मानस चर्चा।।बिप्र चरन।।
मानस चर्चा।।बिप्र चरन।।
उर मनिहार पदिक की सोभा । बिप्र चरन देखत मन
लोभा ॥
'बिप्र चरन देखत मन लोभा' इति । विप्रचरण आभूषणकी तरह शोभित है,इसीसे आभूषण - वर्णनके बीचमें विप्रचरणको भी वर्णन किया । [ यह चिह्न भगवान्के वक्षःस्थलकी कोमलता और हृदयकी क्षमाको प्रकट कर रहा है। ऐसा कोमल है कि उसपर भृगुजीके चरणका चिह्न आजतक विराजमान है। 'उर बिसाल भृगु चरन चारु अति सूचत कोमलताई ।भगवान् क्षमाशील ऐसे हैं कि उलटे अपना ही अपराध मान लिया। भृगुजीने सबकी परीक्षा ली पर क्षमावान् एक आप ही ठहरे। भृगुचरण देखकर स्मरण हो आताहै कि 'ऐसा क्षमावान् स्वामी दूसरा कौन है ?' कोई भी तो नहीं, बस, यह स्मरण होते ही मन लुब्ध हो जाता है कि उपासनायोग्य ये ही हैं। इसीसे 'देखत मन लोभा' कहा
'बिप्र चरन' 'भृगुचरण' के सम्बन्धमें श्रीमद्भागवत में यह कथा है कि एक समय जब सरस्वती नदीके तटपर ऋषिगण एकत्र हो यज्ञ कर रहे थे तब वहीं यह तर्क
उपस्थित हुआ कि 'त्रिदेवमेंसे कौन श्रेष्ठ है ?' जब वे आपसमें निर्णय न कर सके तब समाजने ब्रह्माके
पुत्र महर्षि भृगुको इस विषयकी परीक्षा करनेके लिये भेजा। वे प्रथम ब्रह्मलोक ब्रह्माकी सभामें गये और
उनके सत्त्वकी परीक्षाके लिये उनको दण्डप्रणाम स्तुति न की । पुत्रकी इस धृष्टतापर ब्रह्माजी अत्यन्त कुपित
हुए । तब मुनि कैलाशको गये। श्रीशिवजी भाईसे मिलनेको आनन्दपूर्वक उठे, परन्तु उन्होंने यह कहकर
कि 'तुम कुमार्गगामी हो, मैं तुमसे नहीं मिलना चाहता' उनका तिरस्कार किया। इसपर शिवजीने अत्यन्त
कुपित हो उनपर त्रिशूल उठाया, परन्तु जगदम्बा श्रीपार्वतीजीने उनको शान्त कर दिया । वहाँसे चलकर ऋषि वैकुण्ठ पहुँचे जहाँ देव जनार्दन श्रीजीकी गोदमें लेटे थे। भगवान्को लक्ष्मीकी गोदमें सिर रखे हुए शयन
करते देख भृगुजीने उनकी छातीमें एक लात मारी। भगवान् तुरत लक्ष्मीसहित पर्यंकपरसे उतर मुनिको
प्रणामकर कोमल मीठी वाणीसे बोले – 'ब्रह्मन् ! आपको आनेमें कोई कष्ट तो नहीं हुआ? पर्यंकपर विराजिये, विश्राम कर लीजिये। प्रभो ! मैंने आपका आगमन न जाना, मेरे अपराधको क्षमा कीजिये । भगवन् ! आपके कोमल चरणोंमें मेरे कठोर वक्षःस्थलसे चोट लग गयी होगी ( कहनेके साथ ही उनके चरणको सहलाने लगे) और बोले कि हे ब्राह्मण श्रेष्ठ कृपया - तीर्थोंको भी पावन करनेवाले अपने चरणामृतसे हमें पवित्र कीजिये। मेरे लोकके सहित
मुझे तथा मुझमें स्थित लोकपालोंको पवित्र कीजिये – 'पुनीहि सहलोकं मां लोकपालांश्च मद्गतान् । पादोदकेन
भवतस्तीर्थानां तीर्थकारिणा ॥ यह आपका चरण चिह्न शोभाका एकमात्र आश्रय है, इसे मैं सदैव आभूषणवत् धारण किये रहूँगा । भृगुजी अवाक् रह गये । उनका हृदय भर आया और नेत्रोंसे प्रेमानन्दाश्रु बहने लगे। लौटकर भृगुजीने सब वृत्तान्त और अपना अनुभव ऋषिसमाजको सुनाया। इस प्रकार त्रिदेवों में सर्वश्रेष्ठ विष्णु ही है यह सिद्धान्त स्थित करके सब उन्हीं सत्यमूर्तिका भजन करने लगे ।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।
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