बुधवार, 11 दिसंबर 2024

मानस चर्चा।। राष्ट्र भक्ति की प्रेरणा यहां है।।

मानस चर्चा।। राष्ट्र भक्ति की प्रेरणा यहां है।।
अति आदर दोउ तनय बोलाए । हृदय लाइ बहु भाँति सिखाए ॥ 
मेरे प्रान नाथ सुत दोऊ।तुम्ह मुनि पिता आन नहिं कोऊ।। 
राजा दशरथ ने अत्यन्त आदरसे दोनों पुत्रोंको बुलाया और हृदयसे लगाकर बहुत प्रकारसे उनको शिक्षा दी ॥  ( फिर मुनिसे बोले ) हे नाथ! ये दोनों पुत्र मेरे प्राण एवं प्राणनाथ हैं। हे मुनि! (अब)आप ही इनके पिता ( अर्थात् रक्षा करनेवाले ) हैं और कोई ( इनकी रक्षा करनेवाला अब ) नहीं है (वा, आप और कुछ नहीं हैं, पिता ही हैं ) ॥ यह प्रसंग महाकाव्यकलाकी दृष्टिसे बड़े महत्त्वका है। महाकाव्यकलाके तीन विभाग होते हैं - १ आध्यात्मिक, २ आधिदैविक, ३ आधिभौतिक (सृष्टीय)। रामचरितमानसमें तीनोंका वर्णन है; परंतु प्रथमका संकेतमात्ररूपमें कथन 'नामकी महिमा - प्रसंगमें' है। उदाहरणके तौरपर देखिये- 'राम एक तापस तिय तारी । नाम कोटि खल कुमति सुधारी ॥' (मानो अहल्या हमारी पत्थर बनी हुई जड़ मति ही है। विनयमें भी कहा है — 'सहससिला ते अति जड़ मति भई है ') पुन:, 'भंजेड राम आप भवचापू। भवभयभंजन नाम प्रतापू॥' (मानो धनुष 'भवभय' ही है।) दूसरा पक्ष (आधिदैविक) तो बहुत ही स्पष्ट लिखा हुआ है और आधिभौतिक पक्ष भी कम नहीं। केवल अन्तर यह है कि नारदजीने वाल्मीकीयकी मूल कथा ब्रह्मलोकमें कही थी, जहाँ सब आधिदैविक रूप जानते थे और इसलिये यह जाननेको उत्कण्ठित थे कि नटराजने आधिभौतिकरूप 'काँछकर' कैसा नाचा । इसीलिये वहाँ आधिभौतिक रूपका ही अधिक वर्णन है, परन्तु तुलसीदासजीकी कथाका मूल शिव-पार्वती-संवाद है। जहाँ आधिभौतिक नाच देखकर ही सन्देह वा भ्रम उत्पन्न हुआ था और पार्वतीजी आधिदैविक रहस्य जानना चाहती थीं।
इसी कारण से इसी पक्षपर जोर है। विस्तारसे 'रामचरितमानस एक नाटक ही है जो महाकाव्य' रूप में लिखा गया है।  यहाँ इस प्रसंगका राष्ट्रीय रूप है, जो बड़ा ही शिक्षाप्रद है १- विश्वामित्र वह ब्रह्मशक्ति है जो सारे
विश्वका कल्याण चाहती है परन्तु स्वयं बलका प्रयोग नहीं करती। २ - वह  क्षात्रशक्तिसे याचना करती है कि विश्व - विघ्ननिवारणके लिये बलका प्रयोग करे। ३- राष्ट्रके लिये इन दोनों ही क्या, सभी श्रेणीकी शक्तियोंका
सहयोग होना चाहिये । - परशुरामके विश्वनेतृत्वमें श्रेणीयुद्ध था, इसीसे रावणकी अनार्यशक्ति बढ़ रही थी। रामके नेतृत्व में परस्पर सहयोग हुआ। (राष्ट्रीय नेता इस कथानक पर जरूर बार बार  विचार करें।) ४ - राष्ट्रकी युवकशक्ति के प्रतिनिधि ही राम और लक्ष्मण हैं, जिनको 'स्वयं सेवक' के रूपमें माँगा गया। ५ - लेकिन माँगा गया पिता से ही यह नहीं किया गया कि 'पिता, माता और गुरु' की आज्ञाका अवलंघन कराया जावे। देखिये न, हमारे देशमें युवा शक्ति अब कितनी अमर्यादित हो रही है कि राष्ट्रीय नेताओं का भी कहना नहीं मानती।यह आज्ञा-भंग शिक्षा का दुष्परिणाम है। महाराज दशरथ जी राष्ट्र की वृद्ध 'पिता' शक्ति के प्रतिनिधि हैं, जो मोह के कारण युवा शक्तिका दान नहीं करना चाहती। वसिष्ठ जी उस शिक्षा शक्ति के प्रतिनिधि हैं, जो राष्ट्र के बसाने में इष्ट है और ठीक उपदेश देकर युवा शक्तिका दान राष्ट्र के कल्याण के लिये कराती है। 'बल', 'विवेक', 'दम' और 'परहित' का सुन्दर प्रयोग होकर ही राष्ट्रका रथ आगे बढ़ता है और ताड़का- सुबाहुरूप आसुरी - शक्तिका निवारण होता है। राष्ट्र और गृहस्थीकी मर्यादा भी बनी रही और काम भी बन गया।यह है राष्ट्र भक्ति का मर्यादा पूर्वक पालन भी होता है।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

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