मानसचर्चा।।हनुमानजी भाग आठ।।जिन हरिकथा सुनी नहिं काना।।
मानस चर्चा ।।जिन हरिकथा सुनी नहिं काना।।
कंचन वरन विराज सुबेसा।कानन कुण्डल कुंचित केसा।। श्री हनुमान जी का जो रूप है वो कंचन जैसा है। गोस्वामी जी ने लिखा है-कनक वरण तन तेज बिराजा ॥
लाल देह लाली लसे, अरु धरि लाल लंगूर ।
वज्र देह दानव दलन, जय जय जय कपि सूर ॥
सोना जब तपता है तो कंचन बनता है। हनुमान जी के भीतर तप भरा है इसलिए तेज उनका कंचनरूप
धारण किए है-
कनक वरण तन तेज बिराजा ॥
तेज, तप से आया है। लंका सोने की थी। हनुमानजी ने कहा, रावण यह लंका असली सोने की है या.नकली, इसे तपा कर देखना चाहिए। इसलिए हनुमान जी ने पूरी लंका को आग में तपाया यह देखने के लिए कि सोना असली है या नकली। नकली सोना जल गया और असली सोना यानि हनुमान जी का बाल भी बांका नहीं हुआ क्यों? क्योंकि माँ जानकी जी रक्षा में बैठी थीं। जानकी जी पावक रूप हैं।
पावक जरत देखि हनुमंता।भयउ परम लघु रूप तुरन्ता। और भक्ति देवी तो भक्तों के लिए शीतल है, दुष्टों के लिए ज्वाला, तो जीवन में जो तेज है वह तप से ही प्रकट होता है। हनुमानजी जैसा कौन तपस्वी होगा? लंका वैभव का प्रतीक है, लोगों के तो घरों में सोना है लेकिन लंका के सारे घर ही सोने के थे कितना वैभव होगा? लेकिन दुर्भाग्य से इस वैभव का स्वामी अभिमानी था। हनुमानजी के स्वामी भगवान् हैं और तमाशा देखिए जो रावण पूरे जगत को जला रहा था, आज उसी का महल जल रहा है। जो दूसरों को जलाता है, भले ही उसका सोने का घर क्यों न हो एक न एक दिन वह भी जलकर राख हो जाता है। अभिमानी के प्रकृति भी विरुद्ध हो जाया करती है। रावण का जब महल जल रहा था रावण ने मेघनाथ से कहा जरा इन्द्र को बुलाओ कहो वर्षा करें। इन्द्र वर्षा के लिए बादल लेकर तो आया लेकिन हमने सुना है कि बादलों में पानी नहीं पैट्रोल भरकर लाया। प्रकृति भी विरुद्ध हो गयी, आज अगर यह घटना हो जाए तो फिर अच्छा हो जाए। पैट्रोल भी सस्ता हो जाए, वर्षा से यदि पैट्रोल बरसे तो । दूसरा एक तो हनुमानजी लाल वर्ण के हैं ऊपर से सिन्दूर, आपने देखा होगा। वह भी घटना आपने सुनी होगी कि प्रातःकाल जब हनुमानजी प्रभु की सेवा में जा रहे थे तो माँ को प्रणाम करने उनके भवन में आ गए तो माँ उस समय श्रृंगार कर रही थीं, अपनी माँग में सिन्दूर भर रही थी। अब यह तो भोलेनाथ हैं इनको तो.कुछ मालूम नहीं पूछा माँ यह क्या कर रही हो? माँ ने सोचा अगर कहूँगी कि सुहाग चिन्ह लगा रही हूँ तो पूछेगा यह सुहाग क्या होता है? इसको तो कुछ मालूम नहीं प्रश्न पर प्रश्न खड़ा करेगा। माँ ने कहा कि यह प्रभु को अच्छा लगता है। तो हनुमानजी ने सोचा यदि प्रभु सिन्दूर की एक रेखा से प्रसन्न हो सकते हैं तो मैं तो पूरे शरीर को ही लाल कर दूँगा और गए बाजार। दुकान से पूरी बोरी निकालकर लाल-लाल पोत लिया और आ बैठे राजदरबार में जो देखे वह ही हँसे । भगवान् ने देखा तो अपनी हँसी रोक नहीं पाए बोले यह क्या पोत लिया। बोले प्रभु आपको सिन्दूर