गुरुवार, 15 अक्टूबर 2015

स्वानुभूति गतांक से आगे||3||

तिलौली का यह नोनिया टोला बाबा टोला से तिवारी टोला बन गया।मेरा जन्म तिलौली गाँव के सामूहिक पैतृक घर पर हुवा पर  बचपन और बालकपन का आनंद एवम कष्ट यही प्राप्त किया।हमारे उन दिनों टोला एक विशिष्ठ स्थान रखता क्योकि यहाँ जन्मांत तक के सर्वाधिक संस्कारों के उपाधान तथा इस हेतु आवश्यक हर कार्य क्षेत्र के व्यक्ति उपलब्ध।घर तो यहाँ मात्र गिने-चुने जगत बाबा;जद्दू,सूरदेव,सामदेव,शम्भू नोनिया;सीताराम कोहार;शंकर, राम आशीष,रामबिलास लोहार के कुल नौ ही नवग्रह की तरह नव नव क्षेत्रों व कलाओं के महारथी तथा ज्ञाता एवम् जीवन के सभी कर्म क्षेत्रों हेतु सहज-सरल उपलब्ध।यहाँ का सभी परिवार लाजबाब अपने कर्म और परिश्रम हेतु मशहूर।ये काम से नहीं भागते इन्हें देख काम भाग जाता।मेरी माताजी सभी परिवारों की मतवा सबको सही राय देती ईमानदारी और परिश्रम का पाठ पढ़ाती।मातृ पक्ष के परिवार से प्राप्त संस्कारों के कारन माताजी पूजित रही। काफी कष्टप्रद जीवन के बाद परिवार का जीवन जीने योग्य चल रहा था।मेरा घर आम रास्ते पर जहाँ विशाल महुवा का पेड़ उसके नीचे हैण्ड पम्प जिसके समीप गुड़ की डली डलिया में माताजी हमेशा राहगीरों हेतु रखी रहती।राहगीर तृप्त हो जाते।मैं इन सभी परिस्थितियों को समझते बूझते बचपन से निकलते पाँचवीं बोर्ड पड़ौसी गाँव भैदवा से पढ़ परीक्षा केंद्र मरकडा से परीक्षा दे 1979 मेंउत्तीर्ण किया।सच यही है कि उस समय आस-पास पाँचवी के बाद अध्ययन के लिये सरकारी या पब्लिक स्कूल ही नही थे।आज भी मेरे गाँव में प्राथमिक तक ही सरकारी स्कूल है।साक्षरता कम रहने के एक कारणों में उस समय आज की तरह हर जगह स्कूलों का न होना भी रहा।संयोग से पड़ोसी गाँव टीकर में "बाबा इन्द्र मणि जनता उच्चतर माध्यमिक विद्यालय"दसवीं तक एक पब्लिक स्कूल खूल गया था जो बाद में राज्य सरकार से सहायता प्राप्त अनुदानित सरकारी स्कूल बन गया।कक्षा छठी से दसवीं तक का अध्ययन यहीं से पूरा किया।उस समय बड़े भाई साहब गोरखपुर में आधुनिक परिवार सहित रहते घर से नाम मात्र सम्बन्ध रखते,दूसरे भाई साहब नौकरी की तलाश में कभी कोलकाता कभी मथुरा वृन्दावन और तीसरे भाई साहब डागा कॉटन मिल हुगली कोलकाता में काम कर रहे थे।घर पर मैं माता-पिता और शेष परिवार के साथ रहता था।मैं अपनी बहन राजकुमारी के साथ पढ़ता।बहन उम्र में दो साल बड़ी पर मेरे साथ ही पढ़ना शुरु किया और दसवीं तक मेरे साथ ही पढ़ती रही।दसवीं के बाद शादी पश्चाद् उसकी पढ़ाई रुक गयी।भाई-बहन को ही घर परिवार का सर्वाधिक कार्य भीतर बाहर करना पड़ता रहा।माता-पिता के सामाजिक-पारिवारिक कार्यो में हमे ही यथा समय यथा शक्ति सहयोग करना होता।