मानस चर्चा।।ईश्वर गर्व हारी हैं।।
मानस चर्चा।।ईश्वर गर्व हारी हैं।।
करुनानिधि मन दीख बिचारी।उर अंकुरेउ गरब तरु भारी। बेगि सो मै डारिहउँ उखारी । पन हमार सेवक हितकारी ॥
एक बार गरुड़, सुदर्शन और रुक्मिणी इन तीनों को गर्व हुआ गरुड़ ने सोचा कि यदि हम भगवान के वाहन न हों तो वे कैसे एक क्षण में एक लोक से दूसरे लोक में पहुँच सकते हैं । हमारी शक्ति से ही वे सभी काम कर पाते हैं । सुदर्शन ने मनमें विचारा था कि भग- वान मेरे ही द्वारा बलवान से बलवान दैत्यों का वध करते हैं । यदि मैं .
न रहूँ तो उनके पास कोई ऐसा शस्त्र नहीं है जिससे ये इतना काम लें। और रुक्मिणी ने सोचा कि मैं ही सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी हूँ, इसी से भगवान मुझपर लट्टू रह्ते है ।
भगवान तीनों के हृदय की बात जान गये । उन्होंने विचारा कि तीनों हमारे भक्त है। इनके हृदय में अभिमान का होना अच्छा नहीं। शीघ्र से शीघ्र गर्व का नाश कर देना चाहिये। ऐसा सोच एक दिन उन्होंने गरुड़ से कहा कि तुम कदलीवन जाओ और हनुमान को बुला लाओ। उससे जाकर कहना कि भगवान तुम्हें द्वारिका में बुलावे है। भगवान के इतना कहने पर गरुड़ बड़े वेग से कदलीवन को ओर चला । इसके बाद भगवान ने सुदर्शन से कहा कि तुम आज द्वार पर पहरा दो, कोई अन्दर न आने पावे । जो बल पूर्वक आना चाहे उसका सिर काट लो । सुदर्शन भी अपने पहरे पर जा डटा । अन्त में उन्होंने रुक्मिणी से कहा कि तुम जल्दी सीता का स्वरूप बनाओ । रुक्मिणी भी शृङ्गार में लग गई । इधर गरुड़ उड़ता २ बड़ी कठिनता से दो पहर में एक हजार कोस कदली बन पहुँचा, हनुमानजी उस समय भगवान की पूजा कर रहे थे, गरुड़ ने भगवान का सन्देस सुनाया। हनुमानजी ने पहले तो गरुड़ जी
का सेवा सत्कार किया, बाद में कहा कि आप वृद्ध हैं। आगे चलिये- मैं भगवान की पूजा समाप्त कर शीघ्र आता हूँ । हनुमान की बातें सुन गरुड़ जी बड़े क्रोधित हुये और कहने लगे कि तुम आगे चलो, तुम्हारी क्या शक्ति है, तुम्हारा बाप पवन भी हमारी बराबरी नहीं कर सकता । गरुड़ जी को क्रोधित देख हनुमान ने नम्रतापूर्वक कहा, महाराज ! भगवान का सन्देश आपने सुना दिया,
हम आ ही गये, आप चलिये हम तो आते ही हैं। गरुड़ भी चल दिये।इधर हनुमान पूजा से निवृत्त हो तुरत द्वारिका पहुँचे, राह में सुदर्शन द्वारपाल मिला उसने हनुमान को रोका। हनुमान ने सोचा कि आज क्या बात है कि हमारे लिये द्वारपाल नियुक्त है ? उन्होंने सुदर्शन को पकड़ कर कांख में दबा लिया और भीतर बढ़े। दूर हनुमान को आते देख भगवान ने रुक्मिणी से कहा जल्दी सीता का रूप बनाओ, रूक्मिणी सीता का रूप नहीं धारण कर सकी तुरत भगवान ने माया की सीता बना लिया, माया की सीता को देखकर रुक्मिणीजी स्वयं ही लज्जित हो गयी, हनुमान्जी आते ही चरणों में गिर पड़े | भगवान् ने कुशल प्रश्न पूछा, दोनों में देर तक बातचीत होती रही । जब हनुमान् विदा होने लगे तब भगवान ने कहा हनुमान ! द्वार पर कोई तुम्हें मिला भी था, हनुमान ने कांख के भीतर से सुदर्शन को निकाल कर दिखा दिया । भगवान बड़े प्रसन्न हुये । हनुमान भी उन्हें प्रणाम कर कदलीवन चले गये ।
भगवान ने पहले सुदर्शन से पूछा तुम तो बड़े बलवान थे फिर एक कपि के द्वारा क्यों पराजित हुये, सुदर्शन उज्जित हो गया । सायंकाळ में भगवान रूक्मिणी से पूछने लगे कहो तुम तो बड़ी रूपवती हो, फिर भी लज्जित हो गई, एक पहर रात बीतते गरुड़ भी हांफता - कांपता पहुँचा और भगवान से बोला कि हम सन्देश दे आये हैं, शायद कल !' तक वह पहुँच सके । भगवान ने कहा अरे वह तो दो पहर के ही बाद में आया था और लड्डू पेड़ा खाकर चला गया। आप कहां रहे आप तो बड़े शीघ्रगामी हैं न ? गरुड़ यह सुनकर बड़े लज्जित हुये उस दिन से सबों ने अपना गर्व त्याग दिया ।यह सच ही कहा गया कि
शील भक्ति सब नष्ट हो, आवे जब अभिमान ।
दुख दायक नाशक इसे, निश्चय मनवां मान ॥
।। जय श्री राम जय हनुमान।।
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