रविवार, 23 फ़रवरी 2025

हमें लक्ष्य मिलने तक हार नहीं माननी चाहिए

हमें लक्ष्य मिलने तक हार नहीं माननी चाहिए

 किसी गांव में एक बड़ा मंदिर था। मंदिर में ही एक बहुत बड़ा पत्थर भी रखा हुआ था। वहां के पुजारी ने सोचा कि इस पत्थर को तराशकर इसकी मूर्ति बनवा लेनी चाहिए।
पुजारी ने एक मूर्तिकार को बुलाया और पत्थर तराशकर शिवजी की मूर्ति बनाने के लिए कहा। मूर्तिकार ने पत्थर को तराशने के लिए उसे तोड़ने के प्रयास करना शुरू कर दिए।मूर्ति बनाने वाला व्यक्ति लगातार हथौड़ी से पत्थर पर चोट कर रहा था, लेकिन पत्थर बहुत मजबूत था। उसे पत्थर तोड़ने में सफलता नहीं मिल रही थी। 
लगातार प्रयास करने के बाद भी पत्थर टूट ही नहीं रहा था। वह थक चुका था। अंत में उसने हार मान ली और मंदिर के पुजारी से कहा कि ये काम मुझसे नहीं हो पाएगा। पत्थर बहुत कठोर है।
पुजारी ने अगने दिन दूसरे मूर्तिकार को बुलाया और पत्थर तराशकर मूर्ति बनाने की बात कही। दूसरे मूर्तिकार ने जैसे ही हथौड़ी से पहला वार किया, पत्थर तुरंत ही टूट गया। दूसरे मूर्तिकार ने कुछ ही दिनों में शिवजी की सुंदर मूर्ति बना दी।मंदिर के पुजारी ने सुंदर मूर्ति देखी। पुजारी को पूरी बात समझ आ गई। उसने सोचा कि पहले मूर्तिकार के प्रहारों से पत्थर कमजोर हो चुका था, अगर वह सिर्फ एक प्रहार और करता तो वह भी ये काम पूरा कर सकता था, लेकिन उसने अंतिम समय में हार मान ली।
हमें लक्ष्य मिलने तक हार नहीं माननी चाहिए, क्योंकि कुछ कामों में सफलता मिलने में समय लग सकता है।

उत्तराधिकारी

उत्तराधिकारी
एक  राजा की कोई संतान नहीं थी। राज्य संपन्न था, किसी चीज की कोई कमी नहीं थी, लेकिन राजा अपने उत्तराधिकारी को लेकर परेशान रहता था। राजा वृद्ध हो गया था। उत्तराधिकारी के विषय में राजा को चिंतित देखकर मंत्रियों ने कहा कि राज्य के किसी योग्य व्यक्ति को  राज्य का उत्तराधिकारी नियुक्त कर देना चाहिए।
मंत्रियों की सलाह राजा को सही लगी। इसके बाद उसने अपने राज्य के सभी बच्चों को बुलवाया और सभी को एक-एक बीज दिया। राजा ने कहा कि इस बीज को अपने घर में किसी गमले में लगाएं और 6 माह इसकी देखभाल करें। जिस बच्चे का पौधा सबसे अच्छा रहेगा, उसे हम राजकुमार और राज्य का उत्तराधिकारी घोषित करेंगे। सभी बच्चे ये सुनकर खुश हो गए और अपने-अपने घर के गमलों में बीज लगा दिया। रोज सुबह-शाम समय पर पानी देना, खाद डालना शुरू कर दिया। कुछ ही दिनों बीजों से पौधे उगने लगे। सभी बच्चे अपने पौधे की अच्छी देखभाल कर रहे थे। राज्य में सिर्फ एक बच्चा ऐसा था, जिसके बीज से पौधा नहीं उगा था।वह बच्चा इस बात से दुखी था कि उसका पौधा पनप नहीं रहा है। अन्य बच्चे उसका मजाक उड़ा रहे थे। 3 महीने बीत गए। सभी बच्चों के पौधों में फूल आना शुरू हो गए, लेकिन उस बच्चे के गमले में पौधा नहीं उगा। बच्चा रोज सुबह-शाम पानी देता, खाद भी डालता, लेकिन पौधा नहीं उगा। इसी तरह 6 माह बीत गए। सभी बच्चे अपना-अपना गमला लेकर राज दरबार में पहुंच गए। जिस बच्चे का बीज नहीं उगा था वह दुःखी और परेशान था,वह अपनी मां से लिपटकर रोने लगा ,तब उसकी मां ने समझाया कि अगर तुम्हार बीज नहीं उगा है तो भी तुम्हें यही गमला लेकर राजा के पास जाना चाहिए और ईमानदारी से अपनी बात दृढ़ता के साथ राजा के सामने रखना ही चाहिए।बच्चा उदास था, लेकिन उसमें राजा के सामने सच बोलने का साहस था। इसीलिए वह अपना  सूखा गमला ही लेकर राज दरबार पहुंच गया। राजा ने सभी बच्चों के गमले देखे। अंत में वे उस बच्चे के पास पहुंचे, जिसके गमले में पौधा नहीं उगा था। बच्चे ने राजा को बताया कि मैंने पूरी ईमानदारी से कड़ी मेहनत की है, लेकिन आपका दिया हुआ बीज नहीं उगा। राजा उसकी बात सुनकर हतप्रद रहा गया।फिर  राजा ने सभी बच्चों को बताया कि मैंने आप लोगों को जो बीज दिए थे, वे सभी बीज खराब थे। उनसे पौधा उग ही नहीं सकता था।
राजा ने आगे कहा कि आप सभी ने मुझे धोखा देने के लिए अपना-अपना बीज बदल दिया है, सिर्फ इस एक बच्चे ने कोई छल-कपट नहीं किया और इसमें सच बोलने का साहत भी है। राजा वही बन सकता है, जिसमें सच बोलने की हिम्मत है और जो किसी लालच आदि  में आकर  छल-कपट नहीं करता है। इसीलिए मेरे राज्य का राजकुमार और उत्तराधिकारी यही बच्चा बनेगा, जिसके गमले में पौधा नहीं उगा है। इस प्रकार यह कहानी हमें बताती है कि जो लोग ईमानदारी और सच्चाई से कड़ी मेहनत करते हैं, उन्हें देर से ही सही सफलता जरूर मिलती है। हमे किसी भी हाल में ईमानदारी  ,सच्चाई आदि मानवीय गुणों का त्याग नहीं करना चाहिए।

