बुधवार, 11 दिसंबर 2024

मानस चर्चा।।वीरता और राम।।

मानस चर्चा।।वीरता और राम।।
पुरुषसिंह दोउ बीर हरषि चले मुनि भयहरन ।
कृपासिंधु मति धीर अखिल बिस्व कारन करन ॥ 
पुरुषोंमें सिंहरूप अर्थात् श्रेष्ठ, कृपाके समुद्र, धीर-बुद्धि, समस्त ब्रह्माण्डोंके कारण और करण एवं कारणके भी कारण दोनों वीर भाई मुनिका भय दूर करनेके लिये हर्ष-
(प्रसन्नता और उत्साह ) पूर्वक चले ॥  'साँपे भूप रिषिहि सुत । राजा मुनिसे कह चुके कि 'तुम्ह मुनि पिता आन
नहिं कोऊ'  जो वस्तु जिसकी होती है, उसीको सौंपी जाती । मुनि इनके पिता हैं, अतः ये उनके हवाले कर दिये गये । पुनः 'सौंपे से जनाया कि पुत्रोंका हाथ पकड़कर मुनिके हाथमें पकड़ा दिया। 
राजाने साथमें सेना या रक्षक कुछ नहीं दिये, केवल आशीर्वाद दिया। उन्होंने यही सोचा कि आशीर्वाद ही इनका रक्षक है, सेना आदिका क्या प्रयोजन है? सब माताओंको प्रणाम करके दोनों पुरुषश्रेष्ठ मुनिके साथ चल दिये। वाल्मीकिजी लिखते हैं कि माता-पिताने स्वस्तिवाचन किया, गुरुने मांगलिक मन्त्रोंसे अभिमन्त्रित किया। राजाने सिर सूँघा । यथा-
'कृतस्वस्त्ययनं मात्रा पित्रा दशरथेन च। पुरोधसा वसिष्ठेन मंगलैरभिमन्त्रितम् ॥' स पुत्रं मूर्क्युपाघ्राय
राजा दशरथस्तदा।' 
'पुरुष सिंह दोउ' अर्थात् दोनों भारी सामर्थ्यवान् हैं, जैसे सिंह निर्भय, निःशंक अकेले ही हाथियोंके समूहमें घुसकर उनके मस्तकोंको विदीर्ण कर डालता है, वैसे ही ये दोनों बिना सेना सहायकके ही 'असुर समूह' जो मुनिको सताते हैं (जैसा मुनिने राजासे कहा था- 'असुर समूह सतावहिं मोही' ) उन्हींका नाश करने चले हैं और करेंगे। यथा - ' अवध नृपति दसरथके जाये । पुरुष सिंह बन खेलन आये ॥ समुझि परी मोहि उन्हकै करनी । रहित निसाचर करिहहिं धरनी ॥ वाल्मीकिय  रामायण में इस रूपको
मारीचने खूब निबाहा है। वह रावणसे कहता है कि यह मनुष्यसिंह सो रहा है। इसको जगाना अच्छा नहीं
है। पुरुषोंमें सिंह इस रामचन्द्रका रणस्थलमें अवस्थान करना ही (इस सिंहके) सन्धि और बाल हैं। रणकुशल
राक्षसगणरूपी गजेन्द्रोंका यह सिंह नाश करनेवाला है। यह शररूपी अंगोंसे परिपूर्ण है और तीक्ष्ण असि ही
इसके दाँत हैं। यथा- 'असौ रणान्तः स्थितिसन्धिबालो विदग्धरक्षो मृगहा नृसिंहः । सुप्तस्त्वया बोधयितुं न शक्यः
शरांगपूर्णो निशितासिदंष्ट्रः ॥'  'दोउ बीर' अर्थात् ये संग्राममें सम्मुख लड़ाई करके राक्षसों का वध करेंगे, छल आदिसे नहीं।  'हरषि चले' अर्थात् मुनिका भय हरण करनेमें दोनोंको उत्साह है।यात्रासमय मनमें हर्ष होना शकुन है, यथा- 'अस कहि नाइ सबन्ह कहँ माथा । चलेउ हरषि हिय धरि रघुनाथा ॥', 'हरषि राम तब कीन्ह पयाना । सगुन भए सुंदर सुभ नाना॥'  'चले मुनि भय हरन'  यज्ञरक्षा और असुरसमूहके वधके हेतु दोनों भ्राता मुनिके साथ चले हैं, मुनिका भय दूर करने जा रहे हैं ये कार्य वीरोंके हैं। इसीसे यहाँ 'बीर' और 'कृपासिंधु' विशेषण दिये हैं। शत्रुका वध करनेमें बल और बुद्धि चाहिये । यहाँ
