क्यों स्वहित साधन को ही है सब बाध्य
जो हैं अपने आस-पास सदा दिन-रात,
क्यों समझ न आये उनके दिल की बात।
वदन पर उजले चोले रख मन मटमैले,
क्यों रचते उलझन के ताने हौले-हौले।।1।।
कहने को हम परम विरागी परम त्यागी,
क्यों तन-मन अहनिसि तृष्णा-आग लागी।
नारी रक्षा देश सुरक्षा अच्छी व्यवस्था,
क्यों बगुला भगत सी ही है ये आस्था।।2।।
कुटिल क्रन्दन कर कर जोड़े-जोड़ें,
क्यों कुटिल मुस्कान-सूल सूल तोड़े।
रचना स्वहित की सब पर होती अमूर्त,
क्यों छल-छद्म, द्वेष-पाषंड में हैं विमूर्त।।3।।
चलते सम्हल सम्हल फस न जाय चोली,
क्यों सूरत इतनी भोली प्यारी सी है बोली।
शिव स्वरूप धर आशुतोष के पहन चोले,
क्यों शिवभक्त-भक्त साआस-पास डोले।।4।।
समीपता दीनता दिखाकर दिनों-दिन,
क्यों मछुवारे सा रत हैं मारने को जन-मीन।
दुराराध्य को बना नित परम असाध्य,
क्यों स्वहित साधन में ही हैं सब बाध्य।।5।।
1 टिप्पणियाँ:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (07-12-2016) को "दुनियादारी जाम हो गई" (चर्चा अंक-2549) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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