बुधवार, 9 अप्रैल 2025

bharat kaikaeyi

भरतजी सरल हृदय तथा आदर्श महापुरुष हैं। छल-कपट, षड्यन्त्र आदि दोषों से वे पूरी तरह मुक्त हैं। जब उन्हें ज्ञात हुआ कि उनकी माता कैकेयी ने उनके लिए वरदान में राज्य माँग लिया है तो उन्हें अपार ग्लानि हुई । वे स्वयं को अपराधी समझने लगे। उनका मन उन्हें धिक्कारने लगा। उन्हें यह बात स्वीकार नहीं थी कि कोई व्यक्ति उनके चरित्र पर शंका करे। कौशल्या, कैकेयी, वशिष्ठ तथा राम के सम्मुख वे अपने हृदय की इस महानता को प्रकट करते हैं। वे रघुवंश की नीति व मर्यादा
का पालन करते हुए एक आदर्श प्रस्तुत करते हैं। वे कहते भी हैं -
किन्तु ज्येष्ठ को राजतिलक की परम्परा है,
राजा दुःख से नहीं, अन्याय से सदा डरा है।
यद्यपि कैकेयी द्वारा भरत को अनेक प्रकार से समझाया जाता है, तथापि भरत बड़े भाई राम के जीवित रहते अयोध्या के राज्य को स्वीकार करने में अपनी
असमर्थता प्रकट करते हैं। अपनी माता कैकेयी के प्रति अपना क्रोध प्रकट करते
हुए भरत कहते हैं-
माँग अवध का राज्य किया अपना मन भाया,
किन्तु भरत के भाल अयश का तिलक लगाया।
वे अत्यन्त  भावुक हैं। अपने अतिरिक्त वे अन्य
सभी के सुख-दुःख की चिन्ता करते हैं। पिता के स्वर्गवास का समाचार सुनकर अत्यधिक शोकाकुल हो जाते हैं। अवध के राज्य को वे किसी प्रकार भी स्वीकार
नहीं करते। राम के वनगमन, पिता के देहान्त, माताओं के वैधव्य और उर्मिला की विरह व्यथा को जानकर उनका हृदय दुःख के सागर में गोते लगाने लगता है।
वे परम त्यागी तथा अनासक्त हैं - कैकेयी के बार-बार समझाने पर भी भरत राजगद्दी को स्वीकार नहीं करते। वे राज्य का वास्तविक अधिकारी राम को ही मानते हैं।
भरत के इस अनासक्त भाव को सभी जानते हैं। स्वयं कौशल्या कहती हैं कि भरत को राज्य का लेशमात्र भी मोह नहीं है। सुमित्रा भी उनकी प्रशंसा करती हुई कहती हैं-
नहीं राज्य-वैभव में है अनुरक्ति तुम्हारी,
तुम विदेह हो, अटल राम की भक्ति तुम्हारी ।
स्वयं मुनि वशिष्ठ तथा राम भी भरत के त्याग तथा अनासक्त भाव की प्रशंसा करते हैं।
वे  राम के सच्चे अनुयायी हैं - भरत को सबसे बड़ा दुःख राम के वनगमन का है। राम के प्रति उनके मन में असीम आदर का भाव है। वन में जाकर वे राम से
अयोध्या लौटने की प्रार्थना भी करते हैं। राम का वनवासी रूप देखकर वे व्याकुल हो
जाते हैं। वे तो राम के पूर्ण भक्त, आज्ञाकारी तथा कृपापात्र बने रहना चाहते हैं। राम
द्वारा समझाए जाने पर वे अन्त में यही कहते हैं—
भाई जो भी कहो वही मैं आज करूँगा,
तुम कह दो तो अयश - सिन्धु में कूद पड़ूंगा।
