✓मानस चर्चा।।संत सहहिं दुख पर हित लागी।।
मानस चर्चा।।संत सहहिं दुख पर हित लागी।।
सन्त उसी को कह सकते हैं जो सांसारिक सुखों को तृण के समान त्याग दे और काम क्रोध लोभ दर्प भय तथा मोह रहित हो और शीलादि गुणों का निधान हो । पराये दुख में दुखी और सुख में सुखी हो जिसका न कोई बैरी हो और न प्रिय हो समत्व भाव हो तथा बुराई करने पर भी भलाई करे जैसा कि बाबा ने कहा है -
तुलसी सन्त सुअम्ब तरु, फूलहि फलहिं पर हेत ।
इतते ये पाहन इनत, उतते वे फल देत ॥ और भी देखें
संत असंतन्हि कै असि करनी। जिमि कुठार चंदन आचरनी॥ काटइ परसु मलय सुनु भाई। निज गुन देइ सुगंध बसाई॥ संत और असंतों की करनी ऐसी है जैसे कुल्हाड़ी और चंदन का आचरण होता है। हे भाई! सुनो, कुल्हाड़ी चंदन को काटती है (क्योंकि उसका स्वभाव या काम ही वृक्षों को काटना है), किंतु चंदन अपने स्वभाववश अपना गुण देकर उसे (काटने वाली कुल्हाड़ी को) सुगंध से सुवासित कर देता है॥
कुठार के काटने पर भी चंदन अपने गुण से उसकी धार में सुगंध बसा देता है इसका फल यह होता है कि चंदन फिर देवताओं के शिर पर चढ़ाया जाता है और कुठार की यह गति होती है कि आग में तपाकर तथा निहाई पर रख कर घन के चोटों से कूटा जाता है। संत जनों का स्वभाव ऐसा होता है कि बुराई करने पर भलाई करते हैं। आइए इस संबंध में हम इस दृष्टान्त कथा अमृत का रसपान करें।
एक नगर में पक महा दरिद्र ब्राह्मण रहता या यहाँ
तक कि उसको पेट पूर्ति के लिये भिक्षा भी कम मिलती थी और वह ब्राह्मण के वेद कथित कर्मों से रहित था विद्या तो बिल्कुल ही न पढ़ा था । इस प्रकार की दरिद्रता और दुख से दुखी था कुछ दिन पश्चात उसके भाग्य ने पल्टा खाया तो स्वयं ही उसके हृदय में विचार उत्पन्न हुआ कि अब मुझको राजा के घर जाकर भिक्षा मांगनी चाहिए ऐसा निश्चय कर अपनी पत्नी से कुछ भोजन का सामान साथ ले और घर का प्रबन्ध करके यात्रा पर चल दिया । रास्ते में उसे पक सुन्दर तालाब मिला उस का पानी निर्मल था ब्राह्मण ऐसे स्थान को देख कर वहीं पर स्नान करके भोजन के लिये बैठा तो सामने की बामी से एक काला भुजग निकला ब्राह्मण उसे देखकर भयभीत हुआ ब्राह्मण को भयभीत देख सर्प ने कहा कि आप निर्भय हो जाइये मैं आपको नुकसान नहीं पहुंचाऊंगा किन्तु यह बतलाइये कि आपने कहाँ को और किस हेतु प्रस्थान किया है । ब्राह्मण बोला कि मैं महा दीन हूँ राजा के द्वार भिक्षा की चेष्टा कर के जा रह हूँ । नाग बोला कि तुम को इस प्रकार धन नहीं मिलेगा हम बतावें सो प्रयत्न करना ।सर्प बोला कि प्रथम तुमको राज मंत्री मिलेगा तुम उससे कहना कि मैं ज्योतिषी ब्राह्मण हूं और राजा के एक प्रश्न का उत्तर एक साल के लिये देता हूं फिर वह तुमको राजा के पास ले जायगा फिर तुम को राजा सम्वत् के विषय में पूछेगा तब तुम कह देना कि राजन् इस साल में अधिक वर्षा होगी जिससे मनुष्य पशु और पक्षी सब दुख पायेंगे । जब ब्राह्मण देवता राजा के नगर में पहुचा तो प्रथम उसे मंत्री ही मिला मन्त्री ने पूछा तुम कौन हो । ब्राह्मण ने कहा कि मैं ज्योतिषी और महापंडित हूं और केवल राजा के एक ही प्रश्न का उत्तर एक साल को देता हूँ । मंत्री ने उसे अपने मकान पर आदरपूर्वक ठहराया और सवेरा होते ही टायम पर ब्राह्मण को राज दरवार में ले गया और राजा को सब वृतान्त सुनाया राजा ने वही नाग वाला प्रश्न पूछा ब्राह्मण ने प्रसन्न हो नाग ही वाला उत्तर बतला दिया । राजा के दरवार में ब्राह्मण चार माह तक रहा अन्त में वह प्रश्न वर्षा का ठीक निकला तो राजा ने ब्राह्मण की बहुत सा धन देकर विदा किया और कहा कि महाराज आप पुनः पधारने का कष्ट अवश्य करें मैं आपका आभारी रहूंगा और आप हमसे कुछ और चाहते हो तो बे झिझक मांग ले।