बड़ा कौन है


बड़ा कौन है
दो संत एक साथ रहते थे, एक संत दिनभर भक्ति करता था, दूसरा संत रोज शाम को भगवान को भोग लगाकर खाना खाता था, एक दिन दोनों संतों के बीच झगड़ा हो गया, क्योंकि दोनों खुद को श्रेष्ट बता रहे थे
भक्ति करते समय मन शांत रहना चाहिए और सभी तरह की बुरे विचारों से बचना चाहिए। जो लोग इस बात का ध्यान रखते हैं, उन्हें भगवान की कृपा मिलती है। इस संबंध में एक लोक कथा प्रचलित है।
कथा के अनुसार पुराने समय में दो संत एक साथ रहते थे। दोनों की भक्ति का तरीका अलग-अलग था। एक संत दिनभर तपस्या और मंत्र जाप करते रहता था। जबकि दूसरा संत रोज सुबह-शाम पहले भगवान को भोग लगाता और फिर खुद भोजन करता था।
एक दिन दोनों के बीच झगड़ा होने लगा कि बड़ा संत कौन है? इस दौरान वहां नारद मुनि पहुंच गए। नारद ने दोनों संतों से पूछा कि किस बात के लिए लड़ाई कर रहे हैं? संतों ने बताया कि हम ये तय नहीं कर पा रहे हैं कि दोनों में बड़ा संत कौन है? नारद ने कहा कि ये तो छोटी सी बात है, इसका फैसला मैं कल कर दूंगा। 
अगले दिन नारद मुनि ने मंदिर में दोनों संतों की जगह के पास हीरे की एक-एक अंगूठी रख दी। पहले तप करने वाला संत वहां पहुंचा उसने एक अंगूठी देखी और चुपचाप उसे अपने आसन के नीचे छिपाकर मंत्र जाप करने लगा।
कुछ देर में दूसरा संत भगवान को भोग लगाने पहुंचा। उसने भी हीरे अंगूठी देखी, लेकिन उसने अंगूठी की ओर ध्यान नहीं दिया। भगवान को भोग लगाया और खाना खाने लगा। उसने अंगूठी नहीं उठाई, उसके मन में लालच नहीं जागा, क्योंकि उसे भरोसा था कि भगवान रोज उसके लिए खाने की व्यवस्था जरूर करेंगे।
कुछ देर बाद वहां नारदजी आ गए। दोनों संतों ने पूछा कि अब आप बताएं कि हम दोनों में बड़ा संत कौन है? नारद ने तपस्या करने वाले संत को खड़े होने के लिए कहा, जैसे ही वह संत खड़ा हुआ तो उसके आसन के नीचे छिपी हुई अंगूठी दिख गई।
नारद मुनि ने उससे कहा कि तुम दोनों में भोग लगाकर खाना खाने वाला संत बड़ा है। तपस्या करने वाले संत में चोरी करने की बुरी आदत है, उसने भक्ति के समय में भी चोरी करने से संकोच नहीं किया, जबकि भोग लगाने वाले संत ने अंगूठी की ओर ध्यान तक नहीं दिया। इस कारण वही संत बड़ा है।
प्रसंग की सीख
इस प्रसंग की सीख यह है कि भक्ति तभी सफल होती है, जब भक्त के मन में बुरे विचार न हों, भक्त बुरे काम न करता हो। जिस भक्त के विचार पवित्र हैं और जो बुरे कामों से दूर रहता है, सिर्फ उसे ही भगवान की कृपा मिलती है।

