मानस चर्चा।।श्री हनुमानजी भाग नौ।।मृत्यु निकट आई खल तोही ।।
मानस चर्चा।।श्री हनुमानजी भाग नौ।।मृत्यु निकट आई खल तोही ।।
हाथ बज्र औ ध्वजा विराजै । काँधे मूंज जनेऊ साजै ॥श्रीहनुमानजी के हाथ में वज्र है, वह सम्पूर्ण ही वज्र हैं।
बज्र देह दानव दलन, जय जय जय कपि सूर ॥
वज्र के दो अर्थ हैं एक तो श्रीहनुमानजी के हाथ में जो रेखाएं हैं वे वज्र के समान हैं। दूसरा वज्र माने
काल। कहते हैं न कि वज्रापात हो गया। काल श्रीहनुमानजी के हाथ में है। हम सब काल के हाथ में हैं और काल श्रीहनुमानजी के हाथ में है। काल को हनुमानजी ने मुक्त किया था। आपने सुना होगा कि काल रावण की पाटी से बंधा रहता था। हनुमानजी ने रात में जाकर काल को मुक्त करा दिया तभी तो रावण ने कहा था- मृत्यु निकट आई खल तोही ।
जब रात्रि में हनुमानजी ने इस काल को स्वतन्त्र कर दिया (पाटी से खोल दिया) तो काल रावण के दरबार में आकर हनुमानजी के बगल में खड़ा हो गया। रावण ने देखा काल तो मेरी पाटी से बंधा था यह यहाँ पर कैसे खड़ा हो गया। रावण ने हनुमानजी से कहा रे वानर देखते नहीं कि मृत्यु निकट आई खल तोहि । हनुमानजी को तो मालूम था कि काल तो हनुमानजी को धन्यवाद देने आया था। इस कारण रावण के बच्चे ने मुझे पाटी से बाँध दिया। बोले हनुमान् क्या करना है। रावण ने जब कहा तुझे दिखाई नहीं देता कि मृत्यु तेरे निकट आ गयी है, तो हनुमानजी ने कहा कि हाँ दिखाई दे रहा है परन्तु तू डर नहीं रहा है? मौत मेरे बगल में खड़ी है, मुझे डरने की आवश्यकता नहीं। बगल में तो मेरे खड़ी है लेकिन देख तेरी ओर रही है और मुझसे पूछ रही है कि अभी रावण का कुछ करना है ? तो काल हमेशा हनुमानजी के हाथ में रहता है। हनुमानजी ने कहा कि यह मौत मेरे लिए नहीं आई है, यह तेरे लिए आई है। गदा भी काल का स्वरूप है। एक हाथ में गदा और दूसरे हाथ में ध्वज है। बायें हाथ की गदा दुष्टों का संहार करती है। एक हाथ से हनुमानजी दुष्टों का संहार करते हैं और दूसरे हाथ से भक्तों को सम्भाला करते हैं। हनुमानजी के दोनों हाथों की यह विशेषता है। हनुमानजी की गदा दुष्टों को मारती है, संतों को सम्भालती है। काल हनुमानजी की मुट्ठी में है, काल से कोई बच नहीं सकता। जिसने जन्म लिया है उसका मरण भी निश्चित है जिसका जन्म है उसका मरण
भी है। लेकिन भक्तों की कभी मौत नहीं होती। भक्त तो केवल शरीर छोड़ते हैं। मैं एक कहानी सुना रहा हूँ
बुलकबुखारा करके एक स्थान है। संध्या के समय वहाँ के कोई एक जमींदार थे, बाजार में कुछ खरीदने गए
थे। कोई काली छाया उनके पीछे-पीछे चल रही थी। मुड़कर देखा तो बड़ी भयानक काली छाया उन्होंने देखी
और पूछा कि तुम कौन हो? बोली मैं काल हूँ, मैं मौत हूँ। जमींदार बोले तो मेरे पीछे क्यों लगी हो? तो छाया बोली तुम्हारा समय आ गया है। कल सांय पांच बजे मुझे तुमको लेने आना है। इसलिए मैं तुमको सचेत करने
आई हूँ कि ठीक समय पर जगह पर मिलना। इधर-उधर न चले जाना ताकि मुझे खोजना न पड़े। काल एकदम
नहीं आता, काल पहले सचेत करने आता है कि मैं अब लेने आनेवाला हूँ। अटैची तैयार कर लो जैसे ट्रेन में