अच्छा लगता है इसलिए पोत लिया। माँ ने कहा था कि आपको सिन्दूर अच्छा लगता है इसलिए लगा लिया। माँ तो केवल एक रेखा बना रही थी मैंने सोचा यदि आप प्रसन्न होते हैं तो मैंने पूरा शरीर ही लाल पोत डाला। हनुमानजी के भोले भाव को देखकर प्रभु ने उन्हें हृदय से लगा लिया। संयोग से उस दिन मंगलवार था। भगवान् ने कहा हनुमान् आज मैं घोषणा करता हूँ कि मंगलवार के दिन जो भी तुम्हारे शरीर पर सिन्दूर का चोला चढ़ाएगा मैं उससे सदैव प्रसन्न रहूँगा। तभी से मंगलवार के दिन हनुमानजी पर सिन्दूर का चोला चढ़ाने की परम्परा चली आ रही है। हनुमानजी के लिए सुवेश शब्द आया है। आज कुवेश हो रहा है। किसी भी राष्ट्र की संस्कृति को नष्ट करना हो या किसी भी राष्ट्र की धर्म, संस्कृति, समाज को नष्ट करना हो तो कुछ भी करने की आवश्यकता.नहीं है। उसकी तीन चीजें बिगाड़ दीजिए। उसकी भाषा, भोजन और वेश बिगाड़ दीजिए। दुर्भाग्य से आज तीनों पर ही आक्रमण है। भारतीय भोजन हमारे जीवन से जा रहा है, भारतीय भाषा को हम आदर देने को तैयार नहीं हैं, भारतीय वेश का तो भगवान् ही मालिक है। कोई-कोई लगता है कि यह अभारतीय है। ऐसा लगता है कि सारे शेखचिल्ली पता नहीं किसी अन्य देश से उठाकर भारत में ला दिए गए हैं। वेश भी कैसा चला है वेश के पीछे भी कोई अर्थ होता है। आज का वेश देखो मूर्खों जैसा वेश, पहले बस अड्डों पर ऐसे। पागल घूमा करते थे चीर बांधकर । आज बड़े-बड़े पेंट पहनने वालों को देखो या तो पैर से डेढ़ फीट ऊपर लटक रही या फिर डेढ़ फीट नीचे घिसट रही है। घरों में किसी को भी अलग से पोंछा लगवाने की जरूरत नहीं। आप उनके पैर गीले कर दो आंगन में घुमाओ, पोंछा स्वयं लग जाएगा। पेंट में छह से आठ जेब भीतर से खाली हैं फिर जेबें छह हैं। अरे भाई यह विदेश में मजदूरों का वेश है उनको टावर पर ऊंची जगह पर
काम करना होता है। बार-बार नीचे न उतरना पड़े किसी जेब में रिञ्च, किसी में पेंचकस, किसी में प्लास।
पागलपन लगता है, संकोच लगता है यह भारत है, भारत के लोग हैं यह हिन्दू हैं । जिनको न भाषा का गौरव है न भोजन का ज्ञान है और न ही वेश का स्वाभिमान है। वेश ऐसा चाहिए जो मन में गौरव बढ़ाए, भक्ति का गौरव
बढ़ाए आनन्द का भाव बढ़ाए।
श्री हनुमानजी का वेश देखिए-
कंचन बरन बिराज सुबेसा।कानन कुण्डल कुंचित केसा।
बन्धुओं, सुवेश चाहिए हम नकल में शेखचिल्ली बनते हैं। आज भागमभाग का युग है। मशीनों का युग है। धोती पहन कर कल-कारखानों में मशीनों पर काम नहीं किया जा सकता है। उसके लिए उपयुक्त वेश चाहिए लेकिन फिर भी हमारे हृदय में अपने वेश के प्रति गौरव का भाव होना चाहिए। हमारे हृदय में अपने वेश के प्रति हीन भाव आ चुका है और अगर मेरी बात जचती हो तो कम से कम वर्ष में चार बार हमें अपने देश की वेशभूषा पहननी चाहिए। पहले विजय दशमी के दिन जो हमारा शस्त्र और शास्त्र की पूजा का दिन होता है। जब हमारा पूजा का दिन होता है उस दिन भारतीय वेश जो भी जिसका वेश हो पहनकर पूजा करनी चाहिए। दूसरा