मानस चर्चा।। प्रेम
मानस चर्चा।। प्रेम
आधार मानस की ये प्रसिद्ध पक्तियाँ हैं
अगुन अरूप अलख अज जोई।
भगत प्रेम बस सगुन सो होई।। यह सच ही कहा गया है कि प्रेम ही ईश्वर है और ईश्वर ही प्रेम है ।
प्रेम पियाला जो पिया, का मानुष क्या देव ।
सगुण रूप ईश्वर भयो, जान्यो जगको भेव ॥
शृङ्गेरी मठ में बाबा रामगिरि नाम के धनाढ्य महन्त रहते थे
चारों ओर उनका खूब नाम था । हजारों चेले रोज दर्शन के लिये आते जाते रहते थे । मठ में किसी बात की कमी नहीं थी। सैकड़ों साधु अतिथि अभ्यागत रोज खा-खा कर दण्ड पेलते रहते थे । उसी मठ के पास के ही गाँव में एक गरीब रहता था, डील डौल तो उसका छोटा था परन्तु अपने पेट में अन्न खूब हँस २ कर भरता , २, ४ सेर भोजन से उसकी तृप्ति कभी नहीं होती थी । वह कभी- शायद हफ्ते दो हफ्ते में पेट भर अन्न पाता था।उसका नाम था संतोषदास।
वह नित्य बाबा जी के दर्शन के लिये मठ में जाया करता था क्योंकि लौटते समय उसे कुछ न कुछ प्रसाद अवश्य मिल जाता था । एक दिन उसने बाबा जी से प्रार्थना की, कि महाराज मुझे साधु बना लीजिये, हम आप लोगों की सेवा और भगवान का भजन करेंगे। मुझे भगवान के दर्शन की इच्छा है । क्या कोई ऐसी भक्ति है जिससे हम अपना मनोरथ सफल करें ? बाबा जी ने कहा- बेटा ! भगवान प्रेम से प्रसन्न होते हैं, तुम प्रेम करो, वे अवश्य दर्शन देगें, ऐसा कह कर बाबा जी ने उसे चेला बना लिया, उसे एक रुद्राक्ष की माला पहना दिया, और एक शालिग्राम की मूर्ति देकर बोले- देखो ! यही ठाकुर जी हैं, इनके बिना भोग लगाये कुछ न खाना । जाओ इन्हें ठाकुरबाड़ी में रख आओ वहां इनकी पूजा हुआ करेगी, रोज भोग लगा करेगा, तुम भी वही प्रसाद पाना, क्योंकि तुमसे नित्य ठाकुर जी की सेवा नहीं हो सकेगी। जिस दिन मन्दिर से प्रसाद न मिले, सिद्धा मिल जाय उस दिन अपना भोग लगा लिया करना।तब
संतोषदास ने कहा -- महाराज ! हमारा खुराक तो बहुत बड़ा है,इतना भोजन मुझे मिला करे जिससे पेट भर जाय । महन्त जी ने कोठारी को बुलाकर समझा दिया कि संतोषदास को पेट भर प्रसाद दिया करो ।वह नित्य गौओं को जंगल से चरा लाया करेगा । गायों को चराने जाते समय वह हाथ में एक कुल्हाड़ी और छूरा साथ रखता था क्योंकि जङ्गल में जङ्गली जीवों का भय रहता था । धीरे २ एकादशी का दिन आ पहुंचा मठ के सभी लोग व्रत रहे | संतोषदास क्या करता ? वह तो बिना ५ सेर अन्न खाये
रद्द हो नहीं सकता था। फौरन कोठारी जी के पास गया और ५ सेर सिद्धा लेने के बाद गौओं को ले कर जंगल की ओर चला। आगे सिद्धा गठिया लाया । जाते ही उसे स्मरण हो आया कि बिना भोग लगाये कैसे खायेंगे।