सच्चा भक्त

एक भक्त था, वह रोज बिहारी जी के मंदिर जाता था। पर मंदिर में बिहारी जी की जगह उसे एक ज्योति दिखाई देती थी, मंदिर में बाकी के सभी भक्त कहते- वाह ! आज बिहारी जी का श्रंगार कितना अच्छा है,, बिहारी जी का मुकुट ऐसा,, उनकी पोशाक ऐसी,, तो वह भक्त सोचता... बिहारी जी सबको दर्शन देते है, पर मुझे क्यों केवल एक ज्योति दिखायी देती है । हर दिन ऐसा होता । एक दिन बिहारी जी से बोला ऐसी क्या बात है की आप सबको तो दर्शन देते है पर मुझे दिखायी नहीं देते । कल आप को मुझे दर्शन देना ही पड़ेगा.अगले दिन मंदिर गया फिर बिहारी जी उसे जोत के रूप में दिखे । वह बोला बिहारी जी अगर कल मुझे आपने दर्शन नहीं दिये तो में यमुना जी में डूबकर मर जाँऊगा ।उसी रात में बिहारी जी एक कोड़ी के सपने में आये जो कि मंदिर के रास्ते में बैठा रहता था, और बोले तुम्हे अपना कोड़ ठीक करना है वह कोड़ी बोला - हाँ भगवान, भगवान बोले - तो सुबह मंदिर के रास्ते से एक भक्त निकलेगा तुम उसके चरण पकड़ लेना औरतब तक मत छोड़ना जब तक वह ये न कह दे कि बिहारी जी तुम्हारा कोड़ ठीक करे .अगले दिन वह कोड़ी रास्ते में बैठ गया जैसे ही वह भक्त निकला उसने चरण पकड़ लिए और बोला पहले आप कहो कि मेरा कोड़ ठीक हो जाये ।वह भक्त बोला मेरे कहने से क्या होगा आप मेरे पैर छोड दीजिये ,कोड़ी बोला जब तक आप ये नहीं कह देते की बिहारी जी तुम्हारा कोड़ ठीक करे तक मैं आपके चरण नहीं छोडूगा. भक्त वैसे ही चिंता में था,कि बिहारी जी दर्शन नहीं दे रहे,ऊपर से ये कोड़ी पीछे पड़ गया तो वह झुँझलाकर बोला जाओ बिहारी जी तुम्हारा कोड ठीक करे और मंदिर चला गया,मंदिर जाकर क्या देखता है बिहारीजी के दर्शन हो रहे है,बिहारेजी से पूछँने लगा अब तक आप मुझे दर्शन क्यों नहीं दे रहे थे,तो बिहारीजी बोले तुम मेरे निष्काम भक्त हो आज तक तुमने मुझसे कभी कुछ नहीं माँगा इसलिए में क्या मुँह लेकर तुम्हे दर्शन देता यहाँ सभी भक्त कुछ न कुछ माँगते रहते है इसलिए में उनसे नज़रे मिला सकता हूँ ,पर आज तुमने रास्ते में उस कोड़ी से कहा - कि बिहारी जी तुम्हारा कोड़ ठीक कर दे इसलिए में तुम्हे दर्शन देने आ गया ।
सार - भगवान की निष्काम भक्ति ही करनी चाहिये,भगवान की भक्ति करके यदि संसार के ही भोग,सुख ही माँगे तो फिर वह भक्ति नहीं वह तो सोदेबाजी है!

 