बैठने से पहले घोषणा होती है कि इतने बजे ट्रेन आनेवाली है तो आप अपनी अटैची, थैला लेकर सावधान हो जाते हैं। ऐसे ही काल भी पहले सचेत करने आता है। अब पहले यदि एक हार्टअटैक हो गया था, डायबिटिज।आती है, ब्लडप्रेशर हो गया, सांस चढ़ने लगी, यह सब क्या है? काल के संकेत हैं कि कृपया सावधान हो जाओ। अपनी अटैची लगाना शुरू कर दो। अब गाड़ी स्टेशन पर आने वाली है और आपको अब गाड़ी में बैठना है। यह जो शरीर में रोग हैं यह संकेत हैं, ये लक्षण हैं। काल अपना संकेत देकर आता है वह कभी
धोखा नहीं देता। कृपया सावधान हो जाएं, अटैची लगाना शुरू कर दीजिए। अब गाड़ी स्टेशन पर आने वाली है। अब आपको गाड़ी में बैठना है। पहले यह जो शरीर में रोग हैं, ये संकेत हैं, ये लक्षण हैं। काल आपको
संकेत देकर आता है वह कभी धोखा नहीं देता। काल ही ऐसा है जो कभी किसी को धोखा नहीं देता और
काल को सब धोखा देना चाहते हैं। तो उस नवाब को कहा कि कल ठीक जगह रहना, मैं कहीं इधर-उधर
न भटकती रह जाऊँ। छाया तो गायब हो गयी अब यह बड़े नवाब के पास पहुंचे और बोला कि कल पांच
बजे मेरी मौत आएगी। कहा है कि इस जगह पर ही रहना। नवाब बोले तुम्हें यहीं तो खोजने आएगी। मेरे पास एक अरबी घोड़ा है। तुम इस पर सवारी करके दौड़ लगाकर चले जाओ। तुम इस राज्य की सीमा को छोड़कर दूसरे राज्य की सीमा में चले जाओ। वह इस राज्य में खोजेगी, तुम उससे बच जाओगे। यह उस घोड़े पर सवार हुआ और दौड़ लगाई। दौड़ते-दौड़ते अपना राज्य छूटा, दूसरा राज्य छूटा तो किसी तीसरे राज्य में पांच बजे के करीब एक बाग में पहुँचा। घोड़ा पसीने से लथपथ, पसीना पोंछा, घोड़े की पीठ थपथपाई और घोड़े
को एक पेड़ से बाँधा और उसको धन्यवाद दे रहा है कि वह आज तेरी कृपा से यहाँ तक आ गया। इतना ही बोला था कि वह काली छाया पीछे से आकर खड़ी हो गयी। काली छाया ने, मौत ने कहा कि धन्यवाद
तो घोड़े को मैं भी देना चाहती हूँ। बोले तू यहाँ, बोली हाँ, तू क्यों धन्यवाद देना चाहती है। मौत ने कहा जब
मैंने कल तुझे पाँच बजे बुलख के बाजार में देखा तो मैं चिन्तित हो गयी थी कि तुझे मरना तो इतनी दूर है।
कल सायंकाल तक तू कैसे वहाँ पहुंचेगा क्योंकि तेरी मौत यहाँ लिखी थी। मैं घोड़े को धन्यवाद देना चाहती
हूँ कि घोड़ा ठीक समय पर तुझे यहाँ ले आया और अब चलो। काल तो निश्चित है लेकिन काल भी जिनके हाथ में बँधा है ऐसे हैं श्रीहनुमानजी हनुमत वज्र, हनुमानजी
के हाथों में काल का अर्थ यह है कि मृत्यु तो शरीर की होगी लेकिन जो भगवान् के नाम में, कीर्तन में, कथा
में, यश में डूबे होंगे मौत उनकी बिगड़ती नहीं है बल्कि सुधर जाती है। भगवान् के नाम, संकीर्तन में जो अपनी
देह छोड़ते हैं काल उनको नहीं मारता वो कालजयी हो जाते हैं। आपने महाभारत में सुना होगा कि महाभारत में
प्रत्येक वीर यह चाहता है कि हम भगवान् श्रीकृष्ण के हाथ से मरें, प्रत्येक की इच्छा है कि हमको सुदर्शन मारे,
भगवान् के हाथ का जो शस्त्र है उसका नाम है सुदर्शन। सुदर्शन सबसे संहारक शस्त्र है। यानि एटमबम जितना
