बुधवार, 11 दिसंबर 2024

मानस चर्चा।। जात कर्म।।

मानस चर्चा।। जात कर्म।।
नंदीमुख सराध करि जातकरम सब कीन्ह ।
हाटक धेनु बसन मनि नृप बिप्रन्ह कहँ दीन्ह ॥ 
राजाने नान्दीमुख - श्राद्ध करके सब जातकर्म संस्कार किये और ब्राह्मणोंको स्वर्ण, गऊ, वस्त्र और मणि दिये ॥ 
नान्दीमुख - श्राद्ध करके तब जातकर्म किया जाता है। जातकर्मके पश्चात् दान दिया, यथा-
'जातकरम करि कनक, बसन, मनि भूषित सुरभि - समूह दए । '  'जातकरम करि, पूजि पितर- सुर, दिये महिदेवन दान । '  आइए आज हम 
'नान्दीमुख श्राद्ध ।' 'जातकर्म' के बारे में जानें।
जीवकी सद्गतिके लिये दस कर्म कहे गये हैं- गर्भाधान, सीमन्तक, जातकर्म, नामकरण, अन्नप्राशन,चूड़ाकर्म, कर्णवेध, यज्ञोपवीत, विवाह और मृतककर्म । जातकर्मसे लेकर विवाहतक सब कर्मोंके आदिमें आभ्युदयिक नामक प्रसिद्ध नान्दीमुख श्राद्धका अधिकार है। जन्मपर जातकर्म होता है, उसके आदिमें नान्दीमुख- श्राद्ध कर्म किया जाता है।निर्णय - सिंधुमें लिखा है कि जन्म, यज्ञोपवीत इत्यादि पर यह श्राद्ध पहले पहरमें होता है, परन्तु पुत्रजन्ममें समयका नियम नहीं है। यह श्राद्ध मांगलिक है; इसलिये पिताको पूर्वमुख बिठाकर वेदिकापर दूब बिछाकर चौरीठा, हरदी, तिल, दही और बेरीके फल मिलाकर इनके नौ पिण्ड बनाकर ,पिण्डदान कराया जाता है, फिर दक्षिणा दी जाती है।  'नान्दीमुख' नामका कारण यह है कि पितृगण इस पिण्डको लेनेके लिये नाँदकी भाँति मुख फैलाये रहते हैं । 
जातकर्म' क्या है?
इस संस्कारमें बालकके जन्मका समाचार सुनते ही पिता मना कर देता है कि अभी बालककी नाल न काटी जाय । तदुपरान्त वह पहने हुए कपड़ों सहित स्नान करके कुछ विशेष पूजन वृद्धि - श्राद्ध आदि करता है। इसके अनन्तर ब्रह्मचारी, कुमारी, गर्भवती या विद्वान् ब्राह्मण द्वारा धोई हुई सिल पर लोहे से पीसे हुए चावल और जौके चूर्णको अँगूठे और अनामिकासे लेकर मन्त्र पढ़ता हुआ बालककी जीभपर मलता है। फिर मधु और घृत मिलाकर पिता उसे चार बार सोनेके पात्रसे बालककी जीभपर लगाता है। फिर कुश और जलसे बालकका प्रोक्षण करके आचार्य दहिने कानमें आठों कण्डिकाएँ सुनाते हैं। माता दहिना स्तन धोकर नाल और बालकपर डालती है। गणेशादिका पूजन करके, वेदी बनाकर सरसों, पीपल और घीकी आहुति देते हैं, शिवमन्त्रसे सूत बाँधा जाता है, फिर छुरेका पूजन करके नाल काटा जाता है। ये दोनों कर्म सूतिकागारहीमें होते हैं, पर आजकल प्रायः देखनेमें नहीं आते। सूतिकागृहमें जाकर देखनेकी भी रीति अब प्रचलित नहीं है।
(निर्णयसागर) में 'जातकर्म - निर्णय' प्रकरणमें यह विधान लिखा है कि सन्तानका जन्म सुनते ही पिता आदि कर्म करनेवाला वस्त्रसहित स्नान करके नालच्छेदनके पूर्व अथवा यदि उस समय न हो सका हो तो नामकरणके समय जातकर्म करे। चाहे रात्रिमें प्रसव हो, चाहे दिनमें, चाहे ग्रहणमें, मृताशौचमें, जननाशौचमें ही जन्म क्यों न हो, जातकर्म करना चाहिये । यथा—' श्रुत्वा पुत्रं जातमात्रं सचैलं स्नात्वा कुर्याज्जातकर्मास्य तातः । नालच्छेदात्पूर्वमेवाथवा स्यान्नाम्नायुक्तं
पुत्रिकाया अपीदम् ॥ रात्रौ शावाशौचके जात्यशौचे कार्यं चैतन्मात्र पूजादियुक्तम् ।' इति । (धर्मनौकायाम्)
जातकर्मके पश्चात् दानका विधान इस प्रकार है। सुवर्ण, भूमि, गौ, अश्व, छत्र, छाग, वस्त्र, माल्य,
शय्या, आसन, गृह, धान्य, गुड़, तिल, घृत और भी जो घरमें द्रव्य आदि हो वह दानमें दिया जाय ।
पुत्रजन्मके समय घरमें पितर और देवता आते हैं, इसलिये वह दिन पवित्र माना जाता है, ऐसा महाभारतके
आदिपर्वमें कहा है। दान और प्रतिग्रह नालच्छेदनके पूर्व अथवा उस दिनभर करे, ऐसा मनुस्मृति और
शंखस्मृतिमें कहा है। यथा - ' अत्र दद्यात्सुवर्णं वा भूमिं गां तुरगं तथा । छत्रं छागं वस्त्रमाल्यं शयनं चासनं गृहम् ॥
धान्यं गुडतिलां सर्पिरन्यच्चास्ति गृहे वसु । आयान्ति पितरो देवा जाते पुत्रे गृहं प्रति ॥ तस्मात् पुण्यमहः प्रोक्तं
भारते चादिपर्वणि । दानं प्रतिग्रहं नाभ्यामच्छिन्नायां तदह्नि वा ॥ कुर्यादित्याहतुः शंखमनू इति । '
नालच्छेदन और सूतकके सम्बन्धमें शास्त्र कहता है कि जबतक नाल काटा नहीं जाता तबतक सूतक प्रारम्भ
नहीं होता। काटनेके पश्चात् सूतक लगता है । यथा - 'यावन्न छिद्यते नालस्तावन्नाप्नोति सूतकम् । छिन्ने नाले ततः
पश्चात् सूतकं तु विधीयते ॥ ' ( स्कन्द पु० अ० ११ । ३१) जन्मसे छः मुहूर्त अर्थात् लगभग पाँच घंटेके भीतर और
संकटकालमें आठ मुहूर्त अर्थात् लगभग छः घंटेके भीतर नालच्छेदन हो जाना चाहिये। इसके पश्चात् तो सूतक लगेगा ही । चाहे नालच्छेदन हो या नहीं हो। यथा- 'कालप्रतीक्षा बालस्य नालच्छेदनकर्मणि । षण्मुहूर्त्तात्परं कार्यं संकटेऽष्टमुहूर्तके ॥
तदूर्ध्वं छेद्यमच्छेद्यं पित्रादिः सूतकी भवेत्।' (संस्कारभास्कर 'जातकर्म - निर्णय' प्रकरण)
ये हैं ।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें

सदस्यता लें टिप्पणियाँ भेजें [Atom]

<< मुख्यपृष्ठ