राम की चरण पादुकाओं को वे चौदह वर्षों तक राज्य - सिंहासन पर सुशोभित करते हैं। वे शील और विनम्रता की साक्षात् प्रतिमा हैं। उनकी सरलता और
विनम्रता से सभी प्रभावित हैं। भरत द्वारा चरण पादुकाएँ माँगने पर राम कहतेभी हैं-
राज्य छोड़कर तुच्छ खड़ाऊँ तुमने माँगे,
त्याग भाव में भरत रहे हैं सबसे आगे ।
भरत के शील, स्वभाव तथा महान् त्याग की चर्चा जगत् भर में व्याप्त हो
फैली क्षण में भरत - शील की कथा नगर में,
चर्चा होने लगी त्याग - व्रत कथा घर-घर में ।
वस्तुत: भरत का हृदय असीम मानवीय गुणों का भण्डार है। वे आदर्श महापुरुष हैं।
 माता कैकेयी  कहती  हैं कि—
असि अर्पण कर मैंने रण कंकण बाँधा है,
रणचण्डी का व्रत मैंने रण में साधा है।
मेरे बेटों ने पय पिया सिंहनी का है,
उनका पौरुष देख इन्द्र मन में डरता है ।
वस्तुतः  माता कैकेयी एक ऐसी असाधारण नारी है, जिसे कोई भी सरलता से नहीं समझ पाता। माता कैकेयी पत्नी, माता तथा रानी के कर्त्तव्यों को भली प्रकार समझती है। वह भावना की अपेक्षा कर्त्तव्य को अधिक
महत्त्व देती है। राम को वन भेजने में भी उसका यही प्रमुख उद्देश्य है । वह जानती है कि राम राक्षसों का वध कर सकते हैं और सीधे-सादे भरत अयोध्या का राज्य सँभाल सकते हैं। अपनी लोकहित की भावना को व्यक्त करती हुई कैकेयी कहती है—
ममता तज कर मैंने पत्थर किया कलेजा,
जन सेवा के लिए राम को वन में भेजा ।
कैकेयी कर्त्तव्यपरायणता के सामने लोकनिन्दा को तुच्छ समझती है।
माता कैकेयी मानवता के प्रति आस्था रखनेवाली हैं -  माता कैकेयी केवल राजकुल के प्रति ही प्रेम प्रकट नहीं करती, उसे तो वन में रहनेवाले अशिक्षित प्राणियों के हित का भी ध्यान है। वह उन्हें भी सम्मान तथा स्नेह की भावना से देखती है। वनवासियों के प्रति वह कहती है—
जिन्हें नीच पामर कहकर हम दूर भगाते,
वे भी तो अपने हैं मानवता के नाते ।
कैकेयी अपनी मानवता की भावना को इस प्रकार स्पष्ट करती है-
उन्हें उठाना क्या राजा का धर्म नहीं है?
गले लगाना क्या मानव का कर्म नहीं है?
 निश्छलहृदया तथा स्पष्टवादिनी हैं - माता कैकेयी अपने हृदय के भावों को भरत के सम्मुख स्पष्ट शब्दों में व्यक्त करती है। इसी के साथ वह यह भी सिद्ध करती है
कि राम का वनगमन क्यों उचित है। उसके मन में किसी के प्रति ईर्ष्या नहीं है। वह राम को भी उतना ही प्यार करती है, जितना अपने पुत्रों को। उसका हृदय निश्छल है, इसीलिए वह भी भरत के साथ वन में जाने को तैयार हो जाती है। वन में वह राम से
कहती है-
राम-भरत में भेद? हाय कैसी दुर्बलता
आगे चलते राम भरत तो पीछे चलता।
बेटा, लगी कलंक कालिमा उसे मिटाओ,
भरत कह रहा जो उसकी भी बात बनाओ।
कैकेयी के निश्छल हृदय की प्रशंसा करते हुए मुनि वशिष्ठ कहते हैं-
