गुरुवार, 19 दिसंबर 2024

मानसचर्चा।। हनुमानजी भाग चार।। सदगुरु।।

मानसचर्चा।। हनुमानजी भाग चार।। सदगुरु।।
गोस्वामीजी महाराज चरण रज की माँग कर रहे हैं। मार्ग की धूल यदि खुली आंख में पड़ जाए तो आँख को बंद कर देती है। लेकिन यही सद्गुरु के चरणों से स्पर्श हो जाए तो बंद आँख को खोल देती है। गोस्वामीजी यहाँ चरण रज से मन को पवित्र करना चाह रहे हैं-
श्रीगुरुचरन सरोज रज, निज मनु मुकुरु सुधारि।
बरनऊँ रघुबर बिमल जसु, जो दायक फल चारि ॥
मेरा मन विषय वासनाओं से बिगड़ गया है। इसको सुधारना चाहता हूँ।देखो रज तो माथे पर लगाई जाती है,
मन में नहीं लगाई जाती। श्रीगुरु पद रज मंजुल अंजन। नयन अभियदृग दोष विभंजन । तेहि करि विमल विवेक विलोचन। बरनउँ राम चरित भव मोचन ।। चरण रज तो काजल के रूप में नेत्रों में लगाई जाती है और हम सब महापुरुषों के चरण रज नेत्रों से ही तो स्पर्श करते हैं लेकिन यह सद्गुरु के चरणों की रज की महिमा है। यह सद्गुरु की महत्ता है कि चरणों की रज नेत्रों में लगाई और हमारा मन पवित्र हो गया। आँख देखने का कार्य करती है, आत्मा दर्शन करती है। हम जो आंख से देखते हैं उसको देखना कहते हैं जैसे ताजमहल, लालकिला हम देखते हैं लेकिन बिहारीजी को हम देखते नहीं बल्कि उनका दर्शन करते हैं। जगत् खुली आँख से तथा जगत्-पिता बंद आँख से दिखता है। आप मन्दिर में जाते हैं बिहारी जी के सामने खड़े होते हैं जैसे ही पुजारीजी पर्दा उठाते हैं तो हाथ जुड़ जाते हैं और आँखें बंद हो जाती हैं। माथे की आँखें होती हैं संसार को देखने के लिए। लेकिन ईश्वर को मन की आँखों से देखा जाता है। गुरुदेव के पावन चरणों की रज जब हमारे मन को पवित्र करती है तब मन भगवान् के दर्शन में लीन हो जाता है और मन पवित्र होता है। महात्मा पुरुषों के श्रीचरणों की कृपा से नेत्रों नें रज को स्पर्श किया, मन पवित्र हो गया जैसे बिजली का तार हाथ को छुआ तो झटका मन को लगा । इत्र को नाक ने सूंघा लेकिन मन आनन्द का अनुभव करने लगा। ऐसे ही मस्तक गुरुदेव के चरणों में झुका, मन अपने आप ही पवित्र हो गया। और मनुष्य का जब मन बिगड़ जाता है तो पूरा शरीर बिगड़ जाता है। शरीर की जीवन यात्रा बिगड़ जाती है, जीवनचक्र बिगड़ जाता है। अपवित्र मन हमेशा अपवित्र कार्य कराता है। इसलिए मन शान्त नहीं चाहिए बल्कि मन शुद्ध चाहिए। हम मन की शान्ति की माँग करते हैं। मन शान्त नहीं होता,
मन शुद्ध होता है। मन जब शुद्ध होता है तब मन शान्त हो जाता है। अन्यथा मन अशुद्ध है, विकार वासनाओं
से भरा है तो लाख प्रयत्न करिए मन कभी शान्त होगा ही नहीं। जैसे किसी चिकने बर्तन को साफ करने के लिए हम उसे बालू से, मिट्टी से रगड़कर साफ करते हैं। जैसे बर्तन चमकाए जाते हैं ऐसे ही मन की काई 'को, मन की कीचड़ को गुरुदेव के पावन चरणों की रज साफ करती है। काई विषय मुकुर मन लागी । हमारे मन में विषयों की काई ने मन के दर्पण को इतना मैला कर दिया है कि उसमें कुछ दिखाई ही नहीं देता और भगवान् को तो निर्मल मन पसन्द है । निर्मल मन जन सो मोहि पावा । मोहि कपट छल छिद्र न भावा ॥ तो जब दृष्टि शुद्ध हो जाती है तो सृष्टि भी शुद्ध दिखाई देती है। तो गुरुदेव के पावन चरणों की रज । गीता में रज का भी एक दूसरा भी अर्थ बताया है। रज माने धूल भी है और रज माने रजोगुण भी है। गीता में कहा गया है कि-
