मानस चर्चा ।।गंगाजी के धरती पर आने की कथाएं।।
मानस चर्चा ।।गंगाजी के धरती पर आने की कथाएं।। आधार मानस की ये पंक्तियां ___
चले राम लछिमन मुनि संगा । गए जहाँ जग पावनि
गंगा ॥
गाधिसूनु सब कथा सुनाई। जेहि प्रकार सुरसरि महि
आई ॥
र्श्रीराम-लक्ष्मणजी मुनिके साथ चले। जहाँ जगत्को पवित्र करनेवाली गंगाजी हैं वहाँ गये ॥ राजा गाधिके पुत्र विश्वामित्रजीने सब कथा सुनायी, जिस प्रकार देवनदी गंगाजी पृथ्वीपर आयीं ॥
मुनि आगे-आगे हैं, उनके पीछे श्रीरामजी और श्रीरामजीके पीछे श्रीलक्ष्मणजी हैं।
गाधिसूनु सब कथा सुनाई ' वाल्मीकीयमें लिखा है कि श्रीरामजीने विश्वामित्रजीसे प्रश्न किया कि 'यह त्रिपथगा (तीन धारावाली गंगा) किस प्रकार तीनों लोकोंमें घूमकर समुद्रसे मिली।' उनके वचनसे प्रेरित हो मुनिने गंगाके जन्म और वृद्धिका वृत्तान्त कहा। जो यह है – सुमेरुकी कन्या हिमाचलकी स्त्री मेनाकी बड़ी कन्या गंगा हुई। देवकार्यकी सिद्धिके लिये देवताओंने इस कन्याको हिमवान्से माँग लिया और उन्हें लेकर देवलोकको चले गये। यह कथा सुनकर फिर उन्होंने गंगाजीकी स्वर्गसे मृत्युलोकमें आनेकी कथा पूछी और यह भी पूछा कि
गंगा तीन धाराओंसे क्यों बहती हैं और उनका नाम त्रिपथगा क्यों पड़ा ?' – इन प्रश्नोंके उत्तरमें कार्तिकेय - जन्मसम्बन्धी गंगाकी कथा फिर राजा सगरकी कथा कही, जो इस प्रकार है - इक्ष्वाकुवंश (रघुकुल) में एक राजा सगर अयोध्यामें धर्मात्मा और पराक्रमशील राजा हुए। उनकी दो रानियाँ केशिनी और सुमति थीं। ( महाभारत वनपर्वमें इनके नाम शैव्या और वैदर्भी हैं। केशिनी विदर्भराजकी कन्या है।सुमति गरुड़की बहिन है । दोनों रानियों और राजाने हिमालय पर्वतपर जाकर भृगु ऋषिके
सोनेवाले पर्वतपर सौ वर्ष तपस्या की । भृगुजीने प्रसन्न होकर वर दिया कि एक रानीके वंश बढ़ानेवाला एक ही
पुत्र होगा और दूसरीके साठ हजार बली, कीर्तिमान् और उत्साही पुत्र होंगे। जो एक पुत्र उत्पन्न करना चाहे वह
एक उत्पन्न करे और जो बहुत चाहे वह बहुत उत्पन्न करे। केशिनीने एक माँगा और सुमतिने साठ हजार ।-
केशिनीके असमंजस नामक एक दिव्य बालक उत्पन्न हुआ और सुमतिके गर्भसे एक तुम्बी उत्पन्न हुई। [राजाने तुम्बीको फेंकनेका विचार किया, उसी समय गंभीर स्वरसे आकाशवाणी हुई कि ऐसा साहस न करो। इस तरह पुत्रोंका परित्याग करना उचित नहीं है। इस तुम्बीके बीज निकालकर उन्हें कुछ-कुछ घीसे भरे हुए घड़ोंमें पृथक् पृथक् रख दो। इससे तुम्हें साठ हजार पुत्र होंगे।' । घीसे भरे घड़ोंमें रखकर, धात्रियोंने उनका पालन किया। उस तुम्बीसे इस प्रकार साठ हजार अतुलित तेजस्वी, घोर प्रकृतिके और क्रूर कर्म करनेवाले एवं आकाशमें उड़कर चलनेवाले पुत्र उत्पन्न हुए। दूसरी रानीका पुत्र असमंजस अपने पुरवासियोंके दुर्बल बालकोंका गला पकड़कर सरयूमें डाल देता था और जब वे डूबने लगते तब हँसता था। सब पुरवासी भय