भयानक जो कभी खाली नहीं जाता। हमने एटमबम को सुदर्शन नहीं कहा। भगवान श्रीकृष्ण के हाथ की मौत को हमने सुदर्शन कहा है। कल्पना करिए जिनके हाथ की मृत्यु भी सुदर्शन होती हो उनके हाथ का जीवन कितना सुन्दर रहता होगा? महाभारत का हर योद्धा यह चाहता है कि भगवानकृष्ण हमको मारें, भगवान् के हाथ की मौत माने भगवान् के सुमिरन के साथ मौत। भगवान् ने जब रावण को मारा तो मंदोदरी ने भगवान् को उलाहना नहीं दिया। उलाहना तो अपने पति को दिया है। भगवान् को तो धन्यवाद दिया है-
जान्यो मनुज करि दनुज कानन दहन पावक हरि स्वयं ।
जेहि नमत शिव ब्रह्मादि सुरप्रिय भजेहु नहिं करुनामयं ।।आजन्म ते परद्रोह रत। पापौघमय तव तनु अयं ।
तुम्हहू दियो निज धाम | राम नमामि ब्रह्म निरामयं ।।
भगवान् के हाथ की मौत का अर्थ है कि हम भगवान् के सुमिरण में उनके भजन में, उनकी सेवा में मृत्यु का वरण करें। श्रीहनुमानजी के हाथ में काल है हम सब काल चक्र में फंसे हैं। श्रीहनुमानजी ने कालचक्र
को मारा है। श्रीहनुमानजी ने कालनेमि को मारा, नेमि माने चक्र। सारा जगत काल चक्र में फंसा है लेकिन
कालचक्र को भी श्रीहनुमानजी ठीक करते हैं। इसलिए कालचक्र से बचना है तो हनुमानजी की शरण में आइए ।
क्योंकि हनुमानजी के हृदय में-
हे भक्तो इनके हृदय में सियाराम की जोड़ी बैठी है।
यह राम दिवाना क्या कहना गुण गाये जमाना क्या कहना ॥
दुनिया में देव हजारों है बजरंग बली का क्या कहना।
इनकी शक्ति का क्या कहना इनकी भक्ति का क्या कहना ॥
दुनिया में देव हजारों हैं बजरंग बली का क्या कहना ।।
काल मुट्ठी में कैसे आ गया? उसका कारण है क्योंकि दूसरे हाथ में भगवान् के यश की ध्वजा रहती
है। जो भगवान् के यश की ध्वजा फहराते हैं, काल उनकी मुट्ठी में रहता है। इसलिए मैं निवेदन कर रहा था
कि भक्तों की कभी मौत नहीं होती। आखिर मीराबाई कहाँ मरी? तुलसीदास जी कहाँ मरे ? नरसी कहाँ मरे ?
आज तक घर-घर में जीवित हैं। सबकी साँसों में, वाणी में जीवित हैं। बड़े-बड़े राजे-महाराजे मरकर चले गए
कोई नाम भी नहीं जानता। राज राजा रहे ना वो रानी रही सिर्फ कहने को केवल कहानी रही। ना बुढ़ापा
रहा ना जवानी रही जिंदगी में हजारों के मेले लगे हँस जब जब उड़े तब अकेले उड़े। कोठी-बंगले खड़े के खड़े रह गए। हीरे पन्ने जड़े के जड़े रह गए। बचा कौन? जो राम नाम की भक्ति में डूब गए सो बचे। तो जिनके हाथ में भगवान् के नाम की यश की ध्वजा आ गयी, काल उसके दूसरे हाथ की मुट्ठी में बंद हो जाता है ऐसे श्रीहनुमानजी-हाथ बज्र औ ध्वजा बिराजै । काँधे मूँज जनेऊ साजै ॥ केकन्धे पर यज्ञोपवीत तप का प्रतीक है। यज्ञोपवीत हमारे यहाँ मर्यादा का प्रतीक माना गया है। आचरण की मर्यादा इसके लिए यज्ञोपवीत संस्कार जनेऊ हमारे कंधे पर रहता हैं। यह हमको हमारे ऊपर के भार व ऋण का स्मरण कराता है। माता-पिता की सेवा हमको करनी है इसकी याद दिलाता है। भगवान ने स्वयं कहा है-प्रातकाल उठि कै रघुनाथा । मातु पिता गुरु नावहिं माथा ।।