तब गुरु बोले साधु ! साधु ! कैकेयी रानी,
भरत-हृदय की राम-भक्ति तुमने पहचानी |
राम भी कैकेयी की दूरदर्शिता को समझते हैं। कैकेयी के प्रति उनकी भावना
देखिए -
नहीं तुम्हारा दोष काल की टेढ़ी गति है,
विश्व-विकास-कारिणी हो तुम मेरी मति है।
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शनिवार, 5 अप्रैल 2025

bharat


ॐ नमो भगवते मंगलमूर्तये कृपानिधये गुरवे मर्कटाय श्रीरामदूताय सर्वविघ्नविनाशकाय
क्षमामन्दिराय शरणागतवत्सलाय श्रीसीतारामपदप्रेमपराभक्तिप्रदाय सर्वसंकटनिवारणाय श्रीहनुमते ।

भरतं श्यामलं शान्तं रामसेवापरायणम् ।
धनुर्बाणधरं वीरं कैकेयीतनयं भजे ॥

वामाङ्के

 वामाङ्के च विभाति भूधरसुता देवापगा मस्तके,
भाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसि व्यालराट् ।
सोऽयं भूतिविभूषणः सुरवरः सर्वाधिपः सर्वदा,
शर्वः सर्वगतः शिवः शशिनिभः श्रीशंकरः पातु माम् ॥
वामाङ्के च विभाति भूधरसुता पार्वतीजी वामांगमें विराजती हैं ही, यथा - ' बामभाग आसन हर दीन्हा' । शिवजीने पार्वतीजीको अपना आधा अंग ही बना लिया है, अतएव उनको 'अर्धनारीश्वर' कहते हैं, अर्थात् शिवजीका वह स्वरूप जिसमें आधा (दाहिना) अंग शिवजीका और आधा (वाम) अंग पार्वतीजीका है। इस आशय को बालकाण्ड में बाबा तुलसीदासजी ने लिखा हैं- ' हरषे हेतु हेरि हर ही को । किय भूषन तिय भूषन ती को॥' अर्थात् महादेवजी पार्वतीजी के हृदयका आशय समझ ऐसे प्रसन्न हुए कि वे पतिव्रताओं में शिरोमणि पार्वतीजी को अपने शरीरमें धारणकर 'अर्धनारीश्वर' बन बैठे। रसमंजरी में और भी कहा है'आत्मीयं चरणं दधाति पुरतो निम्नोन्नतायां भुवि स्वीयेनैव करेण कर्षति तरोः पुष्पं श्रमाशंकया। तल्पे किञ्च मृगत्वचा विरचिते निद्राति भागैर्निजै-रित्थं प्रेमभरालसां प्रियतमामङ्गे दधानो हरः ॥
अर्थात् भूमिके ऊँच-नीच होनेके भयसे अर्धनारीनटेश्वर श्रीशिवजी अपने पुरुष - स्वरूपका पाँव (दाहिना) पहले आगे रखते हैं तथा पार्वतीरूपी अपने बाएँ अंगको श्रम न हो इस हेतु अपने ही हाथसे (दाहिने हाथसे) वृक्षके फूल तोड़ते हैं और मृगछालाके विस्तरपर अपने ही अंगके बल (दाहिने करवट ) सोते हैं, इस भाँति परिपूर्ण प्रेमसे शिथिल अपनी प्राणप्यारी पार्वतीको पुरारिने अपने अंगहीमें धारण कर लिया। वामाङ्के के स्थान पर यस्याङ्के पद भी प्राप्त होता है। यस्याङ्के --जिनके अंक में भूधरसुता सुशोभित  होती है ,सदा स्थिर रहती हैं यहां सदा स्थिर सूचित करनेके लिये ही बाबा ने सुंदर
'भूधरसुता' नाम दिया और शुद्धता दिखानेके लिये 'देवापगा' (देवताओं की नदी अतएव दिव्य ) कहा ।