नारद मोह और श्री कृष्ण

एक बार देवर्षि नारद के मन में आया कि भगवान् के पास बहुत महल आदि है है , एक- आध हमको भी दे दें तो यहीं आराम से टिक जायें , नहीं तो इधर - उधर घूमते रहना पड़ता है ।भगवान् के द्वारिका में बहुत महल थे ।
नारद जी ने भगवान् से कहा - " भगवन ! " आपके बहुत महल हैं , एक हमको दो तो हम भी आराम से रहें ।
आपके यहाँ खाने - पीने का इंतजाम अच्छा ही है ।
भगवान् ने सोचा कि यह मेरा भक्त है , विरक्त संन्यासी है।
अगर यह कहीं राजसी ठाठ में रहने लगा तो थोड़े दिन में ही इसकी सारी विरक्ति भक्ति निकल जायेगी ।
हम अगर सीधा ना करेंगे तो यह बुरा मान जायेगा , लड़ाई झगड़ा करेगा कि इतने महल हैं और एकमहल नहीं दे रहे हैं ।भगवान् ने चतुराई से काम लिया , नारद से कहा " जाकर देख ले , जिस मकान में जगह खाली मिले वही तेरे नाम कर देंगे ।"नारद जी वहाँ चले ।
भगवान् की तो १६१०८रानियाँ और प्रत्येक के११- ११बच्चे भी थे ।यह द्वापर युग की बात है ।
सब जगह नारद जी घूम आये लेकिन कहीं एक कमरा भी खाली नहीं मिला , सब भरे हुए थे ।
आकर भगवान् से कहा " वहाँ कोई जगह खाली नहीं मिली ।"भगवान् ने कहा फिर क्या करूँ , होता तो तेरे को दे देता। "नारद जी के मन में आया कि यह तो भगवान् ने मेरे साथ धोखाधड़ी की है , नहीं तो कुछ न कुछ करके, किसी को इधर उधर शिफ्ट कराकर , खिसकाकर एक कमरा तो दे ही सकते थे ।
इन्होंने मेरे साथ धोखा किया है तो अब मैं भी इन्हे मजा चखाकर छोडूँगा ।नारद जी रुक्मिणी जी के पास पहुँचे , रुक्मिणी जी ने नारद जी की आवभगत की , बड़े प्रेम से रखा ।उन दिनों भगवान् सत्यभामा जी के यहाँ रहते थे ।
एक आध दिन बीता तो नारद जी ने उनको दान की कथा सुनाई , सुनाने वाले स्वयं नारद जी।
दान का महत्त्व सुनाने लगे कि जिस चीज़ का दान करोगे वही चीज़ आगे तुम्हारे को मिलती है।
जब नारद जी ने देखा कि यह बात रुक्मिणी जी को जम गई है तो उनसे पूछा " आपको सबसे ज्यादा प्यार किससे है?रुक्मिणी जी ने कहा " यह भी कोई पूछने की बात है , भगवान् हरि से ही मेरा प्यार है ।"कहने लगे " फिर आपकी यही इच्छा होगी कि अगले जन्म में तुम्हें वे ही मिलें ।"रुक्मिणी जी बोली " इच्छा तो यही है ।"
नारद जी ने कहा " इच्छा है तो फिर दान करदो, नहीं तो नहीं मिलेँगे ।
आपकी सौतें भी बहुत है और उनमें से किसी ने पहले दान कर दिया उन्हें मिल जायेंगे।
इसलिये दूसरे करें इसके पहले आप ही करदे ।
रुक्मिणी जी को बात जँच गई कि जन्म जन्म में भगवान् मिले तो दान कर देना चाहियें।रुक्मिणी से नारद जी ने संकल्प करा लिया ।अब क्या था , नारद जी का काम बन गया ।वहाँ से सीधे सत्यभामा जी के महल में पहुँच गये और भगवान् से कहा कि " उठाओ कमण्डलु , और चलो मेरे साथ ।"भगवान् ने कहा " कहाँ चलना है , बात क्या हुई ? "नारद जी ने कहा " बात कुछ नहीं , आपको मैंने दान में ले लिया है ।
आपने एक कोठरी भी नहीं दी तो मैं अब आपको भी बाबा बनाकर पेड़ के नीचे सुलाउँगा ।"
सारी बात कह सुनाई ।भगवान् ने कहा " रुक्मिणी ने दान कर दिया है तो ठीक है ।
वह पटरानी है , उससे मिल तो आयें ।"भगवान् ने अपने सारे गहने गाँठे , रेशम के कपड़े सब खोलकर सत्यभामा जी को दे दिये और बल्कल वस्त्र पहनकर, भस्मी लगाकर और कमण्डलु लेकर वहाँ से चल दिये ।उन्हें देखते ही रुक्मिणी के होश उड़ गये । पूछा " हुआ क्या ? "
भगवान् ने कहा " पता नहीं , नारद कहता है कि तूने मेरे को दान में दे दिया । "रुक्मिणी ने कहा " लेकिन वे कपड़े , गहने कहाँ गये, उत्तम केसर को छोड़कर यह भस्मी क्यों लगा ली ? "भगवान् ने कहा " जब दान दे दिया तो अब मैं उसका हो गया।
इसलिये अब वे ठाठबाट नहीं चलेंगे ।
अब तो अपने भी बाबा जी होकर जा रहे हैं ।"
रुक्मिणी ने कहा " मैंने इसलिये थोड़े ही दिया था कि ये ले जायें।"
भगवान् ने कहा " और काहे के लिये दिया जाता है ?
इसीलिये दिया जाता है कि जिसको दो वह ले जाये ।"
अब रुक्मिणी को होश आया कि यह तो गड़बड़ मामला हो गया।
रुक्मिणी ने कहा " नारद जी यह आपने मेरे से पहले नहीं कहा , अगले जन्म में तो मिलेंगे सो मिलेंगे , अब तो हाथ से ही खो रहे हैं । "नारद जी ने कहा " अब तो जो हो गया सो हो गया , अब मैं ले जाऊँगा ।"रुक्मिणी जी बहुत रोने लगी।तब तक हल्ला गुल्ला मचा तो और सब रानियाँ भी वहा इकठ्ठी हो गई ।सत्यभामा , जाम्बवती सब समझदार थीं ।उन्होंने कहा " भगवान् एक रुक्मिणी के पति थोड़े ही हैं, इसलिये रुक्मिणी को सर्वथा दान करने का अधिकार नहीं हो सकता , हम लोगों का भी अधिकार है ।"
