मानस चर्चा।। विश्वामित्र।।
मानस चर्चा।। विश्वामित्र।।
बिस्वामित्र महामुनि ज्ञानी । बसहिं बिपिन सुभ आश्रम जानी ॥
महामुनि और महाज्ञानी विश्वामित्रजी(सिद्धाश्रमको) शुभ आश्रम जानकर वनमें निवास करते हैं ॥ आइए आज मानस चर्चा में इस पंक्ति के एक एक शब्दों के आधार पर विश्वामित्र जी की सम्पूर्ण कथामृत का रसास्वादन करते हैं। विश्वामित्र 'महामुनि ज्ञानी' अर्थात् ये समस्त मुनियोंमें और समस्त ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ हैं। 'महामुनि' कहा, क्योंकि तपस्याके बलसे क्षत्रियसे ब्राह्मण हुए, ऐसा कोई दूसरा नहीं हुआ। कहा गया है कि - 'मुनि मन अगम गाधिसुत करनी । मुदित बसिष्ठ बिपुल बिधि बरनी ॥' 'विश्वामित्र (नाम), महामुनि और ज्ञानी ये तीनों पद सहेतुक और परस्पर एक-एक के भावको पुष्ट कर रहे हैं। विश्वामित्र - विश्व + अमित्र । अर्थात् आपके सत्संगसे संसारका अभाव हो जाता है। या यों कहे कि आपने संसारके पदार्थोंको नश्वर समझ उनसे ममत्व हटा लिया है। या संसारको शत्रु समझकर आपने अपने अनादिकालके परममित्र श्रीरामजीकी खोज की, ऋषियोंके आचरण स्वीकार किये। आगे 'महामुनि' कहा। वेद-शास्त्रके तत्त्वके पारदर्शीको 'मुनि' कहते हैं और जो उस तत्त्वका स्वरूप ही बनकर तदाकार हो जाय वह 'महामुनि' है । तत्त्वका रूप होनेसे 'ज्ञानी' कहा। इन तीनों के गुणोंसे संयुक्त हैं, इसीसे तो यह जानते थे कि यह आश्रम शुभ है।' 'ज्ञानी' विशेषण दिया गया, क्योंकि इन्होंने अपने आश्रम से ही प्रभुका प्रादुर्भाव जान लिया। विश्वामित्र 'बसहिं बिपिन सुभ आश्रम जानी।' इस वनका नाम 'चरितवन' है। पुनः, आश्रम तो बस्ती
आदिमें भी रहता है, परंतु वहाँ उपाधि भी रहती है। निरुपाधिके विचारसे 'बिपिन' कहा और विपिनमें निवास
कहकर वैराग्य दिखाया।' सुभ आश्रम जानी' इति । 'शुभ' का भाव यह कि यहाँ अनुष्ठान शीघ्र सिद्ध होते हैं, यह आश्रम सिद्धपीठ है, परब्रह्मपरमात्मा श्रीरामजी इसे अपने चरणकमलोंसे पवित्र और सुशोभित करेंगे। इस आश्रमका नाम सिद्धाश्रम है, जो गंगाजीके दक्षिण तटपर स्थित है और आजकल 'बक्सर' नामसे बिहार- प्रान्तमें प्रसिद्ध है। पुनः, 'शुभ' का भाव कि आश्रम 'परमपावन' है।' सब मुनि शुभ अर्थात् परमपावन आश्रम जानकर ही बसा करते हैं; इसीसे ऋषियोंके आश्रमोंको यह (परमपावन) विशेषण दिया जाता है; यथा-
'भरद्वाज आश्रम अति पावन,' 'देखि परम पावन तव आश्रम । गयउ मोह संसय नाना भ्रम ॥' 'तीरथ बर नैमिष बिख्याता। अति पुनीत साधक सिधिदाता ॥ बसहिं तहाँ मुनि सिद्ध समाजा।' इत्यादि । यह आश्रम गंगातटपर चण्डीदेवीके स्थानके पास है। श्री अयोध्याजीसे ६४ कोश पर माना जाता है। इस आश्रमपर महातपस्वी विष्णु भगवान्ने सैकड़ों युगोंतक तपस्या करनेके लिये निवास किया था और वामन भगवान्का यह पूर्वाश्रम है। महातपस्वी विष्णु यहीं सिद्ध हुए थे । अतः इसका नाम सिद्धाश्रम है । यथा-