 इस प्रकार यहाँ गोस्वामीजीने दोनों शक्तियोंसहित श्रीशिवजीका मंगलाचरण किया। पार्वतीजी  शक्ति ही हैं गंगाजी भी शिवजीकी शक्ति हैं, यथा - ' देहि रघुबीरपद प्रीतिनिर्भर मातु, दास तुलसी त्रासहरनि भवभामिनी । ' 
कोई-कोई महानुभाव यहाँ 'यस्याङ्के' और 'श्री शङ्कर' शब्दोंसे श्रीशिव और श्रीपार्वतीजी इन दोकी वन्दना भी
मानते हैं। भाले बालविधु:,बालविधुः-अमावस्याके पीछेका नया चन्द्रमा, शुक्लपक्षकी द्वितीयाका चन्द्रमा ललाट पर।
भाले बालविधुः ' चन्द्रमा द्विजराज है अथवा अमृतस्रावी है, इससे उसे मस्तकका तिलक बनाया। इससे दीन, हीन, क्षीणजनोंको आश्रय देनेवाला जनाया। स्कन्दपु०, माहेश्वर केदारखण्ड में लिखा है कि राहुका सिर कटनेपर वह चन्द्रमाको निगलनेको दौड़ा तब चन्द्रमा भागकर शंकरजीकी शरणमें गया। उन्होंने यह कहते हुए कि 'डरो मत' उसे जटाजूटमें रख लिया। तबसे चन्द्रमा उनके
मस्तकपर शोभित है। गले च गरलम्' - विषको कण्ठमें रखा; क्योंकि उदरमें जाय तो ताप उत्पन्न करे, उसे ऊपर (बाहर ) धारण करें तो सबकी मृत्यु करे, अतएव इस अवगुणीको कण्ठमें छिपा रखा है। (इससे जनाया कि बड़े परोपकारी हैं, सदा प्रजा और प्रजापतियोंके हितमें तत्पर रहते हैं, उनका दुःख टालनेके लिये स्वयं दुःख झेला करते हैं। पुनः हृदयमें इससे न रखा कि उसमें श्रीसीतारामजी विराजमान हैं, यथा - 'हर हृदि मानस बालमरालं ।' वहाँ रखनेसे अपने इष्टदेवको कष्ट पहुँचेगा। कण्ठमें रखने से सब बातें बन गयीं। यस्योरसि = (यस्य + उरसि ) जिसके वक्षःस्थल वा छातीपर व्यालराट्-व्याल+राट् सर्पराज, शेषजी। सोऽयम् - (सोऽयम्, सः+अयम्) वही ये ऐसे वे।भूतिविभूषण:-भस्म ही जिनका आभूषण (गहना) है, भस्मसे विभूषित अर्थात् जिनके शरीरपर श्मशानकी भस्म लगी हुई शोभा पा और दे रही है। ''भूतिविभूषणः' कहकर भगवान को पतित पावन भी जनाया गया है ; बाबा ने बाबा के बारे में कहा  हैं कि'भव अंग भूति मसान की सुमिरत सुहावनि पावनी'
सुरवरः अर्थात् देवताओं  में सर्वश्रेष्ठ देवाधिदेव महादेव।
सर्वाधिपः- सबके राजा वा स्वामी अर्थात् पालनकर्ता । सर्वदा-सदैव, सर्वकालमें । सर्वदा सर्वाधिपः - तीनों कालोंमें, चराचरके अधिरक्षक ।शर्वः इति - शब्दकल्पद्रुममें इसका अर्थ यों लिखा है - 'शर्वः - पुं० शृणाति सर्वाः प्रजाः संहरति प्रलये संहारयति वा भक्तानां पापानि । अर्थात् जो  प्रलयमें सब प्रजाओंका संहार करता है अथवा भक्तोंके पापोंका संहार करता है। सर्वः सब चराचरमात्र आपका ही रूप है ।  सब कुछ आप ही हैं।  