bharat kaikaeyi
भरतजी सरल हृदय तथा आदर्श महापुरुष हैं। छल-कपट, षड्यन्त्र आदि दोषों से वे पूरी तरह मुक्त हैं। जब उन्हें ज्ञात हुआ कि उनकी माता कैकेयी ने उनके लिए वरदान में राज्य माँग लिया है तो उन्हें अपार ग्लानि हुई । वे स्वयं को अपराधी समझने लगे। उनका मन उन्हें धिक्कारने लगा। उन्हें यह बात स्वीकार नहीं थी कि कोई व्यक्ति उनके चरित्र पर शंका करे। कौशल्या, कैकेयी, वशिष्ठ तथा राम के सम्मुख वे अपने हृदय की इस महानता को प्रकट करते हैं। वे रघुवंश की नीति व मर्यादा
का पालन करते हुए एक आदर्श प्रस्तुत करते हैं। वे कहते भी हैं -
किन्तु ज्येष्ठ को राजतिलक की परम्परा है,
राजा दुःख से नहीं, अन्याय से सदा डरा है।
यद्यपि कैकेयी द्वारा भरत को अनेक प्रकार से समझाया जाता है, तथापि भरत बड़े भाई राम के जीवित रहते अयोध्या के राज्य को स्वीकार करने में अपनी
असमर्थता प्रकट करते हैं। अपनी माता कैकेयी के प्रति अपना क्रोध प्रकट करते
हुए भरत कहते हैं-
माँग अवध का राज्य किया अपना मन भाया,
किन्तु भरत के भाल अयश का तिलक लगाया।
वे अत्यन्त भावुक हैं। अपने अतिरिक्त वे अन्य
सभी के सुख-दुःख की चिन्ता करते हैं। पिता के स्वर्गवास का समाचार सुनकर अत्यधिक शोकाकुल हो जाते हैं। अवध के राज्य को वे किसी प्रकार भी स्वीकार
नहीं करते। राम के वनगमन, पिता के देहान्त, माताओं के वैधव्य और उर्मिला की विरह व्यथा को जानकर उनका हृदय दुःख के सागर में गोते लगाने लगता है।
वे परम त्यागी तथा अनासक्त हैं - कैकेयी के बार-बार समझाने पर भी भरत राजगद्दी को स्वीकार नहीं करते। वे राज्य का वास्तविक अधिकारी राम को ही मानते हैं।
भरत के इस अनासक्त भाव को सभी जानते हैं। स्वयं कौशल्या कहती हैं कि भरत को राज्य का लेशमात्र भी मोह नहीं है। सुमित्रा भी उनकी प्रशंसा करती हुई कहती हैं-
नहीं राज्य-वैभव में है अनुरक्ति तुम्हारी,
तुम विदेह हो, अटल राम की भक्ति तुम्हारी ।
स्वयं मुनि वशिष्ठ तथा राम भी भरत के त्याग तथा अनासक्त भाव की प्रशंसा करते हैं।
वे राम के सच्चे अनुयायी हैं - भरत को सबसे बड़ा दुःख राम के वनगमन का है। राम के प्रति उनके मन में असीम आदर का भाव है। वन में जाकर वे राम से
अयोध्या लौटने की प्रार्थना भी करते हैं। राम का वनवासी रूप देखकर वे व्याकुल हो
जाते हैं। वे तो राम के पूर्ण भक्त, आज्ञाकारी तथा कृपापात्र बने रहना चाहते हैं। राम
द्वारा समझाए जाने पर वे अन्त में यही कहते हैं—
भाई जो भी कहो वही मैं आज करूँगा,
तुम कह दो तो अयश - सिन्धु में कूद पड़ूंगा।
राम की चरण पादुकाओं को वे चौदह वर्षों तक राज्य - सिंहासन पर सुशोभित करते हैं। वे शील और विनम्रता की साक्षात् प्रतिमा हैं। उनकी सरलता और
विनम्रता से सभी प्रभावित हैं। भरत द्वारा चरण पादुकाएँ माँगने पर राम कहतेभी हैं-