'इह राम महाबाहो विष्णुर्देवनमस्कृतः । वर्षाणि सुबहूनीह तथा युगशतानि च ॥ तपश्चरणयोगार्थमुवास सुमहातपाः ।
एष पूर्वाश्रमो राम वामनस्य महात्मनः ॥ सिद्धाश्रम इति ख्यातः सिद्धो ह्यत्र महातपाः ।'अतः'सुभ आश्रम जानी' कहा। ऐसा जानकर ही विश्वामित्रजी यहाँ यज्ञ करनेके लिये कौशिकीतट छोड़कर आये थे । विश्वामित्रजी ने श्रीरामजी से यह भी कहा है कि महात्मा वामनने यहाँ निवास किया। उनके प्रति मेरी भक्ति होनेसे मैं वहाँ रहता हूँ - ' मयापि भक्त्या तस्यैष वामनस्योपभुज्यते । अतः 'सुभ जानी' कहा।
' विश्वामित्रजीने श्रीरामजीके पूछनेपर बताया है कि 'ब्रह्मपुत्र राजा कुशके चार पुत्रों में से 'कुशनाभ' दूसरा पुत्र था। राजा कुशनाभने पुत्रप्राप्तिके लिये पुत्रेष्टि यज्ञ किया, जिसके फलस्वरूप 'गाधि' नामका परम धार्मिक पुत्र पैदा हुआ । यही महात्मा गाधि मेरे पिता हैं। कुशवंशमें उत्पन्न होनेसे 'कौशिक' कहा जाता हूँ । मेरी बड़ी बहिनका नाम 'सत्यवती' था जिसे कौशिकी भी कहते है, जो महर्षि ऋचीकको ब्याही गयी थी, जो इस शरीरसे ही स्वर्गको गयी और उसके नामसे कौशिकी नामकी एक महानदी बही। इसीसे मैं हिमवान्की तराईमें उसके तटपर सुख पूर्वक निवास करता हूँ। यज्ञ करनेके लिये मैं वहाँसे यहाँ सिद्धाश्रममें आया और तुम्हारे पराक्रमसे मुझे सिद्धि मिली । - ' अहं हि नियमाद्राम हित्वा तां समुपागतः । सिद्धाश्रममनुप्राप्तः सिद्धोऽस्मि तव तेजसा ॥' इनका नाम 'विश्वरथ' था। ब्रह्म ऋषित्व प्राप्त होनेपर 'विश्वामित्र' नाम हुआ । इनके जन्मकी कथा इस प्रकार है- एक बार श्रीसत्यवतीजी और उनकी माताने श्रीऋचीकजीके पास पुत्रकामनासे जाकर उसके लिये प्रार्थना की। ऋषिने दो प्रकारके मन्त्रोंसे चरुको सिद्ध करके उनको बताकर कि अमुक चरु तुम (सत्यवती) खा लेना और अमुक तुम्हारी माता खा लेगी । यह कहकर वे स्नानको चले गये । माताने सत्यवती के चरुको श्रेष्ठ समझकर उससे उसका चरु माँग लिया और अपना उसको दे दिया ।
यथा - ' स ऋषिः प्रार्थितः पल्या श्वश्र्वा चापत्यकाम्यया । श्रपयित्वोभयैर्मन्त्रैश्चरुं स्नातुं गतो मुनिः ॥ तावत्सत्यवती
मात्रा स्वचरुं याचिता सती । श्रेष्ठं मत्वा तयाऽयच्छन्मात्रे मातुरदत्स्वयम् ॥'
विष्णुपुराण में इसको और स्पष्ट करके लिखा है कि 'ऋचीकजीने दो चरु सत्यवतीको दिये और बता दिया कि यह तुम्हारे लिये है और यह तुम्हारी माँके लिये। इनका तुम यथोचित उपयोग करना' यह कहकर वे वनको चले गये । उपयोग करनेके समय माताने कहा - ' बेटी! सभी लोग अपने ही लिये सबसे अधिक गुणवान् पुत्र चाहते हैं, अपनी पत्नीके भाईके गुणोंमें किसीकी भी विशेष रुचि नहीं होती। अतः तू अपना चरु मुझे दे दे और मेरा तू ले ले, क्योंकि मेरे पुत्रको तो सम्पूर्ण भूमण्डलका पालन करना होगा और ब्राह्मणकुमारको तो बल वीर्य तथा सम्पति आदि से लेना ही क्या है ? ऐसा कहनेपर सत्यवतीने अपना चरु माताको दे दिया ।
