गुरुवार, 19 दिसंबर 2024

✓मानस चर्चा ।।हनुमानजी भाग तीन।। कृपासिंधु।

मानस चर्चा ।।हनुमानजी भाग तीन।। कृपासिंधु।।
बंदउँ गुरु पद पदुम परागा।सुरुचि सुबास सरस अनुरागा। अमिअ मूरिमय चूरन चारू । समन सकल भव रुज परिवारू ॥श्रीगुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिव्य दृष्टि हियँ होती ।।
मुझे ऐसा लगता है कि गोस्वामीजी ने अपने दीक्षा गुरु का यहाँ स्मरण किया है। कृपासिन्धु नर रूप हरि यह गुरुदेव का स्वरूप जो नर के रूप में साक्षात हरि हैं, नारायण हैं।  श्री गोस्वामीजी के गुरुदेव का नाम था नरहरिदास । गुरु वही है जो हमें भगवान् से मिलाता है। कई लोग कहते हैं कि जब सीधे ही भगवान् का भजन हो सकता है तो फिर गुरु को बीच में लाने की आवश्यकता ही क्या है? यह हमारा मन नहीं बोल रहा है बल्कि अहंकार बोल रहा है। चूंकि अहंकार किसी दूसरे को स्वीकार नहीं करना चाहता, अहंकार किसी के सामने भी झुकने को तैयार नहीं, इसलिए वह अनेक प्रकार के तर्क उठाता है कि गुरु की आवश्यकता क्या है? आज गुरु हैं ही कहाँ ? बन्धुओं, गुरुओं को मत खोजो अपने भीतर शिष्यत्व को खोजो इस दुनिया में ऐसे करोड़ों लोग हैं जो अभागे होकर जीते हैं और अभागे रहकर ही मर जाते हैं। अभागा कौन है ? अभागा वह है जिसके ऊपर गुरु की कृपा नहीं है। जिसको गुरु का आशीर्वाद नहीं मिला। वे ही अभागे रहने के लिए मजबूर हैं। मेरा निवेदन है कि यह मत खोजना कि गुरु कैसे हैं ? यह अपने भीतर खोजो कि मैं शिष्य कैसा हूँ ? ये हमारे गुरु होने लायक हैं या नहीं, चिन्तन यह मत करिए। मैं शिष्य बनने लायक हूँ या नहीं इसका चिंतन करें। अपने भीतर श्रद्धा का दर्शन करिए। दैन्यता का दर्शन करिए। दिव्यता का दर्शन करिए। क्योंकि परमात्मा तो सभी के भीतर ही विराजमान हैं। आखिर हमारे अन्दर सांस कौन ले रहा है? हमारी आंखों से देख कौन रहा है ? हमारे कानों से सुन कौन रहा है ? हमारे हाथों से क्रिया कौन करा रहा है ? हमारे कदमों से चल कौन रहा है ? हमारी नासिका से सूँघ कौन रहा है ? आखिर जो कुछ भी हमारे शरीर में क्रियाएं हो रही हैं, वह कर कौन रहा है ? जिस दिन वह सांस लेना बंद कर देगा, आप सांस ले पाओगे क्या ? ईश्वर तो प्रत्येक जीव के भीतर विराजमान है, लेकिन गुरुदेव उस अज्ञात ईश्वर का हमको अनुभव कराते हैं। चित्रकूट की घटना है, रामघाट पर गोस्वामी जी चन्दन घिस रहे हैं। कई दिन रोकर हनुमानजी से प्रार्थना कर चुके थे कि कभी मेरे हाथों से भी प्रभु को चन्दन लगवा दो। तब हनुमानजी ने कहा था एक दिन भगवान् तुमसे चन्दन लगाने की माँग लेकर आएंगे। गोस्वामी जी चन्दन घिस रहे हैं। भगवान् राम और लक्ष्मण बालक का रूप लेकर गोस्वामीजी के सामने खड़े हैं। बाबा हमको भी चन्दन लगा दो ना, सबको लगा रहे हो। बाबा बोले ! जाओ - जाओ तुम्हारे लिए नहीं है। भगवान् राम आएंगे उनके लिए है। राम सामने खड़े हैं और गोस्वामीजी कहते हैं राम आएंगे । भगवान् मुस्कुराए ! शबरी के द्वार पर भगवान् खड़े हैं शबरी पहचान नहीं पाई। भगवान् दरवाजा खोलो दरवाजा खोलो कहकर पुकारते हैं। उस समय गुरुदेव अपनी भूमिका प्रकट करते हैं। 'शबरी देख राम गृह आए' दर्शन कर। और वही भूमिका गोस्वामीजी के लिए श्रीहनुमान् ने की । तोते का वेश बनाकर एक पेड़ पर बैठकर बोल दिया हनुमानजी ने-