वीरसे बल और मतिधीरसे बुद्धि दो विशेषणोंमें ही दोनों गुण दरसा दिये । यथा - 'ताहि मारि मारुत सुत
बीरा | बारिधि पार गयउ मतिधीरा ॥' ' 
यहाँके सब विशेषण साभिप्राय हैं। 'पुरुषसिंह' अर्थात् पुरुषोंमें शेर, बबर वा नरशेर हैं। असुरसमूह
इनके सामने हाथीके समान हैं 'वीर' हैं, अतः सेना सहायककी आवश्यकता नहीं। मुनि भय हरने जाते हैं,
क्योंकि 'कृपासिंधु' हैं; यथा - 'अस्थि समूह देखि रघुराया। पूछी मुनिन्ह लागि अति दाया ॥ निसिचर हीन करउँ महि
भुज उठाइ पन कीन्ह । सकल मुनिन्ह के आश्रमन्हि जाइ जाइ सुख दीन्ह ॥ ' पुनः, भाव कि मुनिने अपनेको
राजासे अनाथ सूचित किया था, यथा- 'निसिचर बध मैं होब सनाथा' अतएव उनपर समुद्रवत् कृपा करके
उनको सनाथ करेंगे। '
             वीरता पाँच प्रकारकी कही गयी है। वह पाँचों यहाँ प्रभुमें दिखायी गयी हैं। यथा- 'त्यागवीरो दयावीरो
विद्यावीरो विचक्षणः। पराक्रममहावीरो धर्मवीरः सदास्वतः ॥ पञ्चवीराः समाख्याता राम एव स पञ्चधा । रघुवीर इति ख्यातः सर्ववीरोपलक्षणः ॥' त्यागवीर हैं, अतः 'मतिधीर' कहा। माता-पिताके वियोगका किंचित् भी दुःख न हुआ ।दयावीर हैं, अतएव 'कृपासिंधु मुनिभय हरन चले' कहा। 'हरषि चले' तथा 'पुरुषसिंह' से पराक्रम महावीर जनाया। मुनिभयहरण एवं यज्ञरक्षा धर्मके कार्य हैं, अतएव इनसे धर्मवीर जनाया। विद्यावीर तो पूर्व ही कह आये हैं कि 'जाकी सहज श्वास श्रुति चारी । ' इत्यादि, और आगे बाणविद्यामें निपुणता दिखाते हैं कि एक ही बाणसे ताड़काका वध कर डाला; पुनः अखिल विश्वके कारण एवं करण हैं इससे 'विद्यावीर' हुए ।
राजा ने सेना और सेवक साथ क्यों न भेजे ? इसका एक कारण यह कहा जाता है कि ताड़का, मारीच और सुबाहुको किसी मुनिका शाप था कि बालक विरथियोंके हाथोंसे निरादरपूर्वक तुम्हारी मृत्यु होगी । और अन्य  कारण यह है प्रभुका प्रताप और ऐश्वर्य गुप्त रखनेके विचारसे मुनि इनको पैदल ले गये।  सेना और रथ साथ होनेसे सम्भव था कि निशिचर युद्ध करने न आते ( तो भी मुनिका प्रयोजन सिद्ध न होता ) और इनका वध आवश्यक था। अतएव बिना सेना इत्यादिके गये । मुनि शाप  से  सेनासे इनका वध हो न सकता था, सेना मारी जाती, व्यर्थका पाप मुनिको होता । अतः सेना न ली। रामजी मुनिके साथ हैं, जैसे मुनि रहते हैं वैसे ही ये भी रहेंगे। मुनिके साथ रहकर किसीसे सेवा कराते न बनेगी, इसीसे सेवक न लिये। मुनि पनही (जूती, पदत्राण) नहीं पहनते, सवारीपर नहीं चढ़ते, इसीसे आपने भी सवारी न ली, न पदत्राण पहने।लीलाका विधान कल्प-कल्पमें ही रहता है। इस प्रकार यहाँ राम की  वीरता और वीर स्वरूप वर्णन  अद्भुत ढंग से बाबा तुलसीदास जी ने किया है। 
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

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