दर्पण
आज मैंने दर्पण को देखा बोलते,
देखने वाले को खुद संवाद करते।
मैं अद्भुत अलबेला आवश्यक,
सामने वाले के भाव का वाहक।
मन-तन के रोम रोम का दर्पन हूँ,
बचपन से बुढ़ापे का मैं साक्षी हूँ।
कभी बस्तु था अब मैं स्वरूप हूँ,
कभी यहाँ वहाँ था अब सर्वत्र हूँ।
कभी आईना था अब आई ना हूँ,
देखने वालों को आईना दिखाता हूँ।
हर सच बतला हर झूठ छिपाता हूँ,
अहंकारी नहीं निरा स्वाभिमानी हूँ।
एक-अनेक क्या मैं भाई सबका हूँ,
तन का ही क्यों मैं भाई मनकाभी हूँ।
जागीरों से तकदीरों का दर्शन हूँ,
साइड से टाइड तक का गाइड हूँ।
औरंगजेब-पद्मावती का गाथा हूँ,
पद्मावत की नागमती का माथा हूँ।
इतिहास क्या वर्तमान बनाता हूँ,
मैं नहीं कभी किसी को सताता हूँ।
पर मानव की हर बात बताता हूँ,
मैं टूटते अति घातक हो जाता हूँ।
जमीन से असमान तक फैला हूँ,
हवा से पानी तक खबर रखता हूँ।
घर बाहर क्या हर जगह नाहर हूँ,
आकना मत कम मैं जग ताहर हूँ।
अलंकार हूँ मैं तो रस राज भी हूँ,
वियोग मेंक्षोभ संयोग में श्रृंगार हूँ।
आईना दिखाते हो गया दर्पण हूँ,
समाज ही नहीं समग्र को अर्पण हूँ।
दाये बाये उपर नीचे का विचार हूँ,
हो गया हर वाहन साइड मिरर हूँ।
हाथ जोड़ जन जन हेतु मैं प्रार्थी हूँ,
रखना मान सबका बन परमार्थी हूँ।
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