सर्वगतः -सर्वव्यापक, सबके अन्तर्यामी, सब कुछ जिसके अन्दर समाया हुआ है। शिवः - कल्याण स्वरूप। शशिनिभः -  शशि + निभः कान्ति, प्रकाश, चमक-दमक, प्रभा, आभा - चन्द्रमाके सदृश गौरवर्ण; चन्द्रमें तेजः स्वरूप, यथा- ' यदादित्यगतं तेजो जगद् भासयते ऽखिलम् । यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ।। हम सब पाते हैं  कि अयोध्या और अरण्यकाण्डोंके भी प्रारम्भ करनेवाले पहले  श्लोक शिवजीकी वन्दनामें कहे गये हैं। इस विशेषतामें यह स्पष्ट व्यंजना दिखायी पड़ती है कि शिवजीको गुरु माननेके कारण ही कदाचित् आप से आप उनकी बाबा  द्वारा वन्दना इन काण्डों में श्रीरामजीकी वन्दनासे भी पूर्व हो गयी हो। भारतीय भक्तोंने अपने सामने सदा यही सिद्धान्त रखा है- 'भक्ति भक्त भगवंत गुरु चतुर नाम बपु एक । ' इसी सिद्धान्तके अनुसार   वे शिवजी को न केवल 'निर्गुणं निर्विकारं ' कहते है, वरं 'विष्णुविधिवन्द्यचरणारविन्दम् ' भी कहते हैं। अन्यत्र 'रामरूपीरुद्र'  भी कहते हैं और एक अन्य स्तोत्रमें तो हरि और शिवकी एकत्र स्तुति भी की है और उसका नाम 'हरि-संकरी - मन्त्रावली' रखा है। जिन विशेषणोंसे श्रीशंकरजीकी वन्दना की गयी है वे सब सहेतुक हैं। । इन विशेषणोंको देकर बाबा श्रीशिवजीका विघ्ननिवारणमें सामर्थ्यवान् होना दर्शित करते हैं। कैसे समर्थ हैं कि अनेक सम-विषम, सुख-दुःखकारी, भले-बुरे, परस्पर विरोधी इत्यादि पदार्थोंको अंगमें सदैव धारण करते हुए भी आप सदैव सावधान हैं, किसीका वेग आपमें व्याप्त नहीं होने पाता।हम पाते हैं कि अयोध्या 
 काण्ड में बहुत-सी सम-विषम बातें और सुख-दुःखके प्रसंग ठौर - ठौर हैं जो चित्तको एकदम दहला देनेवाले हैं - जैसे राज्याभिषेककी तैयारी और हुआ वनवास, माता केकयीकी कठोरता और वरदान इत्यादि ।उनके वेगके वशीभूत हो जानेसे कथाकी निर्विघ्न समाप्ति असम्भव - सी जान पड़ती है। अतः इन विघ्नोंसे अपने चित्तकी रक्षा करानेके लिये विघ्नोंके उपस्थित रहते हुए भी उनके वशमें न होनेवाले और सदा सबका कल्याण करनेवाले श्रीशिवजीकी वन्दना इन विशेषणोंसे की है।
 'इस श्लोक में शिवजीके सगुण और निर्गुण दोनों स्वरूपोंका वर्णन है। 'यस्याङ्के भूतिविभूषणः सुरवर:' सगुणरूप है। 'सर्वाधिपः सर्वदा शर्वः सर्वगतः--' निर्गुणरूप है। पुनः आधे श्लोक में शिवजीके आश्रितोंकी शोभा कही और आधेमें श्रीशिवजीकी। यह गुप्त भाव साधारणतया देख नहीं पड़ता । पर है ऐसा ही, आधेमें 'भूधरसुता विभाति', 'देवापगा विभाति', 'भाले बालविधुर्विभाति', 'गले गरलं विभाति', 'उरसि व्यालराड् विभाति' है। श्रीपार्वतीजी, गंगाजी, बालविधु, गरल और व्यालराट् सब आपके आश्रित हैं। इस तरह अर्धश्लोक में इनका ही वर्णन है। शेष अर्धमें केवल शिवजी की शोभा है । ऐसा करके सूचित करते हैं कि इस काण्डमें आधेमें श्रीरामचरित है और आधेमें भक्तशिरोमणि श्रीभरतजीका चरित कहा गया है। दोहा १५६ तक श्रीरामचरित है और दोहा १७० के आगे दोहा ३२६ तक १५६ दोहोंमें श्री भरतचरित है । बीचके १४ दोहे १५६ के आगे १७० तक भरतागमन और पितृक्रियासे सम्बन्ध रखते हैं। ये १४ दोहे श्लोकके 'सः शङ्करोऽयं सर्वदा मां पातु' में आ गये। 