प्रभु तो जब तक यज्ञोपवीत संस्कार भी नहीं हुआ था तब से ही उसका पालन करते हैं। व्यवहार के
आचरण की मर्यादा का पालन मेरे प्रभु बिल्कुल बाल्यकाल से करते थे। मातृ देवो भवः, पितृ देवो भवः,
आचार्य देवो भवः, ये छात्रों को दिए गए सूत्र हैं ये तीनों प्रकार के ऋणों का सुमिरन कराते हैं। समाज का,
माता-पिता का और देवताओं का ऋण हमारे ऊपर है। माता-पिता ने जन्म दिया, लालन-पालन किया है, समाज ने हमको शिक्षा दी है, हमको सहयोग दिया, सुरक्षा दी और देवताओं के आशीर्वाद ने हमको जीवन दिया है। यश, वैभव, सुख, सम्पन्नता दी है। तीनों के ऋण का सुमिरन चौबीस घण्टे कन्धे पर यह भार प्रतिदिन हमको सुमिरन कराता है। शास्त्रों में वर्णन है।
कोई ढूँढ रहा प्रभु को वन में कोई घर में बैठा भजन करे।
कोई योग करे, कोई ध्यान धरे। कोई गंगा-यमुना स्नान करे। जिन मातु-पिता की सेवा की। तिन्ह तीरथ धाम कियो न कियो । उनको किसी तीर्थ यात्रा पर जाने की आवश्यकता नहीं, जिस पुत्र के सद्व्यवहार से, सचरित्र से, समर्पण से, सद्भाव से, सद्गुणों से, सत्कर्म से, और सेवा से माता-पिता का हृदय आनन्द से, प्रसन्नता से भर जाता हो, नेत्र डबडबा जाते हों, ऐसे पुत्र को किसी तीर्थ पर जाने की आवश्यकता नहीं। दुनिया के सारे तीर्थ उस
पुत्र की देहली पर आकर निवास करने लगते हैं। अरे माता-पिता की सेवा के बल से पुण्डरीक के दरवाजे पर
भगवान् बिठ्ठल नाथ आकर खड़े हो गए और आज तक खड़े हैं। जो माता-पिता की सेवा करते हैं भगवान् उनके द्वार पर पहरेदार बनकर खड़े हो जाते हैं। परिवार में कोई संकट नहीं आ सकता। आशीर्वाद कहीं मांगने
जाने की जरूरत नहीं, आशीर्वाद तीन जगह से मिलते हैं- माँ के चरणों से, पिता के चरणों से और गुरुदेव के चरणों से, इसलिए मैं निवेदन कर रहा हूँ कि माता-पिता को दुःख न दें। कृपया इतनी कृपा करें। जो पुत्र अपनी पत्नी और बच्चों के सामने अपनी माँ को अपशब्द बोलता है, मुँह बिगाड़कर, आँख निकालकर जब अपनी माँ को बोलता है, उस समय माँ को प्रसवकाल याद आता है वह सोचती है इसके लिए मैंने इतना कष्ट सहा था और माँ के कष्ट को देखकर भगवान् उन्हें क्षमा नहीं कर पाता। भगवान् अगर किसी अपराध को क्षमा करने में संकोच करते हैं तो वह माता-पिता के साथ किया गया दुर्व्यवहार है। सेवा मत करो, मत चादर बदलो, मत कपड़े बिछाओ, मत बिस्तर लगाओ, मत उनके झूठे बर्तन उठाओ, वह वृद्धाश्रम में रहने को मजबूर हों कृपया ऐसी परिस्थिति मत बनाओ। हमारे देश में तो वृद्ध माता-पिता, देवी और देवताओं की तरह पूजे जाते हैं। और जिस देश में वृद्धाश्रम में माता-पिता को अपना जीवन बिताना पड़े, कुड़कुड़ कर यदि मृत्यु के लिए वरण करना पड़े तो उससे बड़ा उस पुत्र के लिए पाप नहीं हो सकता है। किन मनौतियों के साथ उसका जन्म हुआ था, उसका लालन-पालन किया था इसलिए कि वृद्धावस्था में वह हमको वृद्धाश्रम में रहने को मजबूर करेगा, यह सबसे बड़ा पाप है। भगवान् स्वयं माँ की याद में रोया करते थे। मथुरा में रात्रि में महल की छत पर गोकुल की ओर मुँह करके प्रभु बहुत रोते थे। यशोदा माँ की याद सताती है। ऊधव को जब गोकुल भेजा तब ऊधव से कहा बाकी को तो ये पत्र जाकर देना लेकिन मेरी माँ से अकेले में कहना कि-
