✓मानस चर्चा ।।हनुमानजी भाग दो।।गुरु बिनु भव निधि तरई न कोई
मानस चर्चा ।।हनुमानजी भाग दो।।गुरु बिनु भव निधि तरई न कोई।।
गुरु बिनु भव निधि तरई न कोई।जौ बिरंचि संकर सम होई ॥ इस दुस्तर संसार सागर को हम कैसे पार करें, इस के लिए हमारा मार्गदर्शन हमें हनुमानजी कराते हैं जो हम श्री हनुमानचालीसा के द्वारा पाते हैं। हनुमान चालीसा के शुभारम्भ में गोस्वामीजी ,गुरुदेव का आशीर्वाद लेते हैं, जिनकी कृपा से दुर्लभ सुलभ होता है। आइए हम सद्भाव से हनुमान चालीसा के पहले दोहे का पाठ करते हैं-
श्रीगुरुचरन सरोज रज, निज मनु मुकुरु सुधारि ।
बरनउँ रघुबर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि ॥
यह दोहा श्री से प्रारम्भ हुआ है, क्योंकि श्रीजी महारानी प्रत्येक चौपाई में आशीर्वाद स्वरूप विराजमान हैं। श्री माने सम्पन्नता, श्री माने वैभव, श्री माने सुख, श्री माने समृद्धि। हनुमान चालीसा इन सब गुणों से भरा हुआ है इसलिए श्री गुरुदेव के चरण भी श्री सम्पन्न हुआ करते हैं और भारत का आध्यात्म गुरुदेव के ऊपर ही टिका हुआ है। भारत के आध्यात्म के भवन के नीचे गुरुदेव की कृपा नींव के पत्थर के रूप में विराजमान है। भारतीय आचार्यों ने कहा है कि बिना गुरु के कोई पार हो ही नहीं सकता और इसलिए गोस्वामी जी ने बिल्कुल डंके की चोट पर बोला है कि-गुरु बिनु भव निधि तरई न कोई।जौ बिरंचि संकर सम होई ॥ जब ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी बिना गुरुदेव की कृपा के पार नहीं हो सकते तो हमारी तो हैसियत ही क्या है? एक सिद्धान्त है जैसे बिना मल्लाह की नाव अगर नदी में जाएगी तो अटक सकती है, भटक सकती है उलट सकती है, फँस सकती है, डूब सकती है तो जैसे नौका को सकुशल किनारे तक पहुँचाने के लिए कोई न कोई मल्लाह चाहिए। ऐसे ही संसार रूपी सागर से इस जीवनरूपी नौका को सकुशल किनारे तक पहुँचाने के लिए भी कोई न कोई मल्लाह, केवट चाहिए और शास्त्र में इस मल्लाह, इस केवट को गुरु कहकर सम्बोधित किया गया है। एक दूसरा और सिद्धान्त है जैसे बिना किसी डाक्टर या वैद्य की सलाह ली गई औषधि कई बार हानिकारक हो जाती है, ऐसे ही बिना सद्गुरु के मार्गदर्शन के किया गया भजन भी कभी कभी कुपरिणामकारी हो जाता है। सुपरिणाम की जगह कुपरिणाम देता है क्योंकि ग्रन्थों में मंत्र तो लिखे हैं, उनके विधि, विधान व अनुष्ठान तो लिखे हैं लेकिन अगर अनुष्ठान करते समय कोई व्यवधान आया तो मार्गदर्शन कौन करेगा, मार्गदर्शन शास्त्र नहीं कर सकता। मार्गदर्शन सतगुरु का सान्निध्य कर सकता है इसलिए भजन भी किसी के सान्निध्य में करना चाहिए। जैसे टीवी देखकर योग करने से कई बार हानि हो जाती है योग व्यायाम भी किसी न किसी सदगुरु के सान्निध्य में करना चाहिए, क्योंकि हर एक की रुचि प्रकृति, गुण, धर्म, स्वभाव ये अलग-अलग हुआ करते हैं। जैसे हर एक फल हर एक के शरीर को सूट नहीं करता ऐसे ही आसन व्यायाम है। वात, पित्त, कफ ये अवस्थाएं सबकी अलग-अलग हुआ करती हैं। एक जैन आचार्य ने गुरु की महिमा में एक बहुत अच्छी बात बोली है, उन्होंने कहा है कि "जिनका कोई गुरु नहीं उसका जीवन शुरू नहीं", जीवन का शुभारम्भ गुरुदेव के आशीर्वाद से होता है, जीवन की शुरूआत किसी न किसी की कृपा से, आशीर्वाद से होती है। एक बहुत सुन्दर उदाहरण है पतंग और पतंगे का। पतंग में भी वही अक्षर हैं, पतंगा में भी वही अक्षर हैं, लेकिन दोनों के स्वभाव और परिणाम में अंतर है। पतंगा स्वतंत्र होता है और पतंग परतंत्र होती है, लेकिन स्वतंत्र पतंगा थोड़ी देर में किसी दीपक की लौ पर जलकर राख