और शोकसे व्याकुल रहने लगे। एक दिन राजासे सबने आकर प्रार्थना की कि असमंजससे हमारी रक्षा कीजिये । महात्मा सगरने पुरवासियोंके हितार्थ अपने पुत्रको नगरसे निकाल दिया। राजा हो तो ऐसा हो ! प्रजाकी प्राणोंसे रक्षा करना राजाका धर्म था न कि प्रजाहीका सत्यानाश करना !! असमंजसके एक पराक्रमी पुत्र अंशुमान् थे जो सबको प्रिय थे। बहुत काल बीतनेपर राजा सगरने हिमालय और विन्ध्याचलके बीचमें एक अश्वमेधयज्ञकी दीक्षा ली। घोड़ा छोड़ा गया। ( वह घूमता- घूमता जलहीन समुद्रके पास पहुँचा तब वह अदृश्य हो गया ।) इन्द्रने राक्षसका वेष धरकर उसे चुराकर भगवान् कपिलदेवके आश्रममें बाँध दिया। सगरके साठ हजार राजकुमारोंने समुद्र, द्वीप, वन, पर्वत, नदी, नद और कन्दराएँ सभी स्थान छान डाले परंतु पता न लगा। तब लौटकर उन्होंने सब समाचार राजासे कह दिया ।
राजाने क्रोधमें आकर आज्ञा दी कि उसे जाकर खोजो, खाली हाथ लौटकर न आना। ये लोग फिर खोजने लगे। एक जगह पृथ्वी कुछ फटी देख पड़ी जिसमें एक छिद्र भी था, उन्होंने उसे पातालतक खोद डाला। वहाँ घोड़ेको उन्होंने घूमते और चरते हुए देखा। उसके पास महात्मा कपिलदेव भी दीख पड़े। मुनि ध्यानमें थे। कालवश ये राजकुमार क्रोधसे भर गये और कहने लगे कि देखो, 'कैसा चोर है ? घोड़ा चुराकर यहाँ मुनिवेष बनाकर बैठा है।'' अरे मूर्ख ! तूने हमारे यज्ञका घोड़ा चुराया है। हमलोग सगरके पुत्र तुझे दण्ड देनेको आ गये, यह तू जान ले।' इस कोलाहल से मुनकी आँखें खुल गयीं और उन्होंने बड़े क्रोधसे हुंकार किया, जिससे सब राजकुमार उनके तेजसे भस्म हो गये। नारदने सब समाचार राजासे कहा । देखिये महात्मा अपमानका फल ! अब एकमात्र अंशुमान् ही राज्यमें थे । राजाने उनको बुलाकर और समझाकर भाइयों और यज्ञके घोड़ेको ढूँढ़नेको भेजा। ये अपने चाचाओंकी खोदी हुई पृथ्वीके रास्तेपर पहुँचे। सब दिग्गजोंको प्रणाम किया और उनसे आशीर्वाद पाकर उस स्थानपर पहुँचे जहाँ सगरके पुत्रोंकी भस्म पड़ी हुई थी। उन्होंने सबको जलांजलि देनी चाही, पर कहीं जल न मिला। तब गरुड़ने आकर अंशुमान्से कहा कि ये कपिलजीके क्रोधसे भस्म हुए हैं, साधारण जलसे इनको लाभ नहीं होनेका। इनको गंगाजलसे जलांजलि देना। घोड़ा लेकर जाओ। कथा ऐसी भी कही जाती है कि अंशुमान् कपिलदेवजीके आश्रमपर गये और
उनकी स्तुति की। उन्होंने वर माँगनेको कहा। उन्होंने यज्ञ - अश्व माँगा और अपने पितरोंके उद्धारकी प्रार्थना की।
उन्होंने प्रसन्नतासे घोड़ा दिया और वर दिया कि तुम्हारा पौत्र भगीरथ गंगाजीको लाकर इन सबका उद्धार करेगा ।
घोड़ा लाकर अंशुमान्ने राजाको दिया और यज्ञ पूरा किया गया। सगरके पश्चात् अंशुमान् राजा हुए। उन्होंने अन्तमें
अपने धर्मात्मा पुत्र दिलीपको राज्य सौंपकर गंगाजीके लिये तप किया। दिलीपने भी गंगाजीके लिये बहुत प्रयत्न
किया। उनके पुत्र भगीरथजी अपने पितरोंका वृत्तान्त सुनकर बहुत दुःखी हुए और मन्त्रियोंको राज्य सौंपकर वे