काम एष:, क्रोध एषः, रजोगुण सुमुद्भव ॥
जो रज जगत् से जुड़ी है वो आपको गड्ढे की ओर ले जाएगी। लेकिन जो रज जगदीश से जुड़ी है वो आपको शिखर की ओर ले जाएगी। रज काम से जुड़ी है या रज राम से जुड़ी है। रज क्रोध से जुड़ी है या रज करुणा से जुड़ी है? काम और क्रोध ये दोनों मन को बिगाड़ते हैं। काम अच्छे-अच्छे महापुरुष को चौपट कर देता है। काम के दो बेटे हैं, क्रोध और लोभ । मूल में जो पाप है वो काम है। और किसी प्रकार का भी काम चाहे वो स्त्रीजन्य काम हो या पुरुषजन्य काम हो, वस्तुजन्य काम हो या इन्द्रियजन्य काम हो, कामनाजन्य काम हो या वासना जन्य काम हो, कोई भी काम का स्वरूप हो, जब हमारे भीतर काम का उदय होता है तब लोभ पैदा हो जाता है कि कामना मेरी सदैव पूरी होती रहे। और अगर काम पूर्ति में विघ्न आता है, बाधा आती है तो फिर हम क्रोध की आग में जलते हैं, फिर हम प्रतिशोध की आग में जलते हैं। मूल में काम है, उसने बहुत बड़े-बड़े महापुरुषों को चौपट किया है।भगवान् शिव के प्रसंग में गोस्वामीजी ने लिखा है कि जब काम ने आक्रमण किया तो इस जगत् की दशा क्या हो गई-
भए कामबस जोगीस तापस पावँरन्हि की को कहै।
देखहिं चराचर नारिमय जे ब्रह्ममय देखत रहे ।
अबला विलोकहिं पुरुषमय जग पुरुष सब अबलामयं ।
दुई दण्ड भरि ब्रह्माण्ड भीतर काम कृत कौतुक अयं ।।
चौबीस घण्टे भगवान् के नाम में डूबे रहनेवाले, भगवान् के श्रीचरणों का आशीर्वाद लेने वाले ये जो श्रीनारदजी हैं उनको भी चौपट कर सकता है तो हमारी और आपकी तो हैसियत ही क्या है, औकात ही क्या है ? इसी काम ने नारदजी को चौपट किया और क्रोध की, लोभ की, अग्नि में सड़ा दिया। लेकिन भगवान् की शरणागति थी, नारद जी भगवान् की शरण में आए तो रोकर नारदजी ने कहा प्रभु जो होना था वो तो हो गया, लेकिन इस रोग से मुक्त तो कराइए। तो भगवान् ने कहा कि रोग से मुक्ति तो वैद्य जी ही कर सकते हैं। औषधि तो उनके पास ही रहती है । वैद्य कौन हैं ? बोले सद्गुरु वैद्य हैं। मन के रोगों की औषधि तो सद्गुरु के पास है। कौन है? बोले भगवान् शिव हैं। तुम त्रिभुवन गुरु वेद बखाना। भगवान शिव के चरणों में जाओ और वहीं काई की कीचड़ को साफ कर आओ। नारद जी ने पूछा वहाँ जाकर करूं क्या? उन्होंने कहा एक ही काम करो-जपहु जाइ शंकर सत नामा। होइहि हृदय तुरत विश्रामा।। जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी । सो न पाव मुनि भगति हमारी ॥ शंकरजी त्रिभुवन के गुरु हैं। भगवान के सामने नारदजी खड़े हैं। भगवान् रोग मुक्त कर सकते थे लेकिन भगवान् मर्यादा का पालन करते हैं। बोले रोग की औषधि तो वैद्यजी के पास है और सतगुरु ही वैद्य हैं। हनुमानजी स्वयं सद्गुरु की भूमिका में जै जै जै हनुमान गौसाईं, कृपा करहु गुरुदेव की नाई। तो गुरुदेव के रूप में श्रीहनुमानजी का स्मरण  करें -
श्री गुरु चरन् सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि ॥
बरनउँ रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि ॥
हमारे द्वारा जो भी पाप होता है वह कामना के द्वारा होता है इसलिए साधु बहुत सावधान रहते हैं। वे दिन-रात इस बात को गुनगुनाते हैं-
चाह गई चिन्ता मिटी मनुआ बेपरवाह ।
जाको कछू न चाहिए सोई शहनशाह।।