'पर्वत जड़ है, उसकी पुत्री बाएँ अंगमें और देवता चेतन हैं उनकी नदी शीशपर शोभित है। यह सम-विषम है, इनको स्वाभाविक लिये हैं। वा दो स्त्रियोंका संग महा उत्पातका कारण है सो दोनोंको धारण किये हुए भी सावधान हैं। चन्द्रकी शीतलता और गरलकी उष्णता नहीं व्यापती । भस्मसे त्याग, सुरवरसे ऐश्वर्य और सर्वाधिपसे पालक, तीनों होते हुए सावधान हैं। 'सर्वगतः ' से अगुणत्व और 'शशिनिभः' से सगुणत्व इत्यादि सम-विषमसहित हैं। - पृथ्वी परोपकारिणी और क्षमारूपा है, वैसे ही पर्वत भी यथा - 'संत बिटप सरिता गिरि धरनी । परहित हेतु सबन्ह कै करनी ।' ये पर्वतराजकी कन्या हैं, अतः अवश्य परोपकारिणी होंगी, इन्हींके द्वारा रामचरित प्रकट हुआ। गंगाजी भगवान्‌के नखसे निकलीं, अतः शीशपर धारण किया- ऐसे उपासक है महादेव । अल्पकलावाले चन्द्रको प्रतिष्ठा देनेके विचारसे माथेपर स्थान दिया- ऐसे दीनदयाल है महादेव। इस विचारसे भी कि अग्निनेत्रके तेजसे उपासकोंको कष्ट न पहुँचे, वहीं चन्द्रमाको स्थान दिया है । कण्ठमें विष धरकर संसारभरका उपकार किया। हृदयपर सर्पराजको धारणकर भजन- निष्ठता दिखायी कि सर्पराजको निरन्तर हरियश - गानमें तत्पर जान सदा हृदयसे लगाये रहते हैं। पुनः, विष और सर्पसे सामर्थ्य जनाया। 'श्रीशङ्करः' अर्थात् श्री और शं कल्याण - के करनेवाले हैं। महात्माओंके समीप भले और बुरे दोनोंका निर्वाह हो जाता है। जैसे श्रीशिवजीके
समीप पार्वतीजी और गंगाजी (दो सौतों), चन्द्रमा और सर्प किंवा अमृत और विष, भस्म और ऐश्वर्य, संहार और कल्याण इत्यादि सदा बने रहते हैं। ( इसी भावका एक दोहा है— 'धनुष बान धारे लखत दीनहिं होत उछाह । टेढ़े सूधे सबन्ह को है हरि हाथ निबाह।। - यह श्लोक 'शार्दूलविक्रीडित वृत्त' का है। इस छन्दमें मंगल करके जनाते हैं कि समस्त विघ्नोंके उद्वेगसे रक्षा करनेमें आपका पराक्रम शार्दूल - ( सिंह वा एक पक्षी जो हाथीतकको पंजेसे दबा लेता है) के समान है। आप मेरी रक्षा करें। पातु माम् ऐसे महादेव हमारी रक्षा करें।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

शुक्रवार, 4 अप्रैल 2025

।।ब्रह्मर्षि विश्वामित्र की अद्भुत करनी।।


।।ब्रह्मर्षि विश्वामित्र की अद्भुत करनी।।
ब्रह्मर्षि विश्वामित्र की अद्भुत करनी ,जिनका वर्णन गुरुदेव वशिष्ठ ने प्रसन्न होकर अनेक प्रकार से किया ।बाबा लिखते है:-
मुनि मन अगम गाधिसुत करनी ।
मुदित बसिष्ट बिपुल बिधि बरनी ॥ 