भैया मैया कूँ सुनइयो तेरौ लाला दुःख पावै।
कोई न मुख धौवे तत्ते जलअँचरन पूछि सम्हारे।।
माखन रोटी नाम न जानै कनुआ कहि मोहि कोउ न बुलावै ।
मैया को सुनइयो - भैया मैया कूँ सुनइयो तेरौ लाला दुःख पावै ॥
अरे भगवान् भी रोते हैं माँ के लिए। ये जीवित देव हैं, बाद में तो केवल चित्र देख-देखकर रोओगे।आप जरा अपने बारे में विचार करो। आपमें से कितने लोग ऐसे हैं जो अपनी माँ की चारपाई में बैठकर उसकी कुशल क्षेम पूछते हो। माँ कैसी हो, तबियत कैसी है? कुछ खाया पिया कि नहीं? आए और अपने बच्चों में मटर गस्ती करने लगे। बूढ़ी माँ बूढ़े पिता बाहर के कमरे में इंतजार कर रहे हैं कि शायद बेटा आए, शायद हमारी ओर देखे। जिन्होंने इतने लाड प्यार से पाला वह आज सिर्फ देखने को तरसते हैं, इससे बड़ा पाप क्या होगा ? तो ये त्रिसूत्र हमें याद दिलाता है जिन्होंने हमें जन्म दिया उनकी सेवा करो जिस समाज ने हमको सामर्थ्य दी है, सुरक्षा दी है, सहायता दी है, सब प्रकार का सहयोग दिया है, उस समाज के प्रति भी मेरा कोई दायित्व है। यह नहीं कि मेरा पूरा जीवन केवल हम दो हमारे दो के लिए है। केवल अपनी कोठी के आँगन।को, लॉन को बड़ा करने के लिए है। केवल अपना बैंक बैलेन्स कैसे बढ़े इस प्रयत्न के लिए है। अरे, जिस समाज में जन्मा हूँ, जिस समाज के कारण से आज मेरी पहचान है, मेरी सुरक्षा है, जिस समाज की रक्षा के लिए कितने लोगों ने बलिदान दिए हैं, कितने कितने बड़े-बड़े संघर्ष हुए, उस समाज को जीवित रखना, सुरक्षित रखना, सम्पन्न करना क्या उसके लिए मेरा कोई दायित्व नहीं बनता? मैं चौबीस घण्टे केवल अपने परिवार और सुख-वैभव में लगा रहा हूँ। घण्टे आधा घण्टे इस समाज की रक्षा, सुरक्षा, प्रतिष्ठा, समृद्धि, धर्म, मर्यादा के लिए मेरा कोई समय निकलता है। मैं इस समाज की सेवा के लिए कोई काम कर सकता हूँ क्या ? जो समाज-सेवा के कार्यों में लगे हैं मैं उनकी कोई मदद कर सकता हूँ, जो गरीब मलिन लोगों की सेवा में लगे हैं क्या मैं उनके लिए कुछ कर सकता हूँ? उनके बीच जाकर उनको पढ़ा सकता हूँ। अनेक प्रकार की सेवा के कार्य हो सकते हैं, अनेक प्रकार की सामाजिक संस्थाएं समाज सेवा के कार्य में लगी हैं। क्या उनके कन्धों के साथ मेरा भी कंधा जुड़ सकता है कि नहीं। उनके कदमों के साथ दो-चार कदम बढ़ाकर मैं भी चल सकता हूँ कि नहीं। मेरे भी हाथ समाज सेवा में लग सकते हैं कि नहीं। समाज के प्रति मेरा भी दायित्व है और देवऋण, ऋषिऋण, जिन्होंने ज्ञान दिया, विज्ञान दिया, जीवन दिया, सुख दिया, वैभव, सब कुछ जिन्होंने दिया है, देवताओं माने परमार्थ, पुण्य, सद्कर्म धर्म, संस्कृति, सब कुछ ये दैवीय कार्य हैं इनके मालिक देवता
हैं इनकी रक्षा के लिए, इनके संवर्धन के लिए, संरक्षण के लिए, धर्म के उद्घोष के लिए, गायों की रक्षा के
लिए, संस्कृति की सुरक्षा के लिए, राष्ट्र के गौरव के लिए ये सब दैवीय कार्य हैं। इनके लिए मैं कुछ करता