एक संत ने बहुत अच्छा कहा- वो कहते हैं कि "चाह जर से लगी, जी जरा हो गया। चाह हर से लगी, जी हरा हो गया।" जी को जलाना है तो जरा से चाह कर। अगर जी को हरा-भरा करना है तो चाह हरि के चरणों में, हरि दर्शन की चाह, हरि दर्शन की प्यासी । जीवन हरा-भरा रहेगा। तो ऐसे पावन चरण जहाँ मिले वहाँ शीश को झुकायें। मन भी पवित्र होगा और शान्त व आनंदित और गौरवान्वित भी रहेगा।  गुरु चरणों में बैठना माने सम्पूर्ण समर्पण,
अब सौंप दिया इस जीवन का, सब भार तुम्हारे हाथों में।
हनुमानचालीसा के प्रथम चरण में गोस्वामी जी गुरुदेव चरणों को नमन कर रहे हैं।हम भी गुरुदेव के चरणों की वन्दना करें, हे गुरुदेव हमारा वन्दन स्वीकार करें-
चरणों में गुरुवर के प्रणाम करता हूँ,
स्वीकार कीजिए दास की वन्दना ।
गुरु जी आप दयालु हैं दयावान हैं,
करते रहते सदा हम पर अहसान हैं ।।
भूल क्षमा कर देते हैं और अपनी शरण में लेते हैं ॥ १ ॥
हम तो भटक रहे थे अंधकार में,
कोई मंजिल नहीं थी संसार में।
धर्म का दीपक जला दिया,
हमें भजन का मारग बता दिय ॥ २ ॥
अब तो मन में हमारे यही है लगन,
कर दें कृपा तो हो जाए प्रभु से मिलन |
हमको भक्ति का वर देना,
थोड़ी आप सिफारिश कर देना ॥ ३ ॥
चरणों में गुरुवर के प्रणाम करता हूँ ।
स्वीकार कीजिए दास की वन्दना ।।
तो गुरुदेव के श्रीपावन चरणों की रज से गोस्वामीजी ने अपना मन सुधारा है-
श्री गुरु चरन सरोज रज, निज मनु मुकुरु सुधारि ।
यह सिद्धान्त कि शुद्ध मन ही भगवान् का वरण कर सकता है क्योंकि भगवान् को निर्मल मन ही भाता है।
निर्मल मन जन सो मोहि पावा । मोहि कपट छल छिद्र न भावा ॥ और भगवान् को अगर वरण करना हो तो मन निर्मल चाहिए। मन तो हमेशा अपने यश का ही गुणगान करता है। अपना ही वर्णन करता है। आपने ऐसे अनेक लोग देखे होंगे जब देखो अपनी ही गाथा, हमने ये किया, वो किया, ऐसा किया, वैसा किया। विमल यश तो केवल भगवान का है। निर्मल और मैले का अन्तर क्या है? जो वर्णन अपने मन में ईर्ष्या पैदा करे, जलन पैदा करे, प्रतियोगिता का प्रतिद्वन्दता का, प्रतिशोध की भावना जगा दे वो वर्णन सांसारिक है। और जो वर्णन मन को शान्ति से, आनन्द से, प्रसन्नता से, भक्ति से भर दे हमको विश्राम प्रदान कर दे, वो वर्णन ईश्वर का है। गोस्वामीजी ने लिखा है कि अगर जिह्वा को पावन करना है तो भगवत् यश गाएं, गोस्वामीजी बालकाण्ड के अंत में खुले मन से बोले-
निज गिरा पावनि करन कारन राम जसु तुलसी कह्यो ।
रघुबीर चरित अपार बारिध पारु कबि कौने लह्यो ।
उपबीत ब्याह उछाह मंगल सुनि जे सादर गावहीं।
बैदेहि राम प्रसाद ते जन सर्वदा सुख पावहीं ॥
गोस्वामीजी बोले हैं कि मैंने तो अपनी जिह्वा को पावन कर लिया है। आज विज्ञान का युग है, विज्ञान ने बहुत प्रकार की प्रगति की है। कल्पनातीत प्रगति की है। लेकिन इतने बड़े वैज्ञानिक युग में भी तन के मैल को साफ करने के प्रसाधन बने हैं। अनेक प्रकार के साबुन, शैम्पू, डिटरजेंट हैं लेकिन मन के मैल को धोने का न कोई साधन है न कोई साबुन है। और मुझे लगता है कि न तो विज्ञान बना पाया है और न ही भविष्य में बना पाएगा। चूंकि तन के मैल को धोया जा सकता है मगर आत्मा के मैल को तो कृपा ही धो सकती है। गोस्वामीजी ने लिखा है कि यदि मन का मैल धोना हो तो-
रघुवंश भूषण चरित यह नर, कहहिं सुनहिं जे गावहीं।
कलिमल मनोमल धोई बिनु श्रम ,रामधाम सिधावहीं ॥।
सत पंच चौपाई मनोहर जानि जो नर उर धरै ।
दारुन अबिद्या पंच जनित विकार श्री रघुबर हरै ||