और खाक हो जाता है। पतंग भले ही परतंत्र होती है, उसकी डोरी दूसरे के हाथों में होती है लेकिन पतंग हमेशा आकाश में उड़ती है। और जब तक पतंग अपनी डोर किसी दूसरे के हाथ में नहीं देती तब तक उड़ नहीं पाती। तो जिनको ऊपर उड़ना है, उनको अपने जीवन की डोर किसी न किसी संत-सद्गुरु के हाथों में देनी होगी, अन्यथा स्वतंत्र रहोगे तो पतंगे की तरह संसार की विषय वासनाओं की आग में जलकर राख और खाक हो जाओगे। जीवन की ऊंचाईयाँ यदि प्राप्त करनी हैं, सीढ़ियाँ चढ़नी है, उछाल लगानी है आकाश की ऊंचाईयों तक जाना है तो जीवन की डोर किसी न किसी संत-सद्गुरु के हाथ में चाहिए, कोई ऐसे हाथ में चाहिए जो हमको थाम सकें। ऐसे हाथ में चाहिए जो हमें अनन्त की ओर उड़ा सकें, कोई ऐसे हाथ चाहिए जो हमारे सिर पर आ सकें, कोई ऐसे हाथ चाहिए जो हमारे सहारे बन सकें, जो हमारी पीठ थपथपा सकें, जो हमारे डगमगाते जीवन को साध सकें, डूबने से बचा सकें, गिरने से बचा सकें, और यह कार्य केवल सद्गुरु ही कर सकता है और किसी दूसरे की क्षमता नहीं। आप सब यह जानते ही हैं कि जो पशु किसी खूंटे से बंधे होते हैं वे सुरक्षित भी रहते हैं और निश्चिन्त भी रहते हैं लेकिन जो पशु स्वतंत्र रहते हैं वे चिन्तित भी रहते हैं और असुरक्षित भी रहते हैं। जो खूंटे से बंध गया वह निश्चिन्त बैठा जुगाली करता है उसको कोई चिन्ता नहीं होती, चिन्ता उसको होती है जिसने उसे खूंटे से बाँधा है। निश्चिन्त जीवन जीना है, सुरक्षित जीवन जीना है तो किसी न किसी महापुरुष के खूंटे से बंध जाइए। गुरु कहते हुआ जो जागा है वह प्रकाशित है। भारत के ऋषि-मुनियों मनीषियों का कहना है कोई कितना ही विवेकी क्यों न हो लेकिन गुरु के बिना वो जाग नहीं सकता, अगर हम सो रहे हैं तो सोनेवाले को जगाने के लिए भी कोई जगानेवाला चाहिए। सद्गुरु और भगवान् यें दोनों सोते जीव को जगाते हैं। हनुमानजी संत हैं इनका एक ही काम है जो सो रहा है उसको जाकर जगायें। श्रीहनुमानजी लंका आए जानकीजी की खोज करने, आवश्यकता नहीं थी खोजने की क्योंकि सीता जी के अपहरण का समाचार गीधराज जटायु श्रीराम को दे चुके हैं कि रावण जानकी जी का हरण करके ले गया है। यह भगवान् को भी मालूम है। इसके बाद भी हनुमानजी क्यों गए? क्योंकि भगवान् को मालूम है लंका में एक भक्त सो रहा है और पता नहीं कितने जन्मों तक सोता रह जाएगा इसलिए भगवान् ने जानकी जी की खोज को माध्यम बनाकर हनुमानजी को भेजा। हनुमानजी जरा जाकर सोते विभीषण को तो जगाइए और गोस्वामीजी ने इसका संकेत अपनी चौपाइयों में दे दिया। हनुमानजी जब विभीषण के द्वार पर आए तो गोस्वामीजी ने जो शब्द लिखे- लंका निसिचर निकर निवासा। इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा।। मन महुँ तरक करें कपि लागा।तेहीं समय विभीषनु जागा।
विभीषण के दरवाजे पर हनुमानजी के आकर खड़े होने से ही वे जाग पाये थे। जब तक हमारे जीवन द्वार पर किसी सद्गुरु का आगमन नहीं होता, जब तक कोई सद्गुरु हमारी श्वांसों में नहीं आता तब तक जाग नहीं पाते। विभीषण जब जागे हैं तो क्या करने लगे हैं-
राम-राम तेहिं सुमिरन कीन्हा । हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा ॥ यह जागृति का संकेत है। जब जीव जागता है तो जिह्वा पर एक शब्द आता है, राम-राम श्री राम जय जय जय राम। अगर हमारी जिह्वा हरि नाम नहीं लेती है अगर हरिराम लेने में रस नहीं आता तो फिर सोये हैं और सोए हुए जीव को तो कोई सद्गुरु, हनुमानजी ही जगा सकते हैं,जिनका काम ही जगाना है। हनुमानजी ने विभीषण को जगाया है इससे पहले सुग्रीव को जगाया। सुग्रीव को राजपद मिल गया, कंचन और कामिनी दोनों मिल गयी, और सुग्रीव जाकर सो गया। हनुमानजी ने स्वयं जाकर जगाया कि सुग्रीव कब तक सोओगे-