खेती के लियेऔकात के अनुसार ही दो बूढे बैल थे,हलवाहे को हमारे यहाँ जुताई आदि कार्य करने के बदले जमीन दी गयी थी।पिताजी ने शौक से एक भैस भी रखा था।उन सभी पशुओ की जिम्मेदारी भी हमारी ही रही।अतःप्रभु कृपा से स्वमेव ही पशु सेवा बाद में गो सेवा का लाभ एवं प्रातः काल सुबह जल्दी जगने की आदत पड़ गयी और परिश्रमी स्वभाव भी हो गया।छठी से ही मैं परिवार की आर्थिक आदि परेशानियों को धीरे-धीरे समझने लगा था और उसको दूर करने हेतु प्रयास रत रहने लगा था।जब से मैं थोड़ा-बहुत चीजों को समझने लायक हुवा तब से मैं बिना किसी के कहे आवश्यकतानुसार घर-परिवार का काम सम्भालना शुरु कर दिया।पशुओं को खिलाना- चराना,उनकी देख-भाल करना,बैलों को खेत तक पहुचाना आदि पढ़ाई के साथ मेरा मुख्य काम था।इनके अतिरिक्त अनेक पारिवारिक और सामाजिक दायित्वों को भी मुझे पूरा करना ही पड़ता था।परिवार की लचर स्थिति को दूर करने में पिताजी की जजमानी का भी सहयोग रहा।जजमानी खूब रही जो मजबूरी में ही रही।जजमानी में मुख्य काम था सत्य नारायण की संस्कृत में कथा कहना।पिताजी के दबाव और समय की मजबूरी में मैंने यह काम स्वमेव ही पुस्तकों की सहायता से सिखा और सत्य नारायण की कथा बाँचना यत्र-तत्र-सर्वत्र जहाँ मिले वही शुरु कर दिया।इससे संस्कृत-संस्कार एवं संस्कृति के प्रति स्वमेव रुझान बढ़ने लगा।
        मैं अपनी पढ़ाई के साथ-साथ घर के समस्त कार्यो को निश्चित समय पर करता रहा।बीच के दोनों भाइयों द्वारा समय-समय पर आर्थिक सहायता मिल जाया करती थी फिर भी तंगी बरकरार थी।मुझे सत्य नारायण कथा कहने से हल्का लाभ मेरी समझ में उस समय मुझे मिला होगा पर दूसरों को जरुर मिला क्योंकि स्कूल के पास जो बाबाजी का चौरा यानि मंदिर इन्द्रमणि ब्रह्म का है वहाँ रोज दो चार कथा के करवाने वाले आते जिनके पास कथा वाचक नहीं होते उनके लिए मैं सुलभ था। कथा में बीस आने पक्के थे जजमान अच्छा तो पांच से दस रुपये तक हो जाते और भोजन में दही-चिउरा भी हो जाता।प्रभु कृपा मैं एक भी पैसे का दुरुपयोग कभी नहीं करता अत्यावश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद जो बच जाता उसे गोलक के हवाले कर देता।मेरी बहन मेरे साथ मेरी ही कक्षा में पढ़ती,मेरे स्कूल और कक्षा में मुझे और मेरे कार्य को सब जानते,कथा से जो प्रसाद मैं लेकर आता और अपने थैले में रखता उसे कभी-कभी मेरे साथी तो कभी-कभी बहन की सहेलियां चुपके से निकाल कर खा जाते मजे लेते हँसते आनन्द करते।मैं भी उनके साथ हँसता खेलता मस्त रहता आखिर उनका साथी ही तो था।संयोग अचानक भैस के बिक जाने के कारण पिताजी एक गाय लाये जिससे एक बछड़ा हुवा,इसी बीच एक बूढ़ा बैल मर गया,खेती में परेशानी आ गयी पर हमारे टोले पर ही एक परिवार के पास एक ही बैल था अतःउनके साथ काम चलाया गया।