नारद जी ने सोचा यह तो घपला हो गया ।
कहने लगे " क्या भगवान् के टुकड़े कराओगे ?
तब तो 16108 हिस्से होंगे ।"रानियों ने कहा " नारद जी कुछ ढंग की बात करो । "नारद जी ने विचार किया कि अपने को तो महल ही चाहिये था और यही यह दे नहीं रहे थे , अब मौका ठीक है , समझौते पर बात आ रही है ।
नारद जी ने कहा भगवान् का जितना वजन ह
ै , उतने का तुला दान कर देने से भी दान मान लिया जाता है ।
तुलादान से देह का दान माना जाता है ।
इसलिये भगवान् के वजन का सोना , हीरा , पन्ना दे दो ।"
इस पर सब रानियाँ राजी हो गई।
बाकी तो सब राजी हो गये लेकिन भगवान् ने सोचा कि यह फिर मोह में पड़ रहा है ।
इसका महल का शौक नहीं गया।
भगवान् ने कहा " तुलादान कर देना चाहिये , यह बात तो ठीक हे ।"
भगवान् तराजु के एक पलड़े के अन्दर बैठ गये ।
दूसरे पलड़े में सारे गहने , हीरे , पन्ने रखे जाने लगे ।
लेकिन जो ब्रह्माण्ड को पेट में लेकर बैठा हो , उसे द्वारिका के धन से कहाँ पूरा होना है ।
सारा का सारा धन दूसरे पलड़े पर रख दिया लेकिन जिस पलड़े पर भगवान बैठे थे वह वैसा का वैसा नीचे लगा रहा , ऊपर नहीं हुआ ।
नारद जी ने कहा " देख लो , तुला तो बराबर हो नहीं रहा है , अब मैं भगवान् को ले जाऊँगा ।"
सब कहने लगे " अरे कोई उपाय बताओ ।"
नारद जी ने कहा " और कोई उपाय नहीं है ।"
अन्य सब लोगों ने भी अपने अपने हीरे पन्ने लाकर डाल दिये लेकिन उनसे क्या होना था ।
वे तो त्रिलोकी का भार लेकर बैठे थे ।
नारद जी ने सोचा अपने को अच्छा चेला मिल गया , बढ़िया काम हो गया ।
उधरऔरते सब चीख रही थी।
नारद जी प्रसन्नता के मारे इधर ऊधर टहलने लगे ।
भगवान् ने धीरे से रुक्मिणी को बुलाया ।
रुक्मिणी ने कहा " कुछ तो ढंग निकालिये , आप इतना भार लेकर बैठ गये , हम लोगों का क्या हाल होगा ? "
भगवान् ने कहा " ये सब हीरे पन्ने निकाल लो , नहीं तो बाबा जी मान नहीं रहे हैं ।
यह सब निकालकर तुलसी का एक पत्ता और सोने का एक छोटा सा टुकड़ा रख दो तो तुम लोगों का काम हो जायगा ।"रुक्मिणी ने सबसे कहा कि यह नहीं हो रहा है तो सब सामान हटाओ ।
सारा सामान हटा दिया गया और एक छोटे से सोने के पतरे पर तुलसी का पता रखा गया तो भगवान् के वजन के बराबर हो गया ।सबने नारद जी से कहा ले जाओ " तूला दान ।"
नारद जी ने खुब हिलाडुलाकर देखा कि कहीं कोई डण्डी तो नहीं मार रहा है ।नारद जी ने कहा इन्होंने फिर धोखा दिया ।फिर जहाँ के तहाँ यह लेकर क्या करूँगा ?
उन्होंने कहा " भगवन् ।यह आप अच्छा नहीं कर रहे हैं , केवल घरवालियों की बात सुनते हैं , मेरी तरफ देखो ।"
भगवान् ने कहा " तेरी तरफ क्या देखूँ ?
तू सारे संसार के स्वरूप को समझ कर फिर मोह के रास्ते जाना चाह रहा है तो तेरी क्या बात सुनूँ।"
तब नारद जी ने समझ लिया कि भगवान् ने जो किया सो ठीक किया ।नारद जी ने कहा "
एक बात मेरी मान लो ।आपने मेरे को तरह तरह के नाच अनादि काल से नचाये और मैंने तरह तरह के खेल आपको दिखाये।कभी मनुष्य , कभी गाय इत्यादि पशु , कभी इन्द्र , वरुण आदि संसार में कोई ऐसा स्वरूप नहीं जो चौरासी के चक्कर में किसी न किसी समय में हर प्राणी ने नहीं भोग लिया ।अनादि काल से यह चक्कर चल रहा है , सब तरह से आपको खेल दिखाया ।
आप मेरे को ले जाते रहे और मैं खेल करता रहा ।
अगर आपको मेरा कोई खेल पसंद आगया हो तो आप राजा की जगह पर हैं और मैं ब्राह्मण हूँ तो मेरे को कुछ इनाम देना चाहिये ।।वह इनाम यही चाहता हूँ कि मेरे शोक मोह की भावना निवृत्त होकर मैं आपके परम धाम में पहुँच जाऊँ । और यदि कहो कि " तूने जितने खेल किये सब बेकार है " , तो भी आप राजा हैं ।जब कोई बार बार खराब खेल करता है तो राजा हुक्म देता है कि " इसे निकाल दो ।"इसी प्रकार यदि मेरा खेल आपको पसन्द नहीं आया है तो फिर आप कहो कि इसको कभी संसार की नृत्यशाला में नहीं लाना है । तो भी मेरी मुक्ति है ।"
भगवान् बड़े प्रसन्न होकर तराजू से उठे और नारद जी को छाती से लगाया और कहा " तेरी मुक्ति तो निश्चित है ।


