रविवार, 17 नवंबर 2024

मानस चर्चा ।।दुर्जन का संग।।

मानस चर्चा ।।दुर्जन का संग।।सुंदरकांड विभीषणजी का कहना है कि ‘बरू भल वास नर्क कर ताता। दुष्ट संग जनि देइ विधाता।।किसी विद्वान ने बहुत ही सुन्दर कहा है _
जो भल चाहो आपनो, गहो सुजन को संग ।
नीच नीचाई ना तजे, करै रंग में भंग ॥ आइए इस संदर्भ में इस अद्भुत ज्ञानप्रद, शिक्षाप्रद एवं प्रेरक कथा का आनंद लेते हैं,बहुत पहले काशी में सतानन्द नाम का एक ब्राह्मण रहता था । उसको एक साधु नाम का पुत्र था। ब्राह्मण उसे बराबर उपदेश दिया करता था कि कभी दुर्जनों के पास मत बैठो। उसके संग आदमी बिगड़ जाता है - सज्जनों का संग लाभकारी है । सन्तों की महिमा अपरम्पार है तुम यदि अपनी उन्नति चाहते हो तो कभी कुसंग में न जाना ।
ब्राह्मण ने लड़के को पढ़ने के लिये पंडित जी के पास भेजा । परन्तु लड़के का मन पढ़ने लिखने में नहीं लगता था, वह सवेरे ही पोथी पत्तरा लेकर घर से निकल जाता और राह में बुरे लड़कों के साथ खेलता रहता था । जब पढ़ने का समय आता तव पाठशाला जाता और छुट्टी होते ही फिर अपने खेल वाले साथियों के साथ घंटों उधम
मचा कर घर आता था। कुछ दिन के बाद तो वह दो २ चार २ दिन पाठशाला से गायब रहने लग गया । दिनभर बुरे साथियों के साथ गुल्ली डंटा और कबड्डी खेला करता था ।
धीरे २ वह इन साथियों के साथ जूआ भी खेलने लग गया । उसे लोगों ने शराबी भी बना दिया, अब उसकी रही सही वुद्धि भी नष्ट हो गई। वह रोज जुआ खेलने के लिये और मद पीने के लिये कोई न कोई घर की चीज उड़ा ले जाने लगा--रोज उसकी शिकायत सतानंद के पास आने लगी ।
ब्राह्मण ने अपने पुत्र को बड़ा डराया धमकाया, मारापीटा परन्तु सर्वं व्यर्थ हुआ । बाप ने उसकी शादी भी लड़कपन में ही कर दी थी । औरत घर में बैठी थी । जब बाप ने अपना धन दौलत बेटे के डर के मारे जमीन में छिपाकर गाड़ दिया, तब वह लगा अपनी औरत को ही सताने । यदि गहने देने में टाल टूल करती तो दो चार लात जमाकर छीन छान कर चलता बनता था । इस प्रकार कुछ दिन में उसने स्त्री के सारे जेवर भी चलता कर दिये । एक दिन वह घर से खाली हाथ लौटा और अपने दुर्जन मित्र से कहा कि यार आज तो कुछ नहीं पाये | क्या करें ? मित्र ने कहा - यार ! बुड़ढे के पास तो खूब दौलत है— क्यों नहीं उसका भुगतान कर देते ? फिर सारी माया तो तुम्हारी ही है न । बस उसी दिन उसने अपने बाप को जहर खिला दिया--
उसका बाप विचारा अकाल में ही चल चमा ।अब तो वह परम स्वतंत्र होकर मनमाना करने लगा। धीरे २अपने बाप की गाढ़ी कमाई दुर्जनों के संग से खो बैठा। एक दिन जुआ खेलते समय जब साधू के पास एक पैसा भी नहीं रहा तब उसके दुष्ट मित्र ने कहा - यार ! द्रव्य नहीं है तो क्या ? अपनी स्त्री को दाव पर रख दो, उसने वैसा ही किया दुर्जनों ने धोखा देकर जीत लिया। दूसरे दिन सवेरे दुष्ट लोग उसके घर पर पहुँचे और कहने लगे अपनी स्त्री दे दो, क्योंकि कल तुम जूये में हार चुके हो, बड़ा हल्ला मचा, आस पास के पड़ोसी इकट्ठे हो गये । सभी साधू को थूकने
लगे । नीच ऊँच समझाने लगे। उधर उसके सर्वस्व खाये पीये दोस्त ही , उसकी स्त्री को पकड़ कर घसीटने लगे, तब तो उसकी आंखें खुलीं और दुष्टों पर टूट पड़ा। फिर क्या था खूब मार पीट हुई। मामला अदालत में गया । हाकिम ने जूए के अपराध में साधू को एक वर्ष की जेल की, नेक चलनी पर  जल्दी ही छोड़ दिया गया और उन दों को जिन्होंने इसे बिगाड़ा था तीन २ वर्षे कठोर कारावास का दण्ड दिया । सत्य है - दुर्जन जन जीवन का नाश कर देते हैं। मनुष्यों को दुर्जनों से सदैव दूर रहना चाहिये । ठीक ही कहा गया है,
चरं पर्वत दुर्गेषु भ्रांतं वन चरैः सह ।
न मूर्ख जन सम्पर्कः सुरेन्द्र भुवनेश्वपि ॥
अर्थात् पहाड़ी स्थानों में वनचरों के साथ भटकते रहना अच्छा पर इन्द्र के घर में भी मूर्ख मनुष्य के साथ रहना ठीक नहीं, क्योंकि वनचर के साथ पहाड़ पर रहने में भी सुख मिलेगा परंतु मूर्ख के साथ इन्द्रपुरी में भी दुःख ही भोगना पड़ेगा ।
अध्यात्म रामायण में महादेवजी उमा से कहते हैं कि दुर्जन पुरुष का संग करने से पुरुष अपना स्वार्थ जो धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष है इन चारों से पतित हो जाता। जैसे राजकन्या कैकयी दुष्ट कुब्जा के संग से पति सेवा रूप धर्म, राजावश में होने से राजलक्ष्मी सम्बन्धी सुख रूपी अर्थ और पुत्र पति सम्बन्धी सुख रूपी काम और परब्रह्म परमात्मा श्रीरामचन्द्रजी की प्रसन्नता से ज्ञान द्वारा मोक्ष इन चारों से पतित हो गई इस कारण से दुष्टजनों का संग सर्वदा ही त्याज्य है।।
अतः संगःपरित्याज्यो दुष्टानां सर्वदैव हि।
दुःसंगी च्यवते स्वार्थाद्यथेयं राजकन्यका ।।
संस्कृत के ये दो श्लोक तो दुर्जनों का हिसाब ही कर देते हैं,
दुर्जनः परिहर्तव्यो विद्यालंकृतोऽपि सन् ।
मणिना भूषितः सर्प किमसौ न भयंकर ।।और सर्प एवं दुर्जन में सर्प को ही श्रेष्ठ कहा गया ,
"दुर्जनेषु च सर्पेषु वरं सर्पो न दुर्जनः।
सर्पो दंशति कालेन दुर्जनस्तु पदे-पदे।। इसीलिए तो "सुंदरकांड में विभीषणजी का कहना है कि ‘बरू भल वास नर्क कर ताता। दुष्ट संग जनि देइ विधाता।। हमें सदा सदा के लिए सचेत करता है।
।।जय श्री राम जय हनुमान।।

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