अगले साल दूसरा बैल भी चल बसा।पिताजी ने एक बछड़ा कही से लाया और अपने घर वाले बछड़े के साथ एक अच्छी जोड़ी तैयार कर दिया जिससे बैलों की समस्या लगभग हल हो गयी।पिताजी का गाय के प्रति प्रेम बड़ गया।तबसे आज भी एक न एक गाय हमारे यहाँ हमेशा रखी जाती भले ही इनकी संख्या अधिक हो सकती है पर कम नहीं।समय ने करवट लिया।जब मैं आठवीं में आया उसी समय पता नहीं किन ज्ञाताज्ञात कारणों से मेरे छोटे भाई अपनी नौकरी छोड़कर घर आ गये। मेरे दूसरे भाई भी छुट्टी पर मथुरा वृन्दावन से गाँव आये हुवे थे।इसी बीच मेरे स्कूल के मैनेजर ने मेरे पिताजी को बुलवाया और मेरे दूसरे भाई साहब की नौकरी उसी स्कूल में लग गयी पर निःशुल्क सेवा जब सरकार अनुदान देगी तबसे तनख्वाह मिलने की बात तय हुई।छोटे भाई साहब गोरखपुर जा कर ट्रक चलाना सिखने लगे।वह एक कुशल ड्राइवर बन गये।दूसरे भाई साहब को स्कूल से तनख्वाह नहीं मिलती अतः उन्होंने जजमानी जोर शोर से सम्भाला,मैं उस काम से फ्री पर खेती आदि कामो में उनके साथ रहता,भाई साहब को अनेक स्थानों से श्रीमद्भागवत कथा कहने का प्रस्ताव आता गया और भाई साहब व्यास होते जिनमे लगभग हर जगह मैं उनका सहयोगी होता।मथुरा वृन्दावन के प्रवास पर भाई साहब बाके बिहारी से बहुत प्रभावित रहे और वहाँ के प्रवास के कारण ही अच्छे व्यास बन गये ।उनके द्वारा ही सही मुझे भी श्रीमद्भागवत कथा का आनन्द लेने के अवसर प्राप्त होते रहे।भाई साहब का स्कूल सरकारी हो गया।वेतन मिलना शुरु हो गया।भाई साहब के गाँव से दूर होने पर अभी भी मैं यदा-कदा पिताजी के मिलने वालों या यो कहे जजमानों के यहाँ कथा कहने मन-बेमन से जाता ही था,एक दिन श्री रामचरितमानस पढ़ते समय मेरा मन "पौरोहित्य कर्म अति मंदा।बेद पुरान स्मृति कर निंदा।।"पर मंथन करना शुरु कर दिया और मैंने मन ही मन निर्णय कर लिया कि किसी भी हाल में मैं अब यह कार्य नहीं करुँगा पर इस मेरे निर्णय के एक दो दिन बाद ही ऐसी स्थिति आ गयी कि मुझे पिताजी के दबाव में पड़ोसी गाँव धौला पंडित श्री शारदा प्रसाद पाण्डेय के घर कथा कहने जाना पड़ा पर वहाँ तो हद हो गयी,कथा अच्छा प्रशंसा के स्थान पर श्री पाण्डेय ने मुझे और पिताजी को बहुत ही विनम्रता से बहुत ही चुभने वाले कड़वे वचन कह दिये।मुझे उनकी सभी बातें हितप्रद ही लगी उन्होंने मुझे पढ़ने और आगे बढ़ने की प्रेरणा ही दिया।वास्तव में श्री पाण्डेयजी परमहितकारी वचन कठोरता से कहा जिसके बारे में कहा भी गया है"सुलभा पुरुषा राजन सततं प्रियवादीनः।अप्रिय स पथस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभम्।।"गोस्वामी तुलसी दास ने भी लिखा है:-प्रिय बानी जे कहहि जे सुनही।