यथा—‘पुत्रि सर्वं एवात्मपुत्रमतिगुणमभिलषति नात्मजायाभ्रातृगुणेष्वतीवादृतो भवतीति ॥ अतोऽर्हसि ममात्मीयं चरुं दातुं मदीयं चरुमात्मनोपयोक्तुम् ॥ मत्पुत्रेण हि सकलभूमण्डलपरिपालनं कार्यं कियद्वा ब्राह्मणस्य
बलवीर्यसम्पदेत्युक्ता सा स्वचरुं मात्रे दत्तवती ॥
जब ऋषिको यह बात ज्ञात हुई तब उन्होंने अपनी पत्नीसे कहा कि तुमने यह बड़ा अनुचित किया। ऐसा हो जानेसे अब तुम्हारा पुत्र घोर योद्धा होगा और तुम्हारा भाई ब्रह्मवेत्ता होगा। सत्यवतीके बहुत प्रार्थना करनेपर कि
मेरा पुत्र ऐसा न हो, उन्होंने कहा कि अच्छा, पुत्र तो वैसा न होगा किंतु पौत्र उस स्वभावका होगा। राजा गाधिकी
स्त्रीने जो चरु खाया उसके प्रभावसे विश्वामित्रजी हुए, जो क्षत्रिय होते हुए भी तपस्वी और ब्रह्मर्षि हुए।इनके सौ पुत्र हुए। इससे इनके कौशिकवंशकी बहुत अधिक वृद्धि हुई। ये बड़े क्रोधी थे। शाप दे दिया करते थे। राजा हरिश्चन्द्रके सत्यकी सुप्रसिद्ध परीक्षा लेनेवाले भी यही हैं। ऋग्वेदके अनेक मन्त्र ऐसे हैं जिनके द्रष्टा ये या इनके वंशज माने जाते हैं। ब्रह्मगायत्रीके ये ऋषि हुए। ये बड़े तेजस्वी हुए । इन्होंने तपके प्रभावसे क्षत्रियत्वको छोड़कर ब्राह्मणत्व प्राप्त किया। इसकी कथा यों है कि एक बार ये बड़ी सेना लेकर शिकारको गये । मार्ग में वसिष्ठजीके आश्रमपर ठहरे। मुनिके पास एक कामधेनु थी, जिसकी सहायतासे उन्होंने राजाका सेनासहित बड़ा आदर-सत्कार किया। विश्वामित्रको जब यह मालूम हुआ तो उन्होंने वह गऊ उनसे माँगी। देना स्वीकार न करनेपर राजा उसे बलात् ले जाने लगे; परन्तु इसमें वे सफल न हुए। फिर बड़ी भारी सेना लाकर उन्होंने उसे छीनना चाहा, पर उनकी सब सेना और 99 पुत्र ब्रह्मर्षि वशिष्ठ के एक ब्रह्म दण्ड से ही मारे गए जैसा कि कहा गया है__
धिग्बलं क्षत्रिय बलं , ब्रह्म तेजो बलम बलम् ।
एकेन ब्रह्म दण्डेन , सर्व शस्त्राणि हतानि मे।।
एक पुत्र बचा उसे राज्य दे इन्होंने कठिन तपस्या करके शिवजीसे अस्त्र-शस्त्र प्राप्त किये और उनके बलपर फिर वसिष्ठजीसे गऊ छीनने आये, परंतु इनके ब्रह्मदण्डके आगे उन सब अस्त्र-शस्त्रोंका तेज पुनः नष्ट हो गया। लज्जित होकर ब्रह्मत्व प्राप्त करनेके उद्देश्यसे इन्होंने कठिन तप किये। ब्रह्मादि देवताओंने इन्हें तब ब्रह्मर्षि पद दिया ।
ये रहे बिस्वामित्र महामुनि ज्ञानी । जो बसहिं बिपिन सुभ आश्रम जानी ॥
।। जय श्री राम जय हनुमान।।
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