हिमालयपर तपस्या करने लगे । इन्होंने राज्याभिषेक होते हुए राज्य छोड़ दिया और एक हजार वर्षतक घोर तपस्या
की। तपस्यासे प्रसन्न होकर ब्रह्माजी देवताओंसहित वहाँ आये और वर माँगनेको कहा। उन्होंने मनोरथ पूर्ण होनेका वर दिया, पर साथ ही यह भी कहा कि गंगाजीके
वेगको पृथ्वी न सह सकेगी। उसको धारण करनेकी शक्ति शिवजीको छोड़ किसीमें नहीं है, अत: तुम उनको
प्रसन्न करो। यह कहकर और गंगाजीको भगीरथजीका मनोरथ पूर्ण करनेकी आज्ञा देकर ब्रह्माजी स्वर्गको गये।कथा यह भी है कि गंगाजीने ही तपस्यासे प्रसन्न होकर दिव्यरूपसे भगीरथ महाराजको दर्शन दिया और कहा कि जो कहो मैं वही करूँ। भगीरथजीने कहा कि 'मेरे पितृगण
महाराज सगरके साठ हजार पुत्रोंको कपिलदेवजीने भस्म कर यमलोकको भेज दिया। जबतक आप अपने जलसे
उनका अभिषेक न करेंगी, तबतक उनकी सद्गति नहीं हो सकती। उनके उद्धारके लिये ही आपसे प्रार्थना
है।' गंगाजीने कहा कि मैं तुम्हारा कथन पूरा करूंगी। परंतु जिस समय मैं आकाशसे पृथ्वीपर गिरूँगी उस समय
मेरे वेगको रोकनेवाला कोई न होनेसे मैं रसातलको चली जाऊँगी। तुम उसका उपाय करो' 'तीनों लोकोंमें भगवान् शंकरको छोड़ कोई ऐसा नहीं जो मुझे धारण कर सके। अतएव तुम उनको प्रसन्न कर लो, जिसमें मैं गिरूँ तो वे मुझे मस्तकपर धारण कर लें।' भगीरथजीने तब पुन; तीव्र
तपस्या की और महादेवजीको प्रसन्न करके उनसे गंगाजीको धारण करनेका वर प्राप्त कर लिया। शंकरजी
हिमालयपर आकर खड़े हो गये। भगीरथजी गंगाजीका ध्यान करने लगे। इन्हें देखकर गंगाजी स्वर्गसे धाराप्रवाहरूपसे चलीं और शिवजीके मस्तकपर इस प्रकार आकर गिरीं मानो कोई स्वच्छ मोतियोंकी माला हो। शंकरजी दस हजार वर्षोंतक उन्हें अपनी जटाओंमें धरे रह गये। भगीरथजीने पुनः तपस्या करके शंकरजीको प्रसन्न किया । तब उन्होंने गंगाजीको जटाओंसे छोड़ा। गंगाजीने राजासे कहा कि मैं तुम्हारे लिये ही पृथ्वीपर आयी हूँ, अतः
बताओ मैं किस मार्गसे चलूँ?' यह सुनकर आगे-आगे राजा रथपर और पीछे-पीछे गंगाजी, इस तरह कपिलजीके आश्रमपर, जहाँ सगरपुत्रोंकी राख पड़ी थी, वे गंगाजीको ले गये। जलके स्पर्शसे उनका उद्धार हो गया। गंगाजी सहस्रधारा होकर कपिलजीके आश्रमपर गयीं । समुद्र उनके जलसे तत्काल भर गया। राजा भगीरथने उनको पुत्री मान लिया और पितरोंको गंगाजलसे उन्होंने जलांजलि दी। उस जलके स्पर्शसे सगरपुत्रोंका उद्धार हुआ। यह नदी गंगोत्तरीसे निकलती है और मन्दाकिनी तथा अलकनन्दासे मिलकर हरिद्वारके पास
पथरीले मैदानमें उतरती है।
दूसरी कथा श्रीमद्भागवत में है। उसमें श्रीशुकदेवजीने गंगाजीका विवरण इस प्रकार दिया है कि जब भगवान्ने त्रिलोकको नापनेके लिये अपना पैर फैलाया तो उनके बाएँ पैरके अँगूठेके नखसे ब्रह्माण्डकटाहके ऊपरका भाग फट गया। उस छिद्रमें होकर जो ब्रह्माण्डसे बाहरके जलकी धारा आयी, वह उस चरणकमलको धोनेसे उसमें लगे हुए केसरके मिलनेसे लाल हो गयी। उस निर्मल धाराका स्पर्श होते ही संसारके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं, किंतु वह सर्वथा निर्मल ही रहती है। पहले किसी और नामसे न पुकारकर