हूँ क्या? कभी मेरे आँगन में देवताओं को प्रसन्न करने के लिए बच्चों के साथ बैठकर छोटा सा यज्ञ करता हूँ क्या? क्या मैं वातावरण के प्रदूषण को कम करने के लिए कुछ सुगन्धित पुष्पों के पौधे लगा सकता हूँ? कुछ दान, पुण्य, धर्म, सतकर्म कुछ करता हूँ क्या? यह सब दैवीय कार्य हैं तो ये सब ऋण हमारे ऊपर हैं।श्रीहनुमानजी-
काँधे मूँज जनेऊ साजै ॥
एक मूँज घास है, खुरखुरी भी है, तीखी भी है। पहले तपस्वी मूँज का ही जनेऊ धारण करते थे। शायद
इसलिए करते थे कि हमेशा हमारे कन्धे को खुजलाती रहे हमको विस्मरण न हो जाए। समाज ऋण, देव ऋण,
ऋषि ऋण, पितृ ऋण ये विस्मृत न हो जाएं इसलिए हमारी गर्दन को हर समय खुजलाती रहे। हनुमानजी मूँज का जनेऊ इसलिए धारण करते हैं और दूसरा ब्रह्मचर्य का प्रतीक है, तपस्वी का प्रतीक है। हनुमानजी ब्रह्मचर्य के प्रतीक हैं। ब्रह्मचारी के दो अर्थ हैं एक तो ब्रह्मचारी माने जिसने शुक्र को स्खलन नहीं होने दिया। यह ब्रहमचर्य का एक श्रेष्ठ स्वरुप है। ऐसे बहुत से पहलवान हैं जिन्होंने अपने शुक्र का स्खलन नहीं होने दिया लेकिन वह।कोई ब्रह्मचारी नहीं माने जाते। ब्रह्मचर्य का अर्थ है जिसकी चर्या ब्रह्म जैसी हो। जो चौबीस घण्टे, प्रतिपल, प्रतिक्षण ब्रह्म की चर्या में डूबा है? हम ब्रहम की चर्चा तो करते हैं, लेकिन हम ब्रह्म की चर्या में नहीं डूबते । आप।वैष्णवों को पतित होते बहुत कम सुनेंगे। ज्ञानी का पतन होता है। भक्त का पतन नहीं होता है। भगवान ने गीता में भी घोषणा की है कि मेरे भक्त का पतन नहीं होता इसलिए वैष्णवों का भी पतन नहीं होता, क्यों? क्योंकि वैष्णव साधु सदैव भगवान् की सेवा में रहते हैं और जो चौबीस घण्टे सेवा में रत रहेगा वह विकृत नहीं हो सकता। उसका कभी पतन नहीं हो सकता। प्रातः काल से वैष्णव सेवा में प्रभु की कथा, जागरण, मंगला आरती करना है, स्नान कराना, श्रृंगार करना, फिर प्रातः काल की आरती करनी, भोग लगाना, शयन कराना, उत्थापन कराना फिर।संध्या आरती करनी है। यानि प्रातः काल से लेकर एक क्षण भी इधर-उधर नहीं चौबीस घण्टे मन भगवान् की सेवा में और सेवा से मन पवित्र होता है, शुद्ध होता है। शुद्ध, पवित्र मन में कभी विकार प्रवेश ही नहीं कर पाते हैं।इसी को ब्रह्मचर्या कहा है। इसी को भजन कहा है भजन क्रिया नहीं, भजन कोई ड्यूटी नहीं है। भजन एक जीवन जीने की शैली है। भजन जीवन की चर्या है। उठते-बैठते, सोते-जागते, चलते-फिरते भजन करना माने भगवान् में डूबे रहना, भजन करना माने भगवान् में जगना, उठना, बैठना, नहाना, खाना, चलना, पीना भगवान् के अतिरिक्त कुछ और है ही नहीं। हर श्वांस में उसी की धड़कन, उसी की यादें। अभी भगवान् हमको याद करने पड़ते हैं।
भगवान् सुमिरन में बने रहे। किसी ने बहुत अच्छा गाया है-
हर धड़कन में प्यास है तेरी, श्वांसों में तेरी खुशबू है।
इस धरती से उस अम्बर तक, मेरी नजर में तू ही तू है ।
प्यार ये टूटे ना, तू मुझसे रूठे ना, साथ ये छूटे कभी ना ।
