मानस चर्चा।।संत हृदय।।
मानस चर्चा।।संत हृदय।।
संत हृदय नवनीत समाना। कहा कबिन्ह परि कहै न जाना॥
निज परिताप द्रवइ नवनीता। पर सुख द्रवहिं संत सुपुनीता॥
आइए इस प्रसंग में इस कथामृत का रसपान करें।
एक महात्मा थे श्री माधव दास जी महाराज, श्री वृंदावन
धाम में निवास किया करते थे। एक बार श्री जगन्नाथ पुरी
जा कर रहे तो वे नित्य भिक्षा के लिए जाते थे।
नारायण हरि - भिक्षां देहि कहकर भिक्षा मांगा करते थे,
लोग अपना सौभाग्य मानते थे। संत को भिक्षा देकर अपने
को धन-धान्य को धन्य करते थे। और एक वृद्धा माता कुछ नहीं देती थी गाली देती थी कहती निठल्ले कुछ नहीं किया जाता और निकल आते हैं दे दो दे दे दे दो।
और महात्मा भी बड़े अद्भुत उसके घर जरूर जाते, किसी
ने उनसे कहा कि बाबा अरे जब वह कुछ नहीं देती है उनके यहां क्यों जाते हो ?
माधव दास जी बोले अरे वह वो चीज देती है जो कोई नहीं
देता, गाली तो देती है कुछ ना कुछ तो देती है।
खोद खाद धरती सहे काट कूट वन राय ।
कुटिल वचन साधु सहे सबसे सहा न जाए । ।
अच्छा बृद्धा माता के बेटे का विवाह हो गया था, बेटे के घर
किसी बेटे का जन्म नहीं हुआ था। पौत्र का जन्म नहीं हुआ था इसलिए वह वृद्धा माता बड़ी दुखी रहती थी।
महात्मा को देखकर गाली देती एक दिन सदा की तरह
माधव दास जी उसके दरवाजे पर गए। कहने लगी तू फिर
आ गया निठल्ले ?
कपड़े का पोता लेकर हाथ में पुताई का काम कर रही थी,
कीचड़ से सना हुआ वह वस्त्र खंड महात्मा को देखकर वृद्धा माता ने फेंककर उस पोता से महात्मा को मारा।
वह वस्त्र खंड महात्मा के जाकर छाती से लगा और नीचे
गिर गया, बुढ़िया ने मार तो दिया लेकिन डर गई कहीं बाबा श्राप न दे दे ?
लेकिन महात्मा मुस्कुराने लगे और वह कपड़े का वस्त्र खंड
उठा कर बोले चल मैया तूने कुछ दिया तो सही, लेकिन अब हम भी बिना दिए नहीं जाएंगे। संत माधव दास भी उत्तर इसी का देगा |
पोता अगर दिया है तो जा पोता तुझे मिलेगा ।।
माधव दास जी उस मिट्टी कीचड़ से सने हुए वस्त्र को लेकर आए जल से धुला उसके मटमैलेपन को दूर किया।
कंकड़ों को धोया साफ कर दिया। और फिर घी में डाल दिया और घी से निकाल कर बत्ती बना दी और फिर दीया जला दी और मंदिर पर रख दिया उसको और वह वस्त्र खंड अपने सौभाग्य की सराहना करते हुए कह रहा है-कि
धन्य है सत पुरुषों का संग, बदल देता है जीवन का रंग।
पोता में रोता था जहां रक्त और पीर।
चौकी में फेरा जाता था मरते थे लाखों जीव ।
आ गया था जीवन से तंग, धन्य है सत पुरुषों का संग।
झूला करूँ आरती ऊपर गरुण करे गुनगाथ।
देते हैं मेरे प्रकाश में दरसन दीनानाथ ।।
आशीषें अंधे और अपंग। धन्य है सत्पुरषों का संग।
अब मैं आरती के ऊपर झूलता हूँ, मेरे प्रकाश से लोगों को
भगवान् का दरसन होता है। अंधे अपांग आशीष देते हैं।
भक्त उमंग में भरकर मुझे स्वीकार करते हैं।
जिंदगी बदल दी केवल महात्मा के सत्संग ने ।। इधर पोता आरती में मस्त और उधर संत की बात मिथ्या नहीं जाती भगवान भी संतो की बात की मर्यादा रखते हैं।भगवान संत की मर्यादा रखे उस बुढ़िया के घर पोता का जन्म हुआ। वह बुढ़िया अब गाती और कहती -
पोता दियो ना प्रेम से रिसि वस दीन्हो मार।
ऐसे पुण्यन सो सखी मोरे पोता खेलत द्वार ।।
जो मैं ऐसे संत को देती प्रेम प्रसाद।
तो घर में सुत उपजते जैसे ध्रुव प्रहलाद ।।
बाबा तुलसीदास जी ने तभी तो कहा है_
संत हृदय नवनीत समाना।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।
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