके जीवन में परिवर्तन हो जाएगा लेकिन हम जीते कुछ हैं, दिखाते कुछ हैं। दो प्रकार का पाखण्ड है जिसको दम्भ का जीवन बोलते हैं। हमारा जो सत्य है वह जिया जा रहा है और जो असत्य है वह दिखाया जा रहा है। सच्चा क्रोध हमारे भीतर बैठा
है और झूठी करुणा हम बाहर दिखा रहे हैं। सच्ची ईर्ष्या हमको भीतर जला रही है और झूठी प्रशंसा हमारी
बाहर आ रही है। सच्चा काम हमारे भीतर हिलोरे मार रहा है। झूठा सदाचार हम बाहर दिखाने की कोशिश
कर रहे हैं। तो जो जिया जा रहा है वह सत्य है, जो दिखाया जा रहा है वह झूठा है। रावण कितना विद्वान
रहा होगा। रावण की असलियत किसी को पता न लग जाए इसकी सावधानी कितनी रावण ने की थी। रावण
ने जितने भवन लंका में बनाए थे बाहर से मन्दिर जैसे दिखाई देते थे। हनुमानजी जैसा ज्ञानी महापुरुष भी एक
बार आश्चर्यचकित हो गया था। इतने मन्दिर, निश्चित रूप से भक्ति देवी का यहाँ निवास होगा और मन्दिरों
में प्रवेश करने लगे तो दिखाई कुछ नहीं दिया-
मन्दिर - मन्दिर प्रति कर शोधा । देखे जहँ तहँ अगनित जोधा ॥
गयउ दशानन मंदिर माहीं।। अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं ॥
शयन किये देखा कपि तेही । मंदिर महँ न दीख बैदेही ।।
मन्दिर में शोध किया, अनुसंधान किया, परीक्षण किया लेकिन कहीं भी मन्दिर दिखाई नही दिया, तो
शास्त्रों को जानने की आवश्यकता नहीं है। जीने की आवश्यकता है। जीवन के प्रश्न तो हमें स्वयं हल करने
पड़ेंगे न, आपने उत्तर देख कर लिख लिया तो सवाल सही नहीं हो जाएगा। सवाल को हल करना पड़ता है।
शास्त्र को देखकर जियोगे तो पाखण्डी बनोगे। जीवन जैसा जीते हो उसे शास्त्र से प्रमाणित करो, जीवन शास्त्र
के अनुकूल है या प्रतिकूल, कितने बड़े-बड़े शास्त्र के ज्ञाता, गीता जिनको कंठस्थ है लेकिन कभी वाणी पर
गीत नहीं आया, गाली ही आयी। शास्त्र कहता है-
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत्॥
सर्वे भवन्तु सुखिनः मंत्र का चौबीस घण्टे उच्चारण करनेवाला सर्वे भवन्तु सुखिनः की कामना करने
वाला भाई से भी बंटवारे के मुकदमे लड़ता है।
ॐ द्यौः शान्तिनन्तरिक्ष ॐ शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः । वनस्पतयः
शान्तिर्विश्वेदेवाः शान्तिब्रह्म शान्तिः सर्व थं शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
वनस्पति तक की शान्ति की कामना करनेवाला चौबीस घण्टे पड़ौसी से गाली-गलौच करता है। शास्त्र
जानने का विषय नहीं, शास्त्र जीने का विषय है। आपको कितना आता है यह विषय नहीं है। महाभारत में
गुरु द्रोणाचार्य को ऐसा भ्रम था कौरव और पाण्डव जो बालक हैं इनमें अगर पढ़ाई में सबसे ज्यादा योग्य
निकलेगा तो वह युधिष्ठिर होगा, ऐसा इनका अनुमान था। लेकिन जब बच्चों को पढ़ाना शुरू किया तो वह
युधिष्ठिर सबसे फिसड्डी था। सब बालक पाठ करके आगे बढ़े और युधिष्ठिर एक ही पाठ पर अटके हैं, गुरु