तेरे बिना भी क्या जीना। साथी रे तेरे बिना भी क्या जीना। फूलों में कलियों में, सपनों की गलियों में ।
तेरे बिना कुछ कहीं ना, तेरे बिना भी क्या जीना ।।
तेरे बिना भी क्या जीना, साथी रे।
तेरे बिना भी क्या जीना ॥
हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम, हरे राम, राम राम हरे हरे ।।
जिसके बिना जीना व्यर्थ लगे, चौबीस घण्टे मन डुबाना न पड़े, डूब जाए जैसे बृज की गोपियां । आपने किसी गोपी को अलग से बैठे भजन करते नहीं देखा होगा। चौबीस घण्टे भजन में ही डूबी, मुरारी पादार्पित
चित्तवृत्ति उनकी चित्तवृत्ति भगवान के श्रीचरणों में ही डूब चुकी हैं। सुबह उठकर झाड़ू लगा रही हैं। श्रीकृष्ण
गोविन्द हरे मुरारी हे नाथ नारायण वासुदेव, गाय के नीचे से दूध निकाल रही है।श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे। हे नाथ नारायण वासुदेवाय ।रोटी बना रही हैं श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे, बालक को दूध पिला रही है श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेवा, पति की सेवा कर रही है श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेवा, घर के हर कार्य को करते समय श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेवा, गोपी की दशा क्या हो गयी, बल्लभाचार्यजी ने वर्णन किया है-
विक्रेतु कामा किल गोपकन्या । मुरारि पादार्पित चित्त वृत्ति ॥दध्याधिकं मोह वशाद् वोचत्। गोविन्द दामोदर माधवेति ।चौबीस घण्टे प्रतिपल प्रतिक्षण व्रज की गोपियाँ श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारी भजन अलग से नहीं किया जाता भजन में डूबना, भजन में रमना, भजन में खो जाना, भजन करना, माने भगवान् में डूब जाना, भगवान में बंध जाना, भगवान में रम जाना, भगवान से जुड़ जाना, भगवान् में विलीन हो जाना, भगवान् में खो जाना, उठते बैठते, जागते, खाते-पीते जैसे श्वांस लेनी नहीं पड़ती, श्वांस चलती रहती है वैसे ही सुमिरन करना न पड़े। सुमिरन चलता रहे। करना पड़ रहा है, इसका मतलब है कि अभी दूरी है चूंकि याद दूसरे की करनी
पड़ती है। अपना बेटा तो श्वाँसों में रहता है, अपना बेटा यादों में रहता है तो श्रीहनुमानजी भजन करते नहीं हैं
बल्कि भजन में रहते हैं। भजन करना और भजन में होना, श्वांस लेना और श्वांस चलना दोनों में अन्तर है।
श्वांस लेनी पड़ती है इसका मतलब है जुकाम है और जुकाम में सर में दर्द होता है और इसलिए जो भजन
करते हैं कई बार थकान लगती है, ऊब लगती है मन नहीं करता है कि भजन करें क्योंकि भजन करना पड़
रहा है। वह मुसीबत है। जो हो रहा है वह आनन्द है तो भजन हो यह ब्रह्मचर्य है। श्रीहनुमानजी सदैव ब्रह्मचारी
के वेश में रहते हैं। उनका बैठना, उठना, चलना सभी ब्रह्मचारी की तरह है। जिनके रोम-रोम में राम बसे हैं
ऐसे श्रीहनुमानजी और आचरण की दृष्टि से भी देखेंगे तो श्रीहनुमानजी ब्रह्मचारी हैं जिनकी कृपा भक्तों पर सदा ही बनी रहती है।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।
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