✓श्री नामदेवजी और एकादशी

श्री नामदेवजी और एकादशी
विट्ठल भगवान के बहुत बड़े भगत   नामदेव
श्री नामदेव जी महाराष्ट्र के एक सुप्रसिद्ध संत
थे। वे विट्ठल भगवान के बहुत बड़े भगत हुए हैं।
उनका ध्यान सदा विट्ठल भगवान के दर्शन, भजन
और कीर्तन में ही लगा रहता था। सांसारिक
कार्यों में उनका जरा भी मन नहीं लगता था।
वे एकादशी व्रत के प्रति पूर्ण निष्ठावान थे। वे
उस दिन जल भी नहीं पीते थे। एकादशी की सम्पूर्ण
रात्रि को हरिनाम संकीर्तन करते थे।
एकादशी को वे न अन्न खाते और न
किसी को खिलाते। एक दिन
एकादशी की रात्रि को वे हरिनाम संकीर्तन कर
रहे थे। उनके साथ अनेकानेक भक्त भी संकीर्तन कर रहे
थे।अचानक एक क्षीणकाय, हड्डियों का ढाचा मात्र
एक वृद्ध ब्राह्मण उनके द्वार पर आया और बोला,‘मैं
अत्यन्त भूखा हूं। मुझे भोजन कराओ अन्यथा मैं भूख के
मारे मर जाऊंगा।’श्री नामदेव जी बोले,‘मैं एकादशी को न अन्नखाता हूं और न अन्न किसी और को खिलाता हं।
अतः ब्राह्मण देवता प्रातः काल सूर्योदय
का इंतजार करो। व्रत का पारण कर आपको भर पेट
भोजन कराऊंगा।’ब्राह्मण बोला,‘मुझे तो अभी ही भोजन चाहिए। मैंएक सौ बीस वर्ष का बूढ़ा हूं। एकादशी व्रत आठवर्ष से लेकर अस्सी वर्ष तक के लोगों के लिए है। मैं
भूख से मर जाऊंगा और तुमको ब्रह्म हत्या का पाप
लगेगा।’श्री नाम देव जी ने कहा,‘ब्राह्मण देवता चाहे कुछ
भी हो जाए मैं आपको भोजन नहीं करा सकता।
कृपया आप सुबह तक प्रतिक्षा करें।’
श्री नाम देव जी के ऐसे व्यवहार के प्रति अन्य
ग्राम-वासियों ने नाम देव जी को निष्ठुर कहा और
ब्राह्मण को भोजन देना चाहा परन्तु ब्राह्मण ने
भोजन लेने से इंकार कर दिया और कहा,‘यदि मैं
भोजन ग्रहण करूंगा तो सिर्फ और सिर्फ नामदेव से
ही करूंगा।’श्री नाम देव जी ने जब ब्राह्मण को भोजन न
दिया तो कुछ ही समय में उसके प्राण पखेरू उड़ गए।
वहां उपस्थित सभी लोग श्री नामदेव जी के
प्रति अपशब्द कहने लगे और उन्हें हत्यारा कह कर
संबोधित करने लगे।श्री नाम देव जी कुछ न बोले पूर्ववत विट्ठलभगवान के भजन और कीर्तन में ही लगे रहे तथा एकपल के लिए उठे और मृतक शरीर को ढक कर रख
दिया व मृत देह के समक्ष नाम संकीर्तन करते रहे।
प्रातःकाल श्री नाम देव जी ने व्रत पारण
किया और एक चिता बनवाई। स्वयं उस ब्राह्मण के
पार्थिव शरीर को अपनी गोद में लेकर चिता पर
बैठ गए।चिता को प्रज्वलित किया गया। जब आग की लपटेंश्री नामदेव जी तक पहुंचने
ही वाली थी तो अचानक वह ब्राह्मण उठा और
श्री नाम देवजी को उठाकर चिता से बाहर कूद
पड़ा जब तक नामदेव जी कुछ समझ पाते वह
बूढ़ा अंतर्धान हो गया।स्वयं विट्ठल भगवान ही उनकी परीक्षा लेने आए थे।इस घटना को देख कर सब आश्चर्यचकित हो गए औरश्री नाम देव जी की जय-जयकार करने लगे। धन्य हैं
श्री नामदेव जी।चित में प्रज्ञा का प्रकाश, ज्ञान का दीपक जलेतभी ठाकुर जी का निराकार स्वरूप दिखाई
देता है। भागवत श्रवण से चित रूपी दीपक जलाने
का प्रयास मानव को करना चाहिए। मानव
को अज्ञानता से लडऩा चाहिए मगर आलोचना और
अज्ञानता पर चर्चा करके अपना समय बर्बाद
नहीं करना चाहिए।

 

शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2025

✓।।जीभ की सीख।


            ।।जीभ की सीख।।
एक था राजा, बहुत कड़वा बोलता था। प्रत्येक को गाली,
प्रत्येक को ताना, प्रत्येक को धमकी ! अब राजा के आगे बोले कौन ? एक दिन  राजा के मन में सबसे अधिक कड़वी और सबसे अधिक मीठी वस्तु के बारे में जानने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई। अतः  राजा ने अपने दरबारियों से कहा कि - जो-जो आदमी जिस वस्तु को सबसे अधिक कड़वा अर्थात् बुरा  समझता है, उसे मेरे पास लाए। दूसरे दिन कोई आदमी तो गोबर उठा कर ले गया, कोई कीचड़, कोई सड़ा गला पदार्थ  आदि आदि। एक बुद्धिमान आदमी एक मृत पुरुष की जीभ काटकर ले गया । राजा ने उस जीभ को देखकर पूछा- इसमें क्या बुराई है? उस आदमी ने कहा महाराज बुराइयों की जड़ तो यही है। तलवार के काटे का इलाज है, परन्तु कड़वी बात से हृदय पर जो घाव हो जाता है उसका कोई उपचार नहीं। और यह जीभ ही है जो कड़वी बात बोलती है । राजा को कुछ लज्जा अनुभव हुई कि सबसे कड़वा तो मैं ही बोलता हूं । परन्तु वह चुप रहा।  अब दूसरे दिन उसने दरबारियों को कहा- जिस जिसको जो वस्तु सबसे अधिक मीठी अर्थात्अच्छी लगती है, उसको मेरे पास लेकर आओ। दूसरे दिन कोई आदमी घी लाया, कोई चीनी, कोई शहद, कोई फूल आदि आदि। परन्तु वो बुद्धिमान आदमी आज फिर एक मृतक की जीभ काटकर ले आया। राजा ने कहा अरे ! तू तो कहता था कि जीभ से अधिक बुरी कोई वस्तु नहीं । आज तुझे सबसे अधिक अच्छी वस्तु लाने के लिए कहा था, तू फिर जीभ ही ले आया? उस आदमी ने कहा- महाराज ! जीभ सबसे अधिक कड़वी अर्थात् बुरी वस्तु भी , और सबसे अधिक  मीठी अर्थात्  अच्छी वस्तु भी है। जब यह मीठा बोलती है, सम्मान से, आदर से प्यार से बोलती है । जब ये स्वामी का नाम लेती है, भगवान का नाम लेती है तो इससे अधिक अच्छी कोई वस्तु नहीं होती। तो भाई जीभ से ठीक तरीके से काम लो। याद रखो जीभ पर लगी चोट सबसे जल्दी ठीक होती है पर जीभ से लगी चोट जिंदगी भर ठीक नहीं होती। इस कहानी की भीतरी और  गहरी बात वहीं है जो कवि रहीमजी ने कहा है- 
रहिमन जिह्वा बावरी कह गई स्वर्ग पाताल।
आप तो कह भीतर भई जूता खात कपाल ।।
               ।।धन्यवाद।।