जी ने एक दिन कहा, बेटा, आगे बढ़ोगे या नहीं? सब बालक आगे बढ़ गए और तुम एक ही पर अटके हो ।
युधिष्ठिर ने कहा गुरु जी, जब एक पाठ याद हो जाए तब न दूसरे पर आगे बढूँ। पाठ था सदा सत्य बोलो।
बाकी बच्चों ने रट लिया सत्यंवदधर्मंचर सदा सत्य बोलो, धर्म के मार्ग पर चलो, दीनों पर दया करो, गुरुओं
की सेवा करो, माता-पिता की सेवा करो, सबने रट लिया। युधिष्ठिर ने बोला, गुरु जी, जब सत्य बोलना आ
जाए तब तो न, आगे का पाठ पहूं। द्रोणाचार्यजी ने सोचा, जब सत्य को जीना आ गया तो फिर जीवन में दूसरे
पाठ की आवश्यकता ही क्या। बाकी विद्यार्थियों ने सिद्धान्त रट लिए । धर्मराज युधिष्ठिर ने सत्य को रटा नहीं, सत्य को जिया, सत्य को जाना नहीं, जिया । महाभारत के युद्ध के बाद जब पाँचों पाण्डव स्वर्गारोहण की यात्रा पर चले हैं तो वसुधारा पार करके जब हिमालय में प्रवेश हुआ सब एक-एक कर पाण्डव बर्फ में गिरने लगे पहले द्रोपदी गिरी, नकुल गिरे, सहदेव गिरे, भीम गिरे, अर्जुन गिरे और स्वर्ग के द्वार तक चलते-चलते केवल युधिष्ठिर बचे या उनके साथ एक कुत्ता जो यात्रा कर रहा था वह पहुँचा। शास्त्रकार टिप्पणी देते हैं स्वर्ग के
द्वार पर वह पहुँचा जिसने सत्य को जिया या वह पहुँचा जिसने सत्य का साथ दिया। भले ही वह कुत्ता ही
था फिर भी वह स्वर्ग पहुंचा। स्वर्ग के द्वारपालों ने द्वार खोलकर स्वागत किया, आइए धर्मराज, आपका स्वागत
है। युधिष्ठिर ने कुत्ते से कहा, चलो भाई अन्दर प्रवेश करो। द्वारपालों ने कहा, नहीं सरकार ! केवल आप ही
प्रवेश कर सकते हैं। कुत्ते के प्रवेश की अनुमति हमारे पास नहीं है। धर्मराज ने कहा आप अपना द्वार बंद
कीजिए, जहाँ यह कुत्ता जाएगा, हम वहीं जाएंगे। द्वारपालों ने कहा- महाराज आप कुत्ते के लिए जिद कर रहे हैं। मनुष्यों को तो यहाँ प्रवेश नहीं मिलता। इस पर धर्मराज ने कहा अरे भाई जिन भाइयों ने मेरा अंत समय
तक साथ नहीं दिया, मेरी पत्नी मेरा साथ नहीं दे पायी, जिसने अंत समय तक मेरा साथ दिया अगर मैं उसका
साथ नहीं दे पाया तो मैं तो कुत्ते से भी गया गुजरा हो गया। आप द्वार बंद कर लें हम वापस लौट जाएंगे।
इतना कहना था कि पूरा स्वर्ग ठहाका मार कर हँसने लगा। धर्मराज को आश्चर्य हुआ कि आखिर मेरी बात
पर इतना हंसे क्यों और पीछे मुड़कर देखा तो कुत्ते की जगह भगवान् नारायण मुस्कुराते हुए खड़े हैं। बोले,
धर्मराज, स्वर्ग में प्रवेश करो, स्वर्ग तुम्हारे स्वागत को तैयार है। मैं तो केवल यह जानने के लिए तुम्हारे साथ
था कि तुमने सिद्धान्त को जिया है या जाना है। सत्य जानने का विषय नहीं है, बहुत लोग शास्त्रों के ज्ञाता हैं
किन्तु वे विद्वान हैं, विद्यावान नहीं हैं। विद्यावान वे हैं जिसके मष्तिस्क का ज्ञान उसके आचरण में उतर चुका