दीपावली की जब पूजा करें तो अपनी वेशभूषा को पहनकर पूजा करें। तीसरे जब जन्म दिन या विवाह की तिथि मनाएं उस दिन भारतीय वेश पहने और चौथा जब बहन से राखी बंधवाएं तो भारतीय वेश धारण करें और भोजन भी अपने देश का ही अपने शरीर को रुचिकर लगता है और स्वास्थ्यकर भी होता है। अब तो आयुर्वेद ने भी घोषित कर दिया है जितना सिन्थेटिक फूड आ रहा है, फास्टफूड के नाम से यह सब शरीर में विकृति पैदा कर रहा है। स्वाद के लिए कभी-कभी ठीक है लेकिन अपना ही भोजन अपने शरीर की रक्षा करता है और तीसरा अपनी भाषा के प्रति भी हीन भाव नहीं बल्कि गौरव का भाव चाहिए। मैं यह।जानता हूँ कि आज व्यवसाय की भाषा अंग्रेजी है विश्व व्यापार की भाषा, सम्पर्क की भाषा आज अंग्रेजी होती।जा रही है लेकिन व्यवसाय के बाद आज जब हम अपने परिवार में रहें तो हिन्दी में बात करें। हिन्दी माने जो आपके अपने क्षेत्र की, अपने प्रेदेश की, सारे देश की, हर क्षेत्र की भाषा है उसमें बात करें। प्रेम का भी यदि इजहार करें या अपने मन के भाव व्यक्त करना है तो अपनी भाषा में ही व्यक्त किए जा सकते हैं। आप बन्दरों का वेश देखिए, गोस्वामीजी ने लिखा है कि हनुमदादि सब बानर वीरा, धरे मनोहर मनुज शरीरा । बन्दर कितने सुन्दर लग रहे हैं, वेश धारण किए हुए। वेश ऐसा चाहिए जो मन में हीनता पैदा न करे, अहंकार पैदा न करे, कामुकता पैदा न करे, जिसको देखकर कामुकता ना आये, दूसरे के मन में भी वासना न जगे। बहनों से मेरा निवेदन है कि थोड़ा वेश सुधारें। क्योंकि बहुत नाजुक विषय है इस पर बोलना। मैं इस पर ज्यादा तो नहीं बोलूंगा किन्तु संकेत में निवेदन कर रहा हूँ। इसको अन्यथा न लें, आज हमारा वेश कामुकता
की ओर जा रहा है। आज हमारे वेश अपने मन में, देखनेवाले के मन में कामोत्तेजना जगा रहे हैं, वासना पैदा।कर रहा है। वेश ऐसा चाहिए जिसको देखकर शीश झुके, उपासना करने का मन करे। श्रीहनुमानजी ने जो वेश बनाया उनका वेश गणवेश जैसा लगता है। सेवक का वेश सेवा के अनुसार होना चाहिए। कई बार सेवक ऐसा वेश पहनता है मालिक से भी बढ़िया वेश पहनता है कि मालिक को आज्ञा देने में भी शर्म आती है कहने में
कि अरे जरा एक गिलास पानी लाना। तो वेश भी ऐसा चाहिए कि स्वामी को सेवा की आज्ञा देने में संकोच
न हो। क्योंकि हनुमानजी हमेशा सेवा में रहना चाहते हैं इसलिए हमेशा सेवक के वेश में रहते हैं। वेश का
बहुत परिणाम होता है आप कैसा वेश पहनकर गए हैं इससे आपका आदर और मान घटता और बढ़ता है-
किएहु कुबेस साधु सनमानू । जिमि जग जाममंत हनुमानू ॥ तात भरत तुम सब विधि साधु। साधुवेश माने सरल वेश, सहज वेश, सुन्दर वेश, सौम्य वेश, शालीन वेश, वेश ऐसा चाहिए जो हमारे माता-पिता को प्रसन्न करे, अश्लील वेश नहीं होना चाहिए। भगवान को प्रसन्न करें ऐसा वेश-
लाल देह लाली लसे, अरु धरि लाल लंगूर ॥
बज्र देह दानव दलन, जय जय जय कपि सूर ||