सोमवार, 3 फ़रवरी 2025

✓मानस चर्चा।। बाली और हनुमान युद्ध।।

मानस चर्चा।।   बाली और हनुमान युद्ध ।।जब बाली को ब्रम्हा जी से ये वरदान प्राप्त हुआ कि जो भी उससे युद्ध करने उसके सामने आएगा उसकी आधी ताक़त बाली के शरीर मे चली जायेगी और  बाली हर युद्ध मे अजेय रहेगा और ब्रम्हा जी की कृपा बाली पर सदैव बनी रहती है।बाली को अपने बल पर बड़ा घमंड था, उसका घमंड तब ओर भी बढ़ गया, जब उसने करीब करीब तीनों लोकों पर विजय पाए हुए रावण से युद्ध किया और रावण को अपनी पूँछ से बांध कर छह महीने तक पूरी दुनिया घूमी, रावण जैसे योद्धा को इस प्रकार हरा कर बाली के घमंड का कोई सीमा न रहा।अब वो अपने आपको संसार का सबसे बड़ा योद्धा समझने लगा था, और यही उसकी सबसे बड़ी भूल हुई, अपने ताकत के मद में चूर एक दिन एक जंगल मे पेड़ पौधों को तिनके के समान उखाड़ फेंक रहा था, हरे भरे वृक्षों को तहस नहस कर दे रहा था, अमृत समान जल के सरोवरों को मिट्टी से मिला कर कीचड़ कर दे रहा था, एक तरह से अपने ताक़त के नशे में बाली पूरे जंगल को उजाड़ कर रख देना चाहता था, और बार बार अपने से युद्ध करने की चेतावनी दे रहा था- है कोई जो बाली से युद्ध करने की हिम्मत रखता हो, है कोई जो अपने माँ का दूध पिया हो जो बाली से युद्ध करके बाली को हरा दे।इस तरह की गर्जना करते हुए बाली उस जंगल को तहस नहस कर रहा था, संयोग वश उसी जंगल के बीच मे हनुमान जी,, राम नाम का जाप करते हुए तपस्या में बैठे थे, बाली की इस हरकत से हनुमान जी को राम नाम का जप करने में विघ्न लगा,और हनुमान जी बाली के सामने जाकर बोले- हे वीरों के वीर... हे ब्रम्ह अंश... हे राजकुमार बाली... ( तब बाली किष्किंधा के युवराज थे) क्यों इस शांत जंगल को अपने बल की बलि दे रहे हो।हरे भरे पेड़ों को उखाड़ फेंक रहे हो, फलों से लदे वृक्षों को मसल दे रहे हो। अमृत समान सरोवरों को दूषित मलिन मिट्टी से मिला कर उन्हें नष्ट कर रहे हो, इससे तुम्हे क्या मिलेगा, तुम्हारे औरस पिता ब्रम्हा के वरदान स्वरूप कोई तुहे युद्ध मे नही हरा सकता, क्योंकि जो कोई तुमसे युद्ध करने आएगा, उसकी आधी शक्ति तुममे समाहित हो जाएगी, इसलिए हे कपि राजकुमार अपने बल के घमंड को शांत कर और राम नाम का जाप कर, इससे तेरे मन में अपने बल का भान नही होगा और राम नाम का जाप करने से ये लोक और परलोक दोनों ही सुधर जाएंगे।इतना सुनते ही बाली अपने बल के मद चूर हनुमान जी से बोला- ए तुच्छ वानर, तू हमें शिक्षा दे रहा है, राजकुमार बाली को, जिसने विश्व के सभी योद्धाओं को धूल चटाई है और जिसके एक हुंकार से बड़े से बड़ा पर्वत भी खंड खंड हो जाता है,जा तुच्छ वानर, जा और तू ही भक्ति कर अपने राम नाम के और जिस राम की तू बात कर रहा है, वो है कौन और केवल तू ही जानता है राम के बारे में, मैंने आजतक किसी के मुँह से ये नाम नही सुना, और तू मुझे राम नाम जपने की शिक्षा दे रहा है।हनुमान जी ने कहा- प्रभु श्री राम, तीनो लोकों के स्वामी है, उनकी महिमा अपरंपार है, ये वो सागर है जिसकी एक बूंद भी जिसे मिले वो भवसागर को पार कर जाए। बाली- इतना ही महान है राम तो बुला ज़रा, मैं भी तो देखूं कितना बल है उसकी भुजाओं में, बाली काभगवान राम के विरुद्ध ऐसे कटु वचन हनुमानजी को क्रोध दिलाने के लिए पर्याप्त थे, हनुमानजी ने कहा - ए बल के मद में चूर बाली, तू क्या प्रभु राम को युद्ध मे हराएगा, पहले उनके इस तुच्छ सेवक को युद्ध में हरा कर दिखा।बाली- तब ठीक है कल के कल नगर के बीचों बीच तेरा और मेरा युद्ध होगा, हनुमान जी ने बाली की बात मान ली। बाली ने नगर में जाकर घोषणा करवा दिया कि कल नगर के बीच हनुमान और बाली का युद्ध होगा, अगले दिन तय समय पर जब हनुमान जी बाली से युद्ध करने अपने घर से निकलने वाले थे, तभी उनके सामने ब्रम्हा जी प्रकट हुए, हनुमान जी ने ब्रम्हा जी को प्रणाम किया और बोले- हे जगत पिता आज मुझ जैसे एक वानर के घर आपका पधारने का कारण अवश्य ही कुछ विशेष होगा।