वह मन्दिर के पुजारी से अपने ठाकुर जी को मांग लाया और बड़े प्रेम से जङ्गल में यह सोचता हुआ चलने लगा कि आज धन्य भाग्य है ! इष्टदेव को भोग लगाकर प्रसाद पाऊँगा । जंगल में पहुँच कर उसने गौओं को चरने के लिये छोड़ दिया और अपने जंगल पूरी रसोई की व्यवस्था किया और ५ सेर आँटे की ५ रोटियां बना डाली । भोग लगाने के समय उसे याद हुआ कि भोग लगाने के समय तो मंदिर में घंट बजाया जाता था, वह तो है ही नहीं, फिर रोटियों को वहीं मूंद कर छिपा दिया और दौड़ता हुआ मंदिर में पहुँचा और पुजारी से कहा महाराज टन टन दो, पुजाराजी नहीं समझे। घंटा तो याद आता न था, केवल टन टन मांगता था ,महाराज भोग के पहले का टन टन दे दो ! महाराज भोग लगने के पहले का टन टन देदो ! इसबार पुजारी समझ गए और उसने एक पुराना घंटा दे दिया | झटपट दौड़ा हुआ जंगल में पहुँचा इस प्रकार
उसने बिचारा आज तो देर हो गई है, शायद इष्टदेव बहुत भूखे हों सब रोटियां भोग में नहीं रखूँगा, नहीं तो सब चट कर जायेंगे तो मैं तो यहीं भूखा पड़ा रहूँगा । ऐसा सोच उसने दो रोटियाँ भोग के लिये तुलसीदल डाल कर रखदी ऊपर से कपड़ा ओढ़ा कर आप थोड़ी दूर जाकर आँखें मूँद बैठ गया। पूरा एक घंटा बितने पर उठकर घंटा बजाया और भोगवाली रोटियों पर से कपड़ा हटाया। रोटियों को
साबित देख चिंतित हुआ और मनमें सोचने लगा जान पड़ता है कि आधे से कम रोटियों के रहने से भगवान ने भोग नहीं लगाया | तब उसने एक और रोटी उसमें मिला दो और कपड़े से ढँक थोड़ी दूर हटकर जा बैठा। आधे घंटे बाद फिर घंटा बजा कपड़ा हटाया, इस बार रोटियों को देख और घबड़ाया, मनमें कहा जान पड़ता है कि
इष्टदेव हम से भी ज्यादा भूखे हैं। अच्छा ! लो अब पांचों रख देते । फिर थोड़ी दूर पर जा बैठा, आधे घंटे बाद फिर वस्त्र उधार कर 'देखा कि रोटियाँ तो सब पड़ी हैं भगवान नहीं आये । अब लगा प्रार्थना करने, भगवान ! हम क्या अपराध किये कि हमारा भोग नहीं स्वीकार क्रिये । इधर सांझ होते २ संतोषदास मारे भूख के बेचैन हो गया ।
उसने निश्चय किया कि पेट में छुरा भोंक लेंगे, भगवान हमसे रुष्ट हैं। यह सोचकर जैसे ही वह अपने पेट में
छूरा भोकने लगा कि एक हाथ से भगवान - पकड़ लिये और दूसरे हाथ से उसकी सारी रोटियां खाने लगे तव सन्तोषदास ने उनका हाथ पकड़ लिया और कहने लगा कि तूं बड़ा निर्दयी है । आने में इतनी देर लगाई कि मैं भूखों मर गया । और अब सब अपने ही पेट में ठूंसने लगे। उसके भोलेपन पर भगवान मुग्ध होकर अंतर्ध्यान हो गये ।
इसी प्रकार हर एकादशी को वह भगवान का दर्शन किया
करता था, भगवान प्रेम से प्रकट होते हैं, प्रेम का नशा विचित्र होता है ।
हो जायगा मालूम जब चढ़ जायगा इसका नशा ।
रंग दिखलायेगा क्या क्या भूल कर तन की दशा ॥
दीन दुनिया त्यागकर बेफिक्र। हो मस्तायेगा।
तू जहां की झंझटों से। भी नहीं घबड़ायेगा ।।
तभी तो बाबा गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है कि
अगुन अरूप अलख अज जोई।
भगत प्रेम बस सगुन सो होई।।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।
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