दे भुक्ति मुक्ति हैं जग तारन तरन
सदा साथ कमलाकर किंकर।
कुन्दकली सम वरदंत मनोहर।।
मति विमला सबला विद्या वर।
सुमिरत मोह कोह हटे सत्वर।।
दांत पीस कर मुष्टिका प्रहार।
रन छोड़े शत्रु दांत खट्टे कर।।
दांत से ही सेहत सवरती सही।
मुंह दांत नहीं तो पेटआंत नहीं।।
इन्द्रिय हैं हम सक्रिय हैं संसार।रहा
दांत कटी रोटी कर्ण साहै धार।।
आकाश वृत्ति ही जब जग जात।
गिनों क्यों दान बछिया के दांत।।
सफेद पोशों का व्यवहार यहाँ।
हाथी दांत सा ही धोखा जहाँ।।
कर्म धर्म गीता मर्म है बसाना।
जहाँ में जहाँ तक जगह पाना।।
बुलन्दियो की इमारतें उठाना।
रह जाय दंग दुश्मन व जमाना।।
युगों युगों से सबने देखा जाना।
अमितों का दातों अंगुली दबाना।।
दुःख दर्द दांत तालू में जमना।
मृग मरीचिका है दिवा सपना।।
ज्ञान अनुभव जीवन में भरना।
देगा सब दूध दांत का टूटना।।
द्वितीय बचपन जीवन में आता।
इंसा को तब है कुछ नहीं भाता।।
आँख कान नाक दांत त्वचा गुन।
हो जाते हैं जब सभी अंग सुन्न।।
पवन तनय संकट हरन सुमिरन।
दे भुक्ति मुक्ति हैं जग तारन तरन।।
1 टिप्पणियाँ:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (09-05-2015) को "चहकी कोयल बाग में" {चर्चा अंक - 1970} पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
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