समन्दर
मिले कब छाया काया से
हर बिन्दु कब करता समागम सागर से।
राम श्याम कब आये काम
दुनिया है कैसे कैसे का इकअद्भुत धाम।
यहाँ सब है सब हैं निज रूप
नजर अपनी अपनी पर कोई नहीं कुरूप।
आश डोर थामे चले धाम
दुनिया है समन्दर जहाँ मिले मोती निधान।
आशा ही अमर धन जहाँ
समन्दर अकूत बहू सम्पदा का दाता यहाँ।
पर विनय को दासता मान
जलधि ने भी नहीं किया राम का सम्मान।
वीर भोग्या वसुन्धरा भी यहाँ
वीर रूप से काप गया क्षनमें समन्दर वहाँ।
मान मनौत मानी माने
धूर्त कपटी धोखेबाज झूठा तो झूठा जाने।
हर काल का बताते हाल
समन्दर रूप राशि डूब मरने सब बेहाल।
याचना से कभी नहीं बना काम
युद्ध सागर में डुबोया कुल कर अभिमान।
समन्दर में मोती ढूढ़ते सभी
मोती महल वासी भी न पाय सुख सभी।
जल बिच मिन पियासा रे
जग समन्दर से पिपासु तृप्त हो जाता रे।
कर्मधर्मश्रधाश्रम साथी
कर मजबूत विश्वास चड़े समन्दर हाथी।
हो जाय पार जग सागर
निर्भय निर्विकार को न डराये समन्दर।
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