सोमवार, 28 दिसंबर 2015

ठोकर

जग रंगमंच पर उलझ खा जाता जन ठोकर।
जीवन ज्योति जले श्रम तेल लिप्त ही होकर।।
कर कल्याण करुणा कलित हृदय तू पाकर।
निज-पर से भी ज्ञान भरो वसुधा अपनाकर।1।
ठोकर गुरु से ले भान मान मन में महा मान।
ऐसे नहीं जिनसे दर्द छिपा दिल जला जान।।
संगम इनसे जीवन भर कदम तले ही हान।
अपना ही ठोकर देता है नित नव-नव ज्ञान।2।
कब कहाँ कैसे क्रोध-काम बस खाते ठोकर।
प्रेम-धर्म पथिक पाते पावन पान-मान सोकर।।
परम प्रीत मित हैं यह बड़े इन्हें गले लगाकर।
अद्भुत दे मानव को ये जग में खूब झेलाकर।3।
अप्रत्याशित होकर प्रत्याशित फल-फूल भरे।
अब-तब सब रूपों में इनकी नेह सम्मान झरे।।
हर ठोकर इक शिक्षा दे सद का ही मान करे।
आगे बढ़े बढ़ाये निज जीवन में सम्मान करे।4।

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