है। जिसके उच्चारण का ज्ञान आचरण में आ गया है। जीवन की चर्चा से निकलकर जीवन चर्या में आ चुका
है। जिसके हृदय में ज्ञान बैठा है वो विद्यावान है, जिसकी बुद्धि में ज्ञान बैठा है वह विद्वान है। रावण विद्वान
है, रावण के दस सिर हैं, दस गुनी विद्वता, दस गुनी ताकत, दस गुनी क्षमता, दस गुनी बुद्धिमता, दस गुनी
चालाकी और दस गुनी चतुराई, लेकिन आचरण कैसा करता है। पाँच सिर इधर और पाँच सिर उधर इसका
अर्थ क्या है? रावण का जो सत्य है वह बाकी लोगों के लिए तो है, अड़ोस-पड़ोस के लिए है, इधर-उधर
के लिए है लेकिन वह ज्ञान अपने भीतर नीचे की ओर नहीं उतर रहा। चारों ओर प्रकाशित हो बिखर रहा है।
और हम सबका लगभग-लगभग यही हाल है। सब लोगों के लिए हम ज्ञान बघारेंगे। बालकों से लेकर समाज
परिवार सभी को उपदेश देंगे लेकिन हम स्वयं सड़ी हुई कीचड़ में ही सड़ते रहेंगे। जानकीजी ने भी हनुमानजी
से यही कहा था, बेटा फल खाने जा रहे हो, एक काम करना। क्या करूं? माँ बोलीं: रघुपति चरण हृदय
धरी तात मधुर फल खाहु, भगवान् के श्री चरण हृदय में चाहिए। भगवान् के चरणों की चर्चा हमारी वाणी
में तो रहती है। भगवान् नाम वाणी पर तो बैठा पर हृदय में भोग है, वासना है। उपासना हमारी देह में है।
लेकिन हृदय में तो वासना की गंध भरी है। इसलिए आज हनुमानजी ने रावण को कहा, रावण तुम्हारा सब
कुछ ठीक है अगर एक काम और कर दो क्या-
राम चरन पंकज उर धरहू। लंका अचल राजु तुम्ह करहू ।।भगवान् के श्रीचरणों को, अपने हृदय में धारण करो फिर इस लंका के अचल अधिपति रहोगे। तो विद्वान वह नहीं है जो दूसरे में दोष देखता है और उसकी चर्चा करता है। विद्यावान वह है जो अपने भीतर दोष ढूंढता
है। साधु अपने भीतर दोष ढूँढता है। सांसारिक दूसरे के अन्दर दोष ढूँढता है यही अन्तर है और कोई नहीं।
श्रीभरतजी जब भी देखे-
मोहि समान को पाप निवासू। जेहि लगि सीय राम बनवासू ॥ साधु जब देखेगा अपने भीतर देखेगा, बुद्धिमान, विद्वान दूसरे के दोषों का वर्णन करेंगे। देखो एक सिद्धान्त है: जब अपने दोष न देखने हों तो दूसरे के दोष देखने में व्यस्त रहना चाहिए। अपने दोष को देखने की फुर्सत कहाँ है हमको? जितने भी मंचों पर भाषण देते हैं उनके भाषण सुनिए, भ्रष्टाचार बहुत बढ़ रहा है। अब यह नहीं समझ में आ रहा कि भ्रष्टाचार कर कौन रहा हर व्यक्ति बोल रहा है कि भ्रष्टाचार बहुत है। मुझे
तो ऐसा लगता है कि मंचों पर बोलनेवाले भी यदि भ्रष्टाचार छोड़ दें तो इस देश में रामराज आ जाएगा। जो
भ्रष्टाचार करता ही नहीं है उसको बोलने की भी आवश्यकता नहीं है। बोलता वही है जो भ्रष्ट है। मैं औरों
के भ्रष्टाचार पर बोलता रहूंगा तब तक कोई मेरे भ्रष्टाचार को देखने की कोशिश नहीं करेगा। जो दूसरे को
उपेदश देता है वह कभी उपदेश जीता नहीं, उसी को रावण कहते हैं।
।।जय श्री राम जय हनुमान।।
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