श्रीहनुमानजी सदैव लाल वेश धारण करते हैं क्योंकि लाल रंग अनुराग का प्रतीक है और अनुराग की लालिमा सदैव भीतर से रहती है। 'कानन कुण्डल' पुराने वैज्ञानिक, पहले के राजे-महाराजे, ऋषि-मुनियों के वेश देखोगे तो उनके सम्पूर्ण अंगों में आभूषण दिखाई देंगे। यह आभूषण केवल शरीर के श्रृंगार के लिए नहीं पहने जाते थे। यह तो विद्युत तरंगों को भीतर पैदा करने के लिए और उनको ठीक से संचालित करने के लिए, भीतर भी विद्युत धारा प्रवाहित हो इसलिए हर अंग में आभूषण विद्यमान होते हैं जिनको एक्यूप्रेशर का ज्ञान है, शरीर को कहाँ दबाने से शरीर की कौन सी क्रिया तीव्र या मंद हो जाती है, यह हमारे आभूषण निर्धारित करते हैं। कानों में जो नस होती है आपने देखा है कि व्यक्ति जब भी गलती करता है तो कान पकड़ता है, जब भी व्यक्ति को उसकी गल्तियों का अहसास कराया जाता है तो उसके कानों को पकड़वाया जाता है। कान में एक नस ऐसी है जिसे यदि हमेशा खींचा जाए तो जो स्मरण हो जाता है, वह विस्मरण नहीं होता है। स्मरणशक्ति इससे बढ़ती है। इसलिए आपने देखा होगा कि पुरुषों से अधिक माताओं की स्मरणशक्ति होती है। आज परीक्षाओं में हम देखें तो लड़कियां परीक्षा में लड़कों से ज्यादा अंक ला रही हैं। लड़कियां पढ़ाई की ओर ज्यादा बढ़ रही हैं क्योंकि हमेशा कानों में उनके कुछ न कुछ रहता है। इसलिए उनकी स्मरणशक्ति हमेशा तीव्रता की ओर रहती है। एक तो कुण्डल का यह अर्थ है और दूसरा कुण्डल का अर्थ है कि श्रीहनुमानजी के दोनों कानों में कुण्डल थे माने एक कान से कथा सुनते है और दूसरे कान से कीर्तन सुनते हैं और यही कानों के कुण्डल है कान और किसी काम के लिए बनाए ही नहीं गए। गोस्वामीजी ने भी यही बोला है-
जिन हरिकथा सुनी नहिं काना। श्रवण रन्ध्र अहिभवन समाना ॥ जिनके कान भगवान् श्रीहरि की कथा नहीं सुनते हैं वो कान नहीं हैं वो तो अहिभवन हैं, जहाँ साँप निवास करते हैं। अगर कानों से कथा नहीं सुनोगे तो व्यथा सुननी पड़ेगी। या तो कथा में फंसो या व्यथा में फंसो । जो कथा नहीं सुनते वह व्यथा में फंस जाते हैं। फिर उनकी नाक कट जाती है। आपने सुना है कि सुपनखा की नाक काट दी थी लक्ष्मणजी ने, क्यों? क्योंकि सुपनखा ने भगवान् की कथा नहीं सुनी थी। भगवान् कह रहे थे कि मैं विवाहित हूँ, देवी शोभा नहीं देता तुम्हें ऐसा करना आप इतने बड़े परिवार की बेटी हो, इतने बड़े महापुरुष की बहन हो यह आपको शोभा नहीं देता। लेकिन भगवान की भी कथा नहीं सुनी। तब संत लक्ष्मणजी ने भी समझाया, संत की वाणी भी नहीं सुनी। जो कान संत व भगवन्त की कथा नहीं सुनते उनकी तो फिर नाक ही कटेगी। नाक काटना यह प्रतीकात्मक है। जो कथा नहीं सुनेगा उसको नाक कटवानी ही पड़ती है। सुपनखा की केवल नाक नहीं कटी बल्कि पूरे परिवार की नाक कटी। जो भगवान् की कथा नहीं गाएगा उसकी तथा उसके परिवार की किसी न किसी दिनअवश्य नाक कटेगी कोई बचा नहीं पाएगा। इसलिए हमें प्रभु कथा सुनते रहना चाहिए।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।
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