चित्रकूट के घाट पर, भई संतन की भीर ।
तुलसीदास चन्दन घिसें, तिलक देत रघुवीर ।।
तो गुरु ही अनुभव कराएगा। श्रीहनुमानजी स्वयं नहीं समझ पाए कि भगवान् आये हैं। किष्किन्धा काण्ड में, ऋष्यमूक पर्वत की तलहटी में प्रभु आ चुके हैं। हनुमानजी ने देख लिया कि कोई दो राजकुमार आए हैं। लेकिन पहचान नहीं पाए हैं सीधा प्रश्न किया- को तुम्ह स्यामल गौर सरीरा । छत्री रूप फिरहु बन बीरा ॥
कठिन भूमि कोमल पद गामी। कवन हेतु बिचरहु बन स्वामी ॥ मृदुल मनोहर सुंदर गाता । सहत दुसह बन आतप बाता ।। की तुम्ह तीनि देव महँ कोऊ । नर नारायण की तुम्ह दोऊ। जग कारन तारन भव, भंजन धरनी भार ॥ की तुम्ह अखिल भुवन पति, लीन्ह मनुज अवतार ।। श्री हनुमान जी ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी। भगवान् सम्मुख खड़े हैं और हनुमानजी पूछ रहे हैं कौन हो तुम ? नर-नारायण या जग कारन तारन या भव भंजन धरनी भार? कितने प्रश्न किए। प्रभु मुस्कुराए ! यहाँ हनुमानजी वेश बदलकर आए हैं अतः भगवान् ने थोड़ा भ्रम पैदा कर दिया। भगवान् ने सीधे उत्तर नहीं दिए। हनुमानजी ने जितने प्रश्न किए थे नर, नारायण, जग तारण जितने प्रश्न थे सब काट दिए, प्रश्नों को काटकर बिल्कुल उल्टा उत्तर दिया- कोसलेस दसरथ के जाये।हम पितु बचन मानि बन आए। नाम राम लछिमन दोउ भाई संग नारि सुकुमारि सुहाई ॥ इहाँ हरी निसिचर बैदेही । बिप्र फिरहिं हम खोजत तेही। आपन चरित कहा हम गाई।कहहु बिप्र निज कथा बुझाई।
हनुमानजी ने जितने प्रश्न किए थे भगवान श्रीराम ने सब प्रश्न काट दिए। भगवान् कहना चाहते हैं कि हम निराकार नहीं हैं। दशरथजी के पुत्र हैं, साकार हैं। जग कारण, तारण भव, हम जग के कारण से नहीं आए हैं किन्तु पिता की आज्ञा से आए हैं। पिता के कारण आए हैं। ब्रह्म तो व्यापक होता है लेकिन हमारी जानकीजी को कोई हरण करके ले गया है। हम तो उन्हें खोज रहे हैं, क्योंकि व्यापक को तो कोई वियोग नहीं होता। हम तो वियोग में घूम रहे हैं। लेकिन जैसे ही भगवानजी के श्रीमुख से निकला कौसलेस तो हनुमानजी को तुरन्त भगवान् के वरदान की याद आ गई कि कौसलेस के यहाँ तो मेरे प्रभु राम अवतार लेनेवाले हैं क्या वही भगवान् इस समय-
प्रभु पहिचानि परेउ गहि चरना। सो सुख उमा जाइ नहिं बरना ।। तुमने नाटक तो किया लेकिन बढ़िया नाटक नहीं किया तुम तो फेल हो गए। भगवान् ने कहा तुम ब्राह्मण बनकर आए लेकिन तुम ब्राह्मण थे नहीं। ठीक से ब्राह्मण बन भी नहीं पाए, ब्राह्मण की भूमिका तुम ठीक से निभा नहीं पाए। हनुमानजी ने पूछा कैसे नहीं निभा पाए ? बोले ब्राह्मण कभी क्षत्रिय को प्रणाम नहीं करता और हम क्षत्रिय वेश में थे तुमने आकर सिर झुकाकर हमको प्रणाम किया। तभी हम समझ गए थे कि तुम असली ब्राह्मण नहीं हो सकते। हनुमानजी ने कहा कि भगवान् यदि हम बनावटी ब्राह्मण थे, तो आप भी असली क्षत्रिय नहीं थे। क्षत्रिय रूप तो आपने बनाया था, आप असली क्षीत्रय नहीं थे।  