मंगलवार, 24 फ़रवरी 2015

कान

मंगल सकल होहि नित सबही।
कानन सुनही हरि गुन जबही।।
छोडि छाडी माहुर बतकही।
सुनहु श्रवन नित सद बत सही।।
लगि लगन कुतरक जोइ भाई।
भाग विभव सब देइ गवाई।।
कनक फूल जब कानन सोहा।
हरष सहित सब नर मन मोहा।।
अहि भवन कहत जन उस काना।
जो न लहहि सुख हरि गुन गाना।।
कानहि मिलै सकल सुख मूला।
अख नक जिभ त्वचा सम तूला।।
बापू कपि  दिखाव तिन बाता।
जगत पिता निज सूत न सताता।।
नाक कान बिनु नर न सु हाही।
भगिनी आख कस चश्मा पाही।।
श्रुति सेवत जो जन मन माना।
पाव नाक सुख इह जग जाना।।
होउ न कच्चा कान के भाई।
लेहहु असन बसन निज साईं।।

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