अब उस ब्राह्मण ने यह सोच कर कि ऐसे प्रश्न को नाग किसी और को भी बतला देगा तो मेरी रोटी मारी जायगी अस्तु उसे मार देना चाहिये यह सोच राजा से कहा कि महाराज सौ कहार मेरे साथ भेज दीजिये राजा ने ऐसा ही किया । सो कहारों को उसी तालाब पर ले गया और सर्प की बामी में पानी डलवाने' लगा और बामी को पानी से भरवा कर अपने घर आ गया और आनन्द पूर्वक दिन व्यतीत करने लगा। जब दूसरी साल प्रारम्भ हुई तो फिर पहिले की तरह ही उसी तालब में स्नान करके भोजन को वैठा तभी वही सर्प बामी में से निकल कर दिखलाई दिया ब्राह्मण उसे देख कर भयभीत हो गया और सोचा कि मैंने तो इसको मरा जान कर चला गया था किन्तु यह तो जिन्दा है अब यह क्रोधित होकर मुझे छोड़ेगा नहीं । नाग उसे बहुत डरा हुआ जानकर बोला हे ब्राह्मण आप निर्भय हो जाइये मैं आपको कुछ नहीं करुगा,आप निर्भय हो जाइए । नाग ने कहा कि अब आपने कहाँ को प्रस्थान किया है। ब्राह्मण बोला कि उसी राजा के यहां जाता हूँ, तब नाग ने पूछा कि अबकी बार क्या बतलाओगे, ब्राह्मण बोला कि पहले वाली ही बात कह दूंगा।नाग ने कहा कि इस तरह पोल खुलने पर तुमको दण्ड मिलेगा, इस बार यह कहना कि इस साल अग्नी भय होगा । यह सुन विप्र वहां से चल दिया । जब राजदरवार में पहुचा तो ब्राह्मण को राजा ने प्रणाम कर पूछा कि महाराजजी यह सम्वत् कैसा है । ब्राह्मण ने नाग की कही हुई बात कहा राजन् ! इस वर्ष अग्नी का भय है, प्रजा दुखी रहेगी। राजा ने चार माह तक उसे अपने राज्य में रखा तो प्रत्यक्ष ही अग्नी भय हुआ फिर राजा ने ब्राह्मण को धन देकर विदा किया और चलते समय पूछा कि महाराज कुछ और आज्ञा है। ब्राह्मण ने कहा सौ गट्ठा लकड़ी भिजवा दीजिये राजा ने वही किया । अब उस दुष्ट स्वभाव ब्राह्मण ने सर्प की बामी पर लकड़ी रखवाकर अग्नि लगा अपने घर को गया और आनन्द से रहने लगा ।जब अगला संबत प्रारम्भ हुआ तो फिर उसी राज के यहां के लिए रवाना हुआ और उसी तालाब पर स्नान कर भोजन को बैठा तो वही सर्प फिर निकला अब ब्राह्मण कांपने लगा परन्तु नाग ने फिर भी प्रिय भाषण किया और कहा कि राजा से अबकी बार यह कहना कि प्रजा सुखी रहेगी । ब्राह्मण ने राजा के यहां जाकर पूछने पर वही बतलाया । राजा ने फिर उसे चार माह तक रखा सम्वत् ज्यों का त्यों हुआ राजा प्रसन्न हो उसे अत्यन्त धन दिया और कहा कुछ और आ ज्ञा है तब ब्राह्मण ने विचार किया कि नाग ने मुझे तीन वार सम्वत् प्रश्न बतलाकर धन दिलवाया है किन्तु मुझ अज्ञानी ने ऐसे संत के साथ ऐसा बुरा बर्ताव किया है । ऐसा विचार कर राजा से सौ गढ़ा दूध माँग कर बामी पर ले गया और सर्प की विनती की तब सर्प पहिले जैसा स्वभाव से ही निकला ब्राह्मण ने हाथ जोड़ कर क्षमा प्रार्थना की।नाग बोला कि तुमने मेरे साथ में जो दुष्कर्म किया उनसे मैं न तो क्रोधित हुआ और न इस दूध डालने से प्रसन्न हूँ मै सदैव एक स्वभाव रहता हूं ।तुमने जो कुछ किया उसमें तुम्हारा दोष नहीं क्योंकि मैं भी तो राजा के राज्य में निवास करता है। जब तुमने राजा में कहा था कि जल से प्रजा दुखी होगी तो मैं भी जल से तुम्हारे द्वारा दुखी हुआ और दुबारा अग्नी भय में अग्नी से दुखी हुआ फिर तीसरी बार प्रजा के सुखी रहने से तुप मुझको भी दूध लाये हो सो हे ब्राह्मण जिस भाँति प्रजा रही उसी तरह मैं भी रहा क्योंकि मैं भी तो राजा की प्रजा में निवास करता हू इस प्रकार वार्तालाप करके ब्राह्मण विदा हो अपने घर गया और आमोद प्रमोद से जीवन व्यतीत किया। वास्तव में ऐसा ही होता है संत स्वभाव तभी तो बाबा ने कहा कि-
संत सहहिं दु:ख पर हित लागी। पर दु:ख हेतु असंत अभागी॥
भूर्ज तरू सम संत कृपाला। पर हित निति सह बिपति बिसाला॥
।।जय श्री राम जय हनुमान।।
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