इहाँ पवनसुत हृदयँ विचारा । राम काजु सुग्रीव बिसारा ॥
निकट जाइ चरनन्हि सिरुनावा। चारिहु विधि तेहि कहि समुझावा ॥ श्रीहनुमानजी के जाने के बाद श्रीरामजी ने सोये जीव सुग्रीव को जगाने के लिए लक्ष्मणजी को भेजा।राम ने काल को भेजा क्योंकि लक्ष्मण शेषनाग हैं और नाग काल का प्रतीक है जिसे संत भी नहीं जगा पाए उसे तो काल ही जगाएंगे और आकर सुग्रीव को लक्ष्मणजी ने इतना फटकारा- ऐहि अवसर लछिमन पुर आये। क्रोध देखि जहँ तहँ कपि धाये ॥ क्रोधवंत लछिमन सुनि काना। कह कपीस अति भय अकुलाना ।।
सुग्रीव को जाकर लक्ष्मण जी जगाते हैं क्योंकि लक्ष्मण हमेशा जाग्रत रहते हैं कभी सोते नहीं, जो भगवान् सेवा में रहता है वह कभी सोता नहीं और सोएगा भी कैसे, सोया तो वह रहता है जो भोगों की सेवा में रहता है, उसी को मोह की निशा आकर घेरती है। हनुमानजी ने सुग्रीवजी को जगाया, विभीषण जी को जगाया,संत की वाणी सुनकर जो जागे, संकेत सुनकर जो जागें, उसे जीव कहते हैं, सज्जन कहते हैं। जो संत के संकेत को समझकर जागता है वह सज्जन है, जो काल की फटकार से जागता है वह भोगी है और जो संत और काल दोनों के फटकार से भी नहीं जागता वह रावण है ,और जो भोग ग्रस्त है उसको भगवान् की वाणी नहीं, भगवान् का बाण ही जगाता है। जगाता नहीं बल्कि सदैव के लिए सुला देता है और मोह तो सोता ही अच्छा लगता है।गुरु की यहाँ विशेष भूमिका है। जो जागा है, वह ही हमको जगा सकता है। हम सब मोह के नशे में सोये हैं, जो भक्त होते हैं वे भोले तो होते हैं लेकिन बड़े होशियार होते हैं इसलिए भगवान् से जाकर रोकर प्रार्थना करते हैं।
भगवान् आप कैसे भी हमको अपने जाल में फंसा लीजिए। भगवान् कहते हैं कि जाल से तो सभी मुक्त होना चाहते हैं,मछली जैसा सामान्य जीव भी जाल में फँसना नहीं चाहती और तुम मनुष्य होकर जाल में फँसना चाहते हो ? क्यों जाल में फँसना चाहते हो ? तो भक्त कहता है कि भगवन् यदि तुम हमें अपने जाल में नहीं फँसाओगे तो माया हमें अपने जाल में फँसा देगी। और माया के जाल में फँसें, इससे तो अच्छा है कि आप हमें अपने जाल में फँसा लें। अन्यथा तो माया जाल लेकर खड़ी है, और भक्त मायादास बनना नहीं चाहता बल्कि मायापति का दास बनना पसन्द करता है। इसलिए भगवान् से जब भी मिलता है वह यही बोलता है कि -
अपने चरणों का दास बनाले।
काली कमली के ओढ़नवाले।
गहरी नदिया नाव पुरानी।
केवटिया याको नादानी ॥
मेरी नैया को पार लगा ले।
काली कमली के ओढ़नवाले ||
अपने चरणों का दास बनाले।
काली कमली के ओढ़नवाले ॥
हम राम कृष्ण के दास हैं। माया के दास बनने से बचना है तो हमें मायापति का दास बनना होगा। वैसे हमारे सनातन समाज में दास ही बनते हैं, स्वामी नहीं बनते। स्वामी बनने की सामर्थ्य तो केवल परमात्मा में ही होती है। जीव तो दासता स्वीकार करता है। दास की रक्षा स्वामी किया करते हैं। गोस्वामीजी गुरुदेव का स्मरण कर रहे हैं। श्रीहनुमानजी, शंकरजी के ही रूप हैं और शंकरजी तो त्रिभुवन के गुरु हैं, गुरुओं के गुरु हैं, गुरु के रूप में हनुमानजी का भी स्मरण है-
जै जै जै हनुमान गोसाईं । कृपा करहु गुरु देव की नाईं ॥
श्रीहनुमानजी गोस्वामीजी को गुरु के रूप में मिले और उनका सर्वस्व कल्याण किए। ऐसे श्री हनुमानजी को हम भी अपना गुरु बनाकर अपना सर्वबिधि कल्याण करें इसी आशा के साथ
।। जय श्री राम जय हनुमान।।
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