रविवार, 17 नवंबर 2024

मानस चर्चा।।उत्तम मित्र।।

मानस चर्चा।।उत्तम मित्र।।आधार किष्किन्धाकाण्ड में प्रभु श्री राम का यह कथन ,
जे न मित्र दु:ख होहिं दुखारी। तिन्हहि बिलोकत पातक भारी॥
आगें कह मृदु बचन बनाई। पाछें अनहित मन कुटिलाई॥
जाकर ‍चित अहि गति सम भाई। अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई।।
आइए इस पूरे प्रकरण का आनंद इस कथा के माध्यम से लेते हैं,
जानि मीत करियो भलो ज्यों पीवो जल छान ।
बहुरि पड़ो पछतावनो, ना जाने गुन ज्ञान ॥
किसी जङ्गल में एक हरिन और एक कौआ आपस में बड़ी मित्रता पूर्वक रहते थे। दोनों अभिन्न हृदयी थे । किसी प्रकार का छल कपट नहीं रखते थे । दिन को दोनों अलग २ होकर अपना चारा दाना करते और सायंकाल में इकट्ठे हो एक स्थान पर वास किया करते थे । उसी जङ्गल में एक धूर्तं गीदड़ रहता था । उसने देखा, अरे ! यह हरिन तो बड़ा मोटा ताजा है । किसी प्रकार इससे मित्रता करूँ तो काम बने । एक बार इस पर विश्वास जमा लेने से फिर यह हमारे
में आ जायगा. तब इसे किसी व्याध के जाल में फँसा कर इसका मांस उड़ायेंगे ।ऐसा सोच कर उसी दिन साँझ होते २ गीदड़ हरिन के डेरे पर पहुँचा - कौआ उस समय तक नहीं लौटा था । वह हरिन को प्रणाम कर उसके निकट जा बैठा और सज्जनता की बात करने लगा उसके धार्मिक वचन को सुनकर हरिन बड़ा प्रसन्न हो कहने लगा- भाई
गीदड़ ! तुम तो बड़े पंडित जान पड़ते हो। गीदड़ ने कहा- नहीं मैं तो कुछ नहीं जानता, आप श्रीमानों की सेवा करना ही हमारा कर्त्तव्य है । सत्संग करने में ही हमने अपना जीवन व्यतीत किया है - अब हम आपसे मित्रता करके आपके साथ शेष जीवन व्यतीत करना चाहते । हरिन ने कहा अच्छी बात है आइये रहिये, हमको किसी बात का कष्ट नहीं- आपके रहने से और अच्छा ही रहेगा। सायंकाल  कौआ आया, वह हरिन के साथ गीदड़ को देख चकित हुआ, और अपने मित्र से उस अपरिचित के आने का कारण पूछने लगा । हरिन ने कह सुनाया, कि इन्होंने हमसे मित्रता की है । कौवे ने कहा- मित्रवर ! बिना जाने सुने आपने अच्छा काम नहीं किया । मित्र खूब जान बूझकर करना चाहिये, विना भलीभाँति परीक्षा लिये तुरत मित्र बना लेने पर पीछे पछताना पड़ेगा - हरिन ने कहा- भाई यह तो बड़ा भला है - सज्जनता की बातें किया करता है-
रहने दो एक जगह पड़ा रहेगा । हम लोगों का क्या लेगा । हरिन के कहने पर भी - कौवे ने कहा नहीं, विना कुलशील आचार-विचार जाने मित्रता करना मुर्खता है - अस्तु मैं सचेत कर देता हूँ- । आप बराबरइससे सावधान रहियेगा ।
धीरे-धीरे उन तीनों को रहते महीनों बीत गये । एक दिन गीदड़ ने विचारा अब हरिन को फँसाना चाहिये । नदी के किनारे जो कोदो,जो ,मकई का खेत है वहीं आज रात में इसे ले चलें खेत वाला जाल डाले है ही, जाते ही, यह उसमें फँस जायगा फिर हमारी खूब बनेगी ।
ऐसा सोच वह हरिन से बोला, मित्रवर ! आज नदी के किनारे एक खेत में चलिये, वहाँ खूब कोदो और हरी हरी मकई है,  आदि खूब खाने को हैं। दोनों मित्र मौज करेंगे। हरिन गीदड़ की बात में आ गया और उस खेत में जाकर जाल में फँस गया । हरिन को जाल में फँसते देख गीदड़ बड़ा खुश हुआ-अपने को बँधा देख हरिन ने गीदड़ से कहा मित्रवर ! मैं तो फँस गया - अब क्या करूँ । गीदड़ ने कहा पड़े रहो चुपचाप, सवेरे खेत वाला आकर खुद तुम्हें
छुड़ायेगा - इतना कहकर गीदड़ उसी खेत में छिप कर जा बैठा । काफी  रात बीतने पर हरिन को न देख कौआ बड़ा घबड़ाया - वह रात ही में इसे ढूँढ़ने निकला । ढूँढ़ते-ढूंढ़ते नदी के किनारे वाले खेत में इसे बंधा पाया । कौआ को देख हरिन रोने लगा और वोला मित्र ! तुम ठीक कहते थे । बिना जाने किसी से मित्रता करना भूल है । तुम्हारे उपदेशों को ठुकराने का फल पा रहा हूँ । कौवे ने कहा घवडाओ मत, देखो सवेरा हो रहा है । अव खेतवाला आता ही होगा,
जब वह आवेगा तब मैं तुम्हें सूचित कर दूँगा, उस समय तुम साँस रोककर पडे रहना । वह तुम्हें मरा समझ कर अपना जाल समेट लेगा और जब वह जाने लगेगा तब मैं तुम्हें कह दूँगा तब तुम उठकर बड़ी शीघ्रता से भाग जाना । हुआ ऐसा ही । खेतवाला जब इसे मरा समझ जाल समेट अपने घर जाने लगा तब कौवे ने काँव-काँव किया—-जिसे सुनते ही हरिन रफू चक्कर हुआ, यह देख खेतवाला डण्डा
घुमा कर हरिन के पीछे फेका, हरिन तो निकल गया, लेकिन वह डंडा मोटा गीदड़ राम के पीठ पर गिरा, जो हरिन का मांस खाने के लिये छिपा बैठा था उसका राम नाम सत्य भी हो गया  --  यह भी सत्य है कि --विना परीक्षा किये मित्रता करना भारी भूल है,ये बातें सदा ही सत्य हैं,
मित्र वही जो सदा मित्र के कामें आवे ।
कष्ट पड़े पर सव प्रकार उसको अपनावे ॥
रण में वन में जिसे छोड़कर कभी न भागे ।
उपदेशों को सुने सुनावे छल को त्यागे ॥
जो सच्चे व्यवहार का, वही अनूठा मित्र है ।
इसके जो विपरीत हो, वह धोखे का चित्र है ॥ तभी तो गोस्वामीजी की ये बातें सदा ही जीवन के लिए उपयोगी ही हैं कि,
जे न मित्र दु:ख होहिं दुखारी। तिन्हहि बिलोकत पातक भारी॥
आगें कह मृदु बचन बनाई। पाछें अनहित मन कुटिलाई॥
जाकर ‍चित अहि गति सम भाई। अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई।।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

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