राज्य छोड़कर तुच्छ खड़ाऊँ तुमने माँगे,
त्याग भाव में भरत रहे हैं सबसे आगे ।
भरत के शील, स्वभाव तथा महान् त्याग की चर्चा जगत् भर में व्याप्त हो
फैली क्षण में भरत - शील की कथा नगर में,
चर्चा होने लगी त्याग - व्रत कथा घर-घर में ।
वस्तुत: भरत का हृदय असीम मानवीय गुणों का भण्डार है। वे आदर्श महापुरुष हैं।
माता कैकेयी कहती हैं कि—
असि अर्पण कर मैंने रण कंकण बाँधा है,
रणचण्डी का व्रत मैंने रण में साधा है।
मेरे बेटों ने पय पिया सिंहनी का है,
उनका पौरुष देख इन्द्र मन में डरता है ।
वस्तुतः माता कैकेयी एक ऐसी असाधारण नारी है, जिसे कोई भी सरलता से नहीं समझ पाता। माता कैकेयी पत्नी, माता तथा रानी के कर्त्तव्यों को भली प्रकार समझती है। वह भावना की अपेक्षा कर्त्तव्य को अधिक
महत्त्व देती है। राम को वन भेजने में भी उसका यही प्रमुख उद्देश्य है । वह जानती है कि राम राक्षसों का वध कर सकते हैं और सीधे-सादे भरत अयोध्या का राज्य सँभाल सकते हैं। अपनी लोकहित की भावना को व्यक्त करती हुई कैकेयी कहती है—
ममता तज कर मैंने पत्थर किया कलेजा,
जन सेवा के लिए राम को वन में भेजा ।
कैकेयी कर्त्तव्यपरायणता के सामने लोकनिन्दा को तुच्छ समझती है।
माता कैकेयी मानवता के प्रति आस्था रखनेवाली हैं - माता कैकेयी केवल राजकुल के प्रति ही प्रेम प्रकट नहीं करती, उसे तो वन में रहनेवाले अशिक्षित प्राणियों के हित का भी ध्यान है। वह उन्हें भी सम्मान तथा स्नेह की भावना से देखती है। वनवासियों के प्रति वह कहती है—
जिन्हें नीच पामर कहकर हम दूर भगाते,
वे भी तो अपने हैं मानवता के नाते ।
कैकेयी अपनी मानवता की भावना को इस प्रकार स्पष्ट करती है-
उन्हें उठाना क्या राजा का धर्म नहीं है?
गले लगाना क्या मानव का कर्म नहीं है?
निश्छलहृदया तथा स्पष्टवादिनी हैं - माता कैकेयी अपने हृदय के भावों को भरत के सम्मुख स्पष्ट शब्दों में व्यक्त करती है। इसी के साथ वह यह भी सिद्ध करती है
कि राम का वनगमन क्यों उचित है। उसके मन में किसी के प्रति ईर्ष्या नहीं है। वह राम को भी उतना ही प्यार करती है, जितना अपने पुत्रों को। उसका हृदय निश्छल है, इसीलिए वह भी भरत के साथ वन में जाने को तैयार हो जाती है। वन में वह राम से
कहती है-
राम-भरत में भेद? हाय कैसी दुर्बलता
आगे चलते राम भरत तो पीछे चलता।
बेटा, लगी कलंक कालिमा उसे मिटाओ,
भरत कह रहा जो उसकी भी बात बनाओ।
कैकेयी के निश्छल हृदय की प्रशंसा करते हुए मुनि वशिष्ठ कहते हैं-
तब गुरु बोले साधु ! साधु ! कैकेयी रानी,
भरत-हृदय की राम-भक्ति तुमने पहचानी |
राम भी कैकेयी की दूरदर्शिता को समझते हैं। कैकेयी के प्रति उनकी भावना
देखिए -
नहीं तुम्हारा दोष काल की टेढ़ी गति है,
विश्व-विकास-कारिणी हो तुम मेरी मति है।
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