जाकी कृपा लवलेस ते मतिमंद तुलसीदास हूँ ।
पायो परम बिश्राम राम समान प्रभु नाहीं कहूँ ।।
मन का मैल बिना परिश्रम के धुल जाएगा। और गुरुदेव के चरणों की पावन रज से जब मन शुद्ध हो गया तब गोस्वामीजी भगवान् के यश का वर्णन करने लगे, बरनउँ रघुवर बिमलजसु जो दायकु फल चारि ॥
हमने ऐसा सुना है कि दिन में गोस्वामीजी हनुमानजी के विषय जो कुछ लिखते थे , हनुमानजी महाराज रोज रात को इनका लेख मिटा जाते थे। हनुमानजी को लगता था कि मेरा क्यों यश वर्णन करते हैं ? मेरे प्रभु का यश वर्णन करना चाहिए। कई दिन जब ये घटना हुई तो गोस्वामीजी को बहुत चिन्ता हुई कि यह हो क्या रहा है? एक दिन
रोकर गोस्वामीजी ने हनुमानजी का आवाह्न किया और शिकायत की कि मैं इस वृद्धावस्था में लिख रहा हूँ और कोई मेरे लेख को मिटा जाता हैं। तो हनुमानजी मुस्कुराने लगे कि अरे यह तो हम मिटाते हैं। प्रभु आप !
हनुमानजी ने कहा भैय्या! बन्दर का क्या यश होता है? यश तो रघुवर का होता है। भगवान् के यश गाओ न! गोस्वामीजी ने कहा कि सरकार मैं तो रघुवर का ही यश गा रहा था, रघुवर का। तुम तो बन्दर का यश गा रहे थे। अरे सरकार ! आप भी तो रघुवर है, रघुवंशी हैं। आखिर आप भी तो रघुवंश में आ गए कि नहीं ? हनुमानजी ने पूछा मैं कैसे आ गया? गोस्वामीजी बोले माता-पिता से ही तो वंश चलता है। उन्हीं का अंश तो वंश के रूप में आगे बढ़ता है। और आप तो रघुवंशी हैं क्योंकि आपके माता-पिता तो भगवान् जानकीनाथ हैं, और आपको माँ ने आशीर्वाद दिया था कि नहीं? अजर अमर गुन निधि सुत होहू । करहुं बहुत रघुनायक छोहू ॥सुन सुत करहिं बिपिन रखवारी । परम सुमट रजनीचर भारी ।। हैं सुत कपि सब तुमहि समाना । जातु धान अति भट बलवाना।। सुन सुत तोहि उरिन मैं नाहीं । देखेउँ करि विचार मन माहीं ॥ अजर अमर गुण निधि सुत होहू । आखिर हनुमान को सुत कहकर माँ ने बोला कि नहीं? और भगवान राम  ने भी सुत कहकर सम्बोधित किया है। सुन सुत तोहि उरिन मैं नाही। महाराज लव-कुश का जन्म तो रघुवंश में बहुत बाद में हुआ है। उसके पहले तो दत्तक पुत्र के रूप में रघुवंश में आप आ चुके हैं। और दत्तक पुत्र का भी गोत्र वही होता है जो परिवार का होता है। इसलिए हनुमानजी भी रघुवंशी हैं, हनुमानजी का यश
भी रघुवर का यश है और दोनों में कोई अन्तर नहीं-
बरनउँ रघुवर बिमल जसु जो दायकु फल चारि ॥
हनुमानचालीसा की विशेषता देखो इसके पाठ का फल पहले ही घोषित कर दिया है। अन्यथा तो पाठ
जब पूर्ण हो जाते हैं, तब उसका फल घोषित किया जाता है। पूरा गोपाल सहस्रनाम पढ़ लीजिए फल उसका
बाद में प्राप्त होता है। विष्णु सहस्रनाम का फल भी बाद में घोषित होता है, सुन्दरकाण्ड का फल भी बाद में
घोषित होता है।
सकल सुमंगल दायक, रघुनायक गुन गान ।
सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिन्धु बिना जलजान ।।
सबके फल बाद में। लेकिन हनुमानचालीसा का फल पाठ से पहले घोषणा कर रहा है- जो दायक फल चारि।।
उसको चारों फल प्राप्त होंगे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष- देहि सद्य फल प्रकट प्रभाऊ ॥ हम ऐसे फल देने वाले सदगुरु श्री हनुमानजी से प्रार्थना करते हैं कि उनकी कृपा हम सब पर सदा बनी रहे।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें

सदस्यता लें टिप्पणियाँ भेजें [Atom]

<< मुख्यपृष्ठ