वाल्मीकीय रामायण में श्रीशतानन्दजी महाराजने श्रीरामचन्द्रजीसे श्रीविश्वामित्रजीकी कथा कही है। एक बार राजा विश्वामित्र अक्षौहिणी दल लेकर पृथ्वीका परिभ्रमण करने निकले। नगरों, नदियों, पर्वतों, जंगलों और आश्रमोंको देखते हुए वे वसिष्ठजीके आश्रम में पहुँचे । कुशलप्रश्न करनेके पश्चात् मुनिने राजाको अतिथि सत्कार ग्रहण करनेको निमन्त्रित किया और अपनी कपिला गऊको बुलाकर सबकी रुचिके अनुसार भोजनकी वस्तु एकत्र करके उनका सत्कार करनेकी आज्ञा दिया।सत्कृत होनेपर प्रसन्नतापूर्वक राजाने कोटि गऊ अलंकृत तथा और भी अनेक रत्न आदिका लालच देकर कहा कि यह कपिला गऊ हमको दे दो । मुनिने कहा कि मैं इसे किसी प्रकार न दूँगा, यह मेरा धन है, सर्वस्व है, जीवन है । - ' एतदेव हि मे रत्नमेतदेव हि मे धनम् । एतदेव हि सर्वस्वमेतदेव हि जीवितम् ॥' राजा उसे बलपूर्वक ले चले, वह छुड़ाकर मुनिके पास आ रोने लगी। मुनिने कहा कि यह राजा है, बलवान् है, क्षत्रिय है, मेरे बल नहीं। तब गऊ आशय समझकर बोली, मुझे आज्ञा हो - आज्ञा पाते ही भयंकर सेना उत्पन्न करके उसने सब सेना नष्ट कर दी। तब विश्वामित्रके सौ पुत्रोंने क्रोधमें भरकर वसिष्ठजीपर आक्रमण किया। मुनिकी एक हुंकारसे राजाके सौ पुत्र और घोड़े - रथ- सेना सब भस्म हो गये। राजा पंख कटे पक्षीके समान अकेला रह गया । उसको वैराग्य हुआ। राज्य एक पुत्रको देकर तप करके उसने शिवजीको प्रसन्न कर वर माँग लिया कि 'अंगोपांग मन्त्र तथा रहस्यके साथ धनुर्वेद आप मुझे दें । देव-दानव - महर्षि - गन्धर्वादि सभीके जो कुछ अस्त्र हों सब मुझे मालूम हो जायँ । इन्हें पाकर अभिमानसे राजाने मुनिके आश्रममें जा उसे क्षणभरमें ऊसरके समान शून्य कर दिया। ऋषियोंको भयभीत देख मुनिने अपना दण्ड उठाया कि इसे अभी भस्म किये देता हूँ और राजाको ललकारा। राजाकी समस्त विद्या ब्रह्मदण्डके सामने कुछ काम न दे सकी। समस्त अस्त्रोंके व्यर्थ हो जानेपर राजाने ब्रह्मास्त्र चलाया, उसे भी ब्राह्मतेज ब्रह्मदण्डसे मुनिने शान्त कर दिया । वसिष्ठजीके प्रत्येक रोमकूपसे किरणोंके समान अग्निकी ज्वालाएँ निकलने लगीं, ब्रह्मदण्ड उनके हाथमें कालाग्निके समान प्रज्वलित था। मुनियोंने उनकी स्तुतिकर विनय की कि आप अपना तेज अपने तेजसे शान्त करें और अपना अस्त्र हटाइये, प्राणिमात्र उससे पीड़ित हो रहे हैं। उनकी विनय सुनकर उन्होंने दण्डको शान्त किया । पराजित राजा लंबी साँस भरकर अपनेको धिक्कारने लगा 'धिग्बलं क्षत्रियबलं ब्रह्मतेजो बलं बलम् ।'एकेन ब्रह्म दण्डेन, सर्वस्त्राणि हतानि में” इसका मतलब है कि क्षत्रिय के बल को धिक्कार है, ब्राह्मण का तेज ही असली बल है. 