उसे 'भगवत्पदी' ही कहते थे। वह धारा हजारों युग बीतनेपर स्वर्गके शिरोभागमें स्थित हुई, फिर ध्रुवलोकमें
उतरी, जिसे 'विष्णुपद' भी कहते हैं। ध्रुवलोकमें आज भी ध्रुवजी नित्यप्रति बढ़ते हुए भक्तिभावसे 'यह
हमारे कुलदेवताका चरणोदक है' ऐसा मानकर उसे बड़े आदरसे सिरपर चढ़ाते हैं और फिर सप्तर्षिगण 'यही
तपस्याकी आत्यन्तिक सिद्धि है' ऐसा मानकर उसे जटाजूटपर धारण करते हैं । वहाँसे गंगाजी आकाशमें होकरचन्द्रमण्डलको आप्लावित करती हुई मेरुशिखरपर ब्रह्मपुरीमें गिरती हैं । वहाँसे सीता, अलकनन्दा, चक्षु और
भद्रा नामसे चार धाराओंमें विभक्त हो जाती हैं। उनमें सीता ब्रह्मपुरीसे गिरकर केसराचलोंके सर्वोच्च शिखरों में
होकर नीचेकी ओर बहती गन्धमादनके शिखरोंपर गिरती है और भद्राश्ववर्षको प्लावित कर पूर्वकी ओर खारे
समुद्रमें मिल जाती है। इसी प्रकार 'चक्षु' माल्यवान्के शिखरपर पहुँचकर वहाँसे केतुमाल वर्षमें बहती पश्चिमकी
ओर क्षीरसमुद्रमें जा मिलती है। 'भद्रा' मेरुपर्वतके शिखरसे उत्तरकी ओर गिरती है तथा एक पर्वतसे दूसरे
पर्वतपर जाती हुई अन्तमें शृंगवान्के शिखरसे गिरकर उत्तर कुरुदेशमें होकर उत्तरकी ओर बहती हुई समुद्र में
मिल जाती है। 'अलकनन्दा' ब्रह्मपुरीसे दक्षिणकी ओर गिरकर अनेकों गिरिशिखरोंको लाँघती हुई हेमकूट पर्वतपर
पहुँचती है। वहाँसे अत्यन्त तीव्र वेगसे हिमालयके शिखरोंको चीरती हुई भारतवर्षमें आती है और फिर दक्षिणकी ओर समुद्रमें जा मिलती है। इसमें स्नान करनेके लिये आनेवालोंको पद-पदपर अश्वमेध और राजसूय आदि
यज्ञोंका फल भी दुर्लभ नहीं है।
तीसरी कथा पद्मपुराण सृष्टिखण्डमें भगवान् व्यासने ब्राह्मणोंके पूछनेपर कि 'गंगाजी कैसे इस रूपमें प्रकट
हुईं? उनका स्वरूप क्या है ? वे क्यों अत्यन्त पावनी मानी जाती हैं ?' उनसे गंगाजीकी कथा विस्तारसे कही है,
जिसका संक्षिप्त विवरण यह है । ब्रह्माजीने नारदजीके पूछनेपर कहा था कि पूर्वकालमें सृष्टिका आरम्भ करते समय मैंने मूर्तिमती प्रकृतिसे कहा कि 'देवि! तुम सम्पूर्ण लोकोंका आदिकारण बनो। मैं तुमसे ही संसारकी सृष्टि करूँगा । ' यह सुनकर परा-प्रकृति सात स्वरूपोंमें अभिव्यक्त हुई । वे सात स्वरूप ये हैं । (१) गायत्री ( जिससे समस्त वेद, स्वस्ति, स्वाहा, स्वधा और दीक्षाकी उत्पत्ति मानी जाती है)। (२) वाग्देवी भारती वा सरस्वती (जो सबके मुख और हृदयमें स्थित है और समस्त शास्त्रोंमें धर्मका उपदेश करती है) । (३) लक्ष्मी (जिससे वस्त्र और आभूषणकी राशि प्रकट हुई। सुख और त्रिभुवनका राज्य इन्हींकी देन है। ये विष्णुभगवान्की प्रियतमा हैं) । (४) उमा ( जिनके