हे कृष्ण कृष्णता का कर नाश।।
शुरू कहाँ कहाँ खतम,
नब्ज है विचार का हरदम।
बा गर्भ नव जीवन सर्जन,
भूतनाथ तन राख थल मर्जन।।
आरम्भ अन्त अन्तहीन,
हो जा मन तू आत्मलीन।
मीन मलिन मन माखे,
शुभ शुभांकर शत शाखे।।
स्व-पर पर की बात,
हैं अगनित अद्भुत रात।
सच मन मन्दिर तन उपवन हो,
राम धाम बनअंग अंग सुमन हो।।
दुःख दावानल सुख सागर सोच,
हर थल डूबे मन मन्द मोह मोच।
प्रारम्भ बिन्दु अनवरत चलकर,
सिंधु मा विगलित घुल मिलकर।।
ताप त्रय चहु दिशि चहु काल,
हर सब करे हर जन को बेहाल।
हे कृष्ण कृष्णता का कर नाश,
भरें आद्यन्त जन जन नव आश।।
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