आप असली क्षीत्रय नहीं थे। भगवान् ने कहा कैसे नहीं थे ? बोले क्षत्रिय तो हमेशा ब्राह्मण को देखकर वन्दना करता है, प्रणाम करता है लेकिन आपने जब ब्राह्मण को प्रणाम नहीं किया तो हम समझ गए कि आप असली क्षत्रिय नहीं हैं। आप तो क्षत्रिय का वेश लेकर आए हैं। दोनों का अविस्मरणीय रसमय वार्तालाप । तो कहने का अर्थ यह है कि ब्रह्म और जीव के बीच में गुरु होते हैं। जैसे वर और कन्या के बीच में पुरोहित होते हैं बन्धन के लिए, गठबन्धन (विवाह) के लिए । ऐसे ही जीव और ब्रह्म के बीच में जो गठबन्धन का कार्य करते हैं वो गुरु करते हैं जैसे माँ बालक का परिचय कराती है, देखो बेटा यह तुम्हारे पिताजी हैं, तुम्हारे दादाजी हैं, चाचाजी हैं, ऐसे ही गुरुदेव हैं जो जीव को भगवान् का परिचय कराते हैं उनका अनुभव कराते हैं, लेकिन हमारा अहंकार गुरु का दर्शन नहीं होने देता। कहाँ  हैं आज गुरु ? नहीं आज तो गुरु घण्टाल हैं और यह प्रश्न आज का नहीं यह प्रश्न हर युग में उठाया गया है। ऐसा नहीं है कि कलयुग का मनुष्य बहुत दुष्ट है और सतयुग का मनुष्य बहुत अच्छा रहा हो। मनुष्य की मनोस्थिति हर युग में एक जैसी है। गुरु का अर्थ है- गुरु माने किसी के हो जाना, किसी के चरणों में शीश झुकाना इतना ही अर्थ है मेरी बुद्धि में जो मेरे अनुसार चलती थी। हे गुरुदेव ! अब मैं इसको समर्पित करता हूँ, अब यह मेरी बुद्धि मेरे अनुसार नहीं चलेगी बल्कि आपके अनुसार चलेगी। इसे आप जैसे चलाएंगे वैसे चलेगी, आप जिधर ले जाएंगे वहीं जाएगी, आप जिधर बैठायेंगे उधर ही बैठेगी, सम्पूर्ण समर्पण।
जहाँ ले चलोगे वहीं मैं चलूँगा ।
जहाँ नाथ रखलोगे वहीं मैं रहूँगा ।
जहाँ ले चलोगे वहीं मैं चलूँगा ।।
ये जीवन समर्पित चरण में तुम्हारे ।
तुम्हीं मेरे सर्वस्व तुम्हीं प्राण प्यारे ॥
जो कुछ कहूंगा नाथ तुम्हीं से कहूँगा ।
जहाँ ले चलोगे वहीं मैं चलूँगा ।
न कोई उलाहना, न है कोई अर्जी ।
कर लो करा लो जो है तेरी मर्जी ।।
तुम जो कहोगे नाथ, वहीं मैं करूँगा।
जहाँ ले चलोगे, वहीं मैं चलूँगा ।।
जहाँ नाथ रख लोगे वहीं मैं रहूँगा ।
जहाँ ले चलोगे, वहीं मैं चलूँगा ।।
इसको समर्पण कहते हैं किसी के चरणों में गिर जाना। दण्डवत का क्या अर्थ है? बिना विचारे किसी के चरणों में एकदम गिर जाना या समर्पित हो जाना। यह जीवन जीने की दृष्टि है- पाहि नाथ कहि पाहि गौसाईं । भूतल परे लकुट की नाईं। चित्रकूट में श्रीभरतजी इसी क्रम से गिरे। दौड़कर प्रभु श्रीराम गए और बरबस उठा लिया। बरबस कैसे- उठे रामु सुनि प्रेम अधीरा।कहुँ पट कहुँ निषंग धनु तीरा ॥ बरबस लिये उठाइ उर लाए कृपानिधान ।।
और जो इस प्रकार से गिरता है उसको उठाने के लिए भगवान् तथा सद्गुरु अधीर होकर उठाते हैं। जो उठा सके उसी के चरणों में गिरना । लोग तो तरह तरह से गिराने की कोशिश करते हैं। सद्गुरु हमको उठा लेते हैं। जो गिरे को खड़ा कर दे वही सतगुरु है।जो हमारे भीतर से हीन भावना को निकालकर गौरव के भाव भर दे वही सद्गुरु है। ऐसे गुरु के चरणों को गोस्वामीजी कमल के समान कहते हैं। बन्दउँ गुरु पद पदुम परागा।सुरुचि सुबास सरस अनुरागा। कमल जल में रहकर भी हमेशा जल से ऊपर रहता है तटस्थ बिल्कल निर्लिप्त निर्लेप। गुरु देह से तो हमारे जैसे होते हैं लेकिन जैसा हम देख और समझ रहे हैं वैसे वो होते नहीं। देह तो सभी की एक जैसी होती है लेकिन आत्मा सबकी एक जैसी नहीं होती।