द्वारा शंकरजीके स्वरूपका ज्ञान होता है। यह ज्ञानकी जननी और शंकरजीकी अर्धांगिनी हैं) । (५) शक्तिबीजा (जो अत्यन्त उग्र, संसारको मोहमें डालनेवाली, जगत्का पालन और संहार करनेवाली है) । (६) तपस्विनी (जो तपस्याकी अधिष्ठात्री है)। (७) धर्मद्रवा (जो सब धर्मोंमें प्रतिष्ठित है)। धर्मद्रवाको सर्वश्रेष्ठ जानकर मैंने कमण्डलुमें रख लिया। जब वामनावतार लेकर बलिके यज्ञमें भगवान्ने चरण बढ़ाया तब एक चरण आकाश और ब्रह्माण्डकोnभेदकर मेरे सामने उपस्थित हुआ । मैंने कमण्डलुके जलसे उस चरणका पूजन किया। उस चरणको धोकर जब उसका पूजन कर चुका, तब उसका धोवन हेमकूट पर्वतपर गिरा । वहाँसे शंकरजीके पास पहुँचकर वह जल गंगाके रूपमें उनकी जटाओंमें स्थित हुआ। वे बहुत काल जटाओंमें भ्रमती रहीं । वहाँसे भगीरथजी उन्हें पृथ्वीपर लाये । इस प्रकार एक कथाके अनुसार यह जल ब्रह्माण्डकटाहके बाहरका जल है जो भगवान्के।चरणनखकी ठोकर लगनेसे वहाँसे इस ब्रह्माण्डके भीतर भगवान्के चरणको धोता हुआ बह निकला। दूसरी कथाके अनुसार परा-प्रकृति ही जो धर्मद्रवा नामसे जलरूपमें ब्रह्माके कमण्डलुमें थीं, उसीसे भगवान्काmचरण जब धोया गया तो वह धोवन ही गंगा नामसे विख्यात हुआ । भगवान्के चरणका धोवन होनेसे
'विष्णुपदसरोजजा' और 'विष्णुपदकंजमकरन्द' आदि नाम हुए। चौथी कथा भा० ४। १ । १२ - १४ में यह लिखी है कि महर्षि मरीचिजीके कर्दमजीकी पुत्री कलासे
दो पुत्र कश्यप और पूर्णिमा हुए। पूर्णिमाकी कन्या देवकुल्या हुई । यही कन्या दूसरे जन्ममें श्रीहरिचरणकी
धोवनसे गंगारूपमें प्रकट हुई।' गाधि सूनु सब कथा सुनाई ''सब' कहकर जनाया कि श्रीरामजीकी भक्ति देख
विस्तारसे गंगाजीकी सब कथा कही । कौन कथा सुनायी, यह अगले चरणमें बताते हैं- 'जेहि प्रकार सुरसरि
महि आई।' (ख) विश्वामित्रजी 'भक्तिहेतु' श्रीरामजीको कथा सुनाया करते थे । यथा - ' भगति हेतु बहु कथा पुराना। कहे बिप्र जद्यपि प्रभु जाना ॥
त्रिपथगा की कथा पद्मपु० उत्तरखण्ड में यह है कि विष्णुभगवान् के आदेशसे गंगाजीआकाशसे चलीं। महादेवजी की जटाओं में समाहित हो गई। शिवजीने विन्दुसर में गंगाको छोड़ा। वहाँसे उनकी सात धाराएँ हुई। ह्रादिनी, पावनी और नलिनी पूर्व दिशाकी ओर गयीं। सुचक्षु, सीता और सिन्धु ये तीन पश्चिमको गयीं और सातवीं धारा भगीरथके पीछे-पीछे गयी। जनु ऋषि यज्ञ कर रहे थे। उनकी यज्ञसामग्री गंगाजीने बहा दी, इससे क्रोधमें आकर वे गंगाजी का सब जल पी गये। देवताओंने।उनको प्रसन्न किया और कहा कि गंगा आपकी कन्याके नामसे प्रसिद्ध होगी। तब मुनिने उन्हें कानके मार्गसे निकाल दिया और।भगीरथजी के पीछे-पीछे वे फिर चलीं । भगीरथके मनोरथ के लिये वे रसातलमें गयीं। इस प्रकार तीन धाराओंमें बहने से उनका त्रिपथगा नाम हुआ ।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।
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