और ब्रह्मतेजकी प्राप्तिके लिये तपस्या करने चले । कठिन तपस्या की; ब्रह्माजीने आकर कहा कि आजसे तुम्हें हम सब राजर्षि समझने लगे। पर  इस बारकी तपस्या का फल त्रिशंकुने ले ली तब पुष्कर क्षेत्रमें जा पुनः तपस्या करने लगे। वहाँ ऋचीकके मँझले पुत्र शुनःशेपने अपने मामा विश्वामित्रको तप करते देख उनकी शरण ली कि अम्बरीषके यज्ञमें बलि दिये जानेसे बचाइये । यह  तपस्या इसमें  चली गयी। फिर एक हजार वर्ष तपस्या करनेपर ब्रह्माजीने आकर तपस्याका फलस्वरूप इनको 'ऋषि' पद दिया। फिर कठिन तप करने लगे। बहुत समय बीतनेपर मेनका पुष्कर क्षेत्रमें स्नान करने आयी, उसको देख ये काम वश हो गये। दस वर्ष उसके साथ रहे। फिर ग्लानि होनेपर उसका त्यागकर उत्तर पर्वतपर कौशिकीके तटपर जा कठोर तपस्या करने लगे। कठिन तप देख देवताओंकी प्रार्थनापर ब्रह्माजीने इनको 'महर्षि' पद दिया और कहा कि ब्रह्मर्षि पद पानेके लिये इन्द्रियोंको जीतो । तब महर्षि विश्वामित्रजी निरवलम्ब वायुका आधार ले कठिन तप करने लगे । इन्द्र डरा और रम्भाको बुला उसने विघ्न करने भेजा । महर्षि जान गये, पर क्रोध न रोक सके, रम्भाको शाप दिया कि पत्थर हो जा। क्रोधवश होनेसे तपस्या भंग हो गयी। इससे महर्षिका मन अशान्त हुआ। अब उन्होंने निश्चय किया कि मैं सौ वर्षतक श्वास ही न लूँगा, इन्द्रियोंको वशमें करके अपनेको सुखा डालूँगा''। ऐसा दृढ़ निश्चयकर वे पूर्व दिशामें जा एक हजार वर्षतक मौनकी प्रतिज्ञा कर घोर तप करने लगे- समस्त विघ्नोंको जीता। व्रत पूर्ण होनेपर ज्यों ही अन्न भोजन करना चाहा, इन्द्रने विप्ररूप धर उनके पास आ उस अन्नको माँग लिया, उन्होंने दे दिया और पुनः श्वास खींचकर तपस्या करने लगे । मस्तकसे धुआँ और फिर अग्निकी ज्वालाएँ निकलने लगीं। सब देवता डरकर ब्रह्माजीके पास दौड़े कि शीघ्र उनके मनोरथको पूर्ण कीजिये, अब उनमें कोई विकार नहीं है, उनके तेजके आगे लोगोंका तेज मन्द पड़ गया ब्रह्माजीने आकर उन्हें ब्रह्मर्षि पद दिया और फिर वसिष्ठजीसे भी उनकी मित्रता करा दी और उनसे भी उनको ब्रह्मर्षि कहला दिया। आजकलके अभिमानी संहारक विज्ञानियोंको विश्वामित्रके अस्त्र-शस्त्रोंको पढ़ना
चाहिये, जिससे ज्ञात होगा कि हमारा देश अस्त्र-शस्त्र - विद्यामें कितना बढ़ा चढ़ा था । बाबा ने लिखा =
बिस्वामित्र महामुनि ग्यानी।
बसहिं बिपिन सुभ आश्रम जानी॥
     ।। जय श्री राम जय हनुमान।।