ब्रम्हा जी बोले- हे अंजनीसुत, हे शिवांश, हे पवनपुत्र, हे राम भक्त हनुमान, मेरे पुत्र बाली को उसकी उद्दंडता के लिए क्षमा कर दो और युद्ध के लिए न जाओ, हनुमान जी ने कहा- हे प्रभु... बाली ने मेरे बारे में कहा होता तो मैं उसे क्षमा कर देता, परन्तु उसने मेरे आराध्य श्री राम के बारे में कहा है जिसे मैं सहन नही कर सकता, और मुझे युद्ध के लिए चुनौती दिया है, जिसे मुझे स्वीकार करना ही होगा, अन्यथा सारी विश्व मे ये बात कही जाएगी कि हनुमान कायर है जो ललकारने पर युद्ध करने इसलिए नही जाता है क्योंकि एक बलवान योद्धा उसे ललकार रहा है।तब कुछ सोंच कर ब्रम्हा जी ने कहा- ठीक है हनुमान जी, पर आप अपने साथ अपनी समस्त शक्तियों को साथ न लेकर जाएं, केवल दसवां भाग का बल लेकर जाएं, बाकी बल को योग द्वारा अपने आराध्य के चरणों में रख दे, युद्ध से आने के उपरांत फिर से उन्हें ग्रहण कर लें, हनुमान जी ने ब्रम्हा जी का मान रखते हुए वैसे ही किया और बाली से युद्ध करने घर से निकले, उधर बाली नगर के बीच मे एक जगह को अखाड़े में बदल दिया था और हनुमान जी से युद्ध करने को व्याकुल होकर बार बार हनुमान जी को ललकार रहा था।पूरा नगर इस अदभुत और दो महायोद्धाओं के युद्ध को देखने के लिए जमा था, हनुमान जी जैसे ही युद्ध स्थल पर पहुँचे, बाली ने हनुमान को अखाड़े में आने के लिए ललकारा, ललकार सुन कर जैसे ही हनुमान जी ने एक पावँ अखाड़े में रखा, उनकी आधी शक्ति बाली में चली गई, बाली में जैसे ही हनुमान जी की आधी शक्ति समाई। बाली के शरीर मे बदलाव आने लगे, उसके शरीर मे ताकत का सैलाब आ गया, बाली का शरीर बल के प्रभाव में फूलने लगा, उसके शरीर फट कर खून निकलने लगा, बाली को कुछ समझ नही आ रहा था, तभी ब्रम्हा जी बाली के पास प्रकट हुए और बाली को कहा- पुत्र जितना जल्दी हो सके यहां से दूर अति दूर चले जाओ।बाली को इस समय कुछ समझ नही आ रहा रहा, वो सिर्फ ब्रम्हा जी की बात को सुना और सरपट दौड़ लगा दिया, सौ मील से ज्यादा दौड़ने के बाद बाली थक कर गिर गया, कुछ देर बाद जब होश आया तो अपने सामने ब्रम्हा जी को देख कर बोला- ये सब क्या है, हनुमान से युद्ध करने से पहले मेरा शरीर का फटने की हद तक फूलना, फिर आपका वहां अचानक आना और ये कहना कि वहां से जितना दूर हो सके चले जाओ, मुझे कुछ समझ नही आया।ब्रम्हा जी बोले-, पुत्र जब तुम्हारे सामने हनुमान जी आये, तो उनका आधा बल तुममे समा गया, तब तुम्हे कैसा लगा, बाली- मुझे ऐसा लग जैसे मेरे शरीर में शक्ति की सागर लहरें ले रही है, ऐसे लगा जैसे इस समस्त संसार मे मेरे तेज़ का सामना कोई नही कर सकता, पर साथ ही साथ ऐसा लग रहा था जैसे मेरा शरीर अभी फट पड़ेगा।ब्रम्हा जो बोले- हे बाली...मैंने हनुमान जी को उनके बल का केवल दसवां भाग ही लेकर तुमसे युद्ध करने को कहा, पर तुम तो उनके दसवें भाग के आधे बल को भी नही संभाल सके, सोचो, यदि हनुमान जी अपने समस्त बल के साथ तुमसे युद्ध करने आते तो उनके आधे बल से तुम उसी समय फट जाते जब वो तुमसे युद्ध करने को घर से निकलते, इतना सुन कर बाली पसीना पसीना हो गया, और कुछ देर सोच कर बोला- प्रभु, यदि हनुमान जी के पास इतनी शक्तियां है तो वो इसका उपयोग कहाँ करेंगे।ब्रम्हा- हनुमान जी कभी भी अपने पूरे बल का प्रयोग नही कर पाएंगे, क्योंकि ये पूरी सृष्टि भी उनके बल के दसवें भाग को नही सह सकती, ये सुन कर बाली ने वही हनुमान जी को दंडवत प्रणाम किया और बोला,एकांतों हनुमान जी  हैं जिनके पास अथाह बल होते हुए भी शांत रहते हैं और रामभजन गाते रहते है और एक मैं हूँ जो उनके एक बाल के बराबर भी नही हूँ और उनको ललकार रहा था, मुझे क्षमा करें, और आत्मग्लानि से भर कर बाली ने राम भगवान का तप किया और अपने मोक्ष का मार्ग उन्ही से प्राप्त किया।पवनपुत्र हनुमान की जय।जय श्री राम जय श्री राम।।