मन सबका एक जैसा, हृदय सबका एक जैसा नहीं होता। गुरु मनुष्यत्व और देवत्व की सीमा पर स्थित है। कई बार हम अपनी शैक्षिक योग्यता से गुरु की योग्यता नापते हैं। किन्तु मस्तिष्क से हृदय नहीं नापा जा सकता। गुरु उसके बहुत ऊपर हैं । इसके लिए तर्क की बुद्धि नहीं चाहिए, इसके लिए श्रद्धा से डबडबाते नेत्र चाहिए। झुका हुआ शीश चाहिए। सीधी बात बोलूं, गुरु के अन्दर कुछ भी  दिखाई  नहीं देगा, आपको जो भी दिखाई देगा अपने भीतर  ही दिखाई देगा। जैसे सिनेमा के पर्दे पर जो कुछ दिखाई देता है वह पर्दे पर नहीं होता। जो कुछ भी होता है वह प्रोजेक्टर में होता है। प्रोजेक्टर में जो भरा है, पर्दे पर वह दिखाई देता है। आपके भीतर श्रद्धा भरी है तो गुरु के अन्दर आपको देवत्व का दर्शन होगा। आपके भीतर कुतर्क और अहंकार भरा है तो गुरु के भीतर आपको कुछ और दिखाई देगा। इसलिए श्रद्धा के डबडबाते नयनों द्वारा गुरु का दर्शन होगा। जे श्रद्धा संबल रहित, नहिं संतन कर साथ। तिन्ह कहुँ मानस अगम अति, जिन्हहि न प्रिय रघुनाथ ।। आइए समझते है कि गुरु और हममें अन्तर क्या होता है। जो अन्तर नरेन्द्र और विवेकानन्द में है। जो अन्तर मूलशंकर और महर्षि दयानन्द में है। वही अन्तर हमारे और गुरु में है। हम कई बार विवेकानन्द में नरेन्द्र को खोजते रहते हैं। और मैं निवेदन करता हूँ कि कभी भी, किसी भी महापुरुष से उनके भूत में मत मिलिए।वर्तमान में मिलिए। भूत में वह आप सा ही रहा होगा या आप से भी और ज्यादा गया गुजरा रहा होगा। लेकिन वर्तमान में वह किस स्थान पर बैठा है वहाँ तक हमारी पहुँच तो हो ही नहीं सकती। हम देख भी नहीं सकते।आप अगर वर्तमान में मिलेंगे तो आपको गुरु का दर्शन होगा। अगर आप उनसे भूत में मिलेंगे तो वह तो ऐसे थे, वैसे थे, यही सब याद आएगा। कभी भी उसमें सत्पुरुष का, देवत्व का दर्शन हो ही नहीं पाएगा। हम नरेन्द्र में विवेकानन्द का दर्शन करें। लेकिन कई बार हम विवेकानन्द में नरेन्द्र को खोजने लग जाते हैं, शरीर का धर्म तो सबका एक सा ही होता है। गुरु शरीर से नहीं जीता वह आत्मा से जीता है और इसे समझने के लिए खोपड़ी से निकलकर चरणों में आना पड़ेगा। अगर अहंकार में खोपड़ी के बल खड़े रहेंगे तो खड़े-खड़े थक जाओगे। अगर विश्राम चाहते हो तो किसी वट वृक्ष की शीतल छाया में आकर बैठ जाओ और वट तो विश्वास का प्रतीक है। बटु बिश्वास अचल निज धरमा।तीरथराज समाज सुकरमा । जिसके चरणों में बैठे हैं उसके प्रति अटल विश्वास, अगाध श्रद्धा चाहिए, तब कहीं गुरु का दर्शन होगा। तब कहीं हमें भगवान् की अनुभूति होगी। और अगर किसी बड़े पेड़ की छाया में बैठोगे तो बैठते ही राहत मिलेगी। वृक्ष आपके बैठने से छाया नहीं देते वे तो छाया देते ही हैं। आप बैठेंगे तो अनुभव होगा । दूर अकड़कर खड़े रहोगे तो तपते रहोगे। अगर आपको छांव चाहिए तो सद्गुरु के चरणों में आइये। अगर आनन्द चाहते हो तो अन्नत आनन्द के सागर के किनारे आईये। जो आनन्द सिन्धु सुखरासी। सीकर तें त्रैलोक सुपासी ॥सो सुख धाम राम अस नामा अखिल लोक दायक बिश्रामा।। ऐसे आनन्दकंद प्रभु की कृपा के स्रोत हैं श्री हनुमानजी अतः हम श्री हनुमानजी के सानिध्य में रहे और अपना मनोवांछित प्राप्त करें ।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें

सदस्यता लें टिप्पणियाँ भेजें [Atom]

<< मुख्यपृष्ठ