ऐसे नर निकाय जग अहही।बचन परमहित सुनत कठोरे।सुनहि जे कहहि जे नर प्रभु थोरे।मैं उनकी बात को दिल पर बैठा लिया।पर पिताश्री ने उनकी बातों पर ध्यान नहीं दिया यह मुझे हमेशा याद रहेगा पर उनकी हर बात मेरे जेहन में समा गयी और मैंने दृढ़ निश्चय किया कि अब मैं किसी भी हाल में इस काम को नहीं करुँगा।दृढ़ निश्चय पर परीक्षा शेष।परीक्षा का दिन आ गया।भाई साहब की अनुपस्थिति में पिताजी ने पड़ोस की लड़की की शादी में पंडिताई करने का दबाव बनाने लगे पर मैंने पहली बार जीवन में पहली बार अपने जीवनदाता का विरोध कर डाला तो कर ही डाला इस पर उन्हें गुस्सा आना स्वाभाविक,गुस्से में उन्होंने चाटा जड़ दिया और मैं घर छोड़ दिया,मैं बामुश्किल पैदल आदि से गोरखपुर अपने बड़े भाई साहब के पास पहुँच गया।उन्हें सारी बात बतया।पर वे मुझे अपना क्वार्टर और दुकान कार्य समझाकर मुझे या खुद घर जाने ले जाने के बजाय अपनी ससुराल निकल गये जहाँ उनका पूरा परिवार पहले से गया था।मैं वहाँ कुछ दिन रहा बहुत कुछ सीखा और तो और चाय को छोड़ने का प्रण भी मैंने वही किया,हुवा यो कि भाई साहब के दुकान के पास ही एक चाय की दुकान थी जहाँ मैं रोज चाय पिया करता था अचानक उसको गाँव जाना पड़ गया मेरे चाय के लाले पड़ गए अचानक चाय के  समय सरदर्द शुरु ऐसा दो एक दिन हुवा कि मैंने सोचा हो न हो कि चाय के कारण ही ऐसा हो रहा हो जो सही भी था मैंने वही जून1982 में निर्णय किया कि चाय कभी नहीं पीऊँगा और निर्णय पर कायम हूँ।यहाँ मास्टर साहब और पूरा परिवार मेरी खोज में परेशान रहा वह हर रिश्तेदारो के यहाँ आस-पास अन्य वांछित स्थानों पर मुझे खोजता रहा भाई साहब मेरी खोज में मामाजी के यहाँ गये जहाँ से खाली हाथ आते समय दस शीशम के पौधे लाये और मेरे भगने की याद में उनका रोपण किये जहाँ बाद में हमने एक खूबसूरत बाग लगा दिये।बड़े भाई साहब ने किसी प्रकार मेरे गोरखपुर होने की खबर घर दे दिया था जिससे घर वालो की परेशानी कम हो गयी थी।मेरे इस कृत्य से परिवार को पूरा परिवार मिल गया,बड़े भाई साहब ससुराल से अपने पूरे परिवार को लाकर गाँव छोड़ गए और अपने अपनी दुकान सम्भालने लगे।मेरे छोटे भाई साहब की शादी भी हो गयी।सामान्य स्थिति में परिवार चलने लगा।बड़े व छोटे दोनों भाइयों ने अपने परिवार सहित गोरखपुर रहते और घर भी आते जाते।मैं ग्रामीण वातावरण में ही अपनी सभी परिस्थितियों को समझते हुवे पूरे लगन से अपनी पढाई जारी रखा और अपनी क्षमतानुसार समस्त गृहकार्यो में हाथ पूरे मनोयोग व परिश्रम से हाथ बटाता तथा खेती, बागवानी,पशु सेवा आदि कार्यो को करता परिवार की गाड़ी डगरने लगी थी।
                    क्रमशः

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