स्वानुभूति(एक आत्मकथा)गतांक से आगे।।6।।an autobiography self experience part 6
विश्व में यत्र-तत्र अनाम अनगिनत अकूत अप्रत्याशित-प्रत्याशित,अलौकिक-लौकिक आचार-विचार प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष भरे पड़े है पर हमें दिखायी नहीं देते हैं,पर दिखायी दे भी जाते हैं।मैं ऐसे ही ऐसी बात की चर्चा कर रहा हूँ।पर इसमें भी सुधि समाज शोध कर ही लेगा।घर-परिवार से दूर अचानक एकाएक होने पर homesick का मरीज अक्सर बच्चे हो ही जाते हैं, जिसका प्रभाव हम पर भी पड़ना स्वाभाविक ही रहा।श्री नरेंद्र दुबे दिल दिमाग से दुरुस्त पर इसके मरीज।कारण मुझे 26 जनवरी 1987 को मालूम हुआ। इस दिन स्व अनुभूति का प्रत्यक्षीकरण समझदार होने की स्थिति में पहली बार हुआ।पूर्व की बातें तो इक खिलवाड़ की तरह खेलते हुवे मैं चल रहा था।पर आज का अनुभव अपने से हटकर दूसरे को निकट से अनुभव करने का दिन रहा।तब तक मैं अपनी दुनिया से बाहर नहीं निकला था।आज दूसरो की अति स्नेहमयी-ममतामयी दुनिया को निकट से देखने समझने परखने और अनुभव करने का शानदार अवसर मिला था।मानव मन अज्ञान या अनुभव की कमी से अपने आगे किसी को मानता ही नहीं।आज मेरी यह अज्ञानता कि मैं मेरा सबसे अच्छा है दूर हुआ।मुझे इसे दूर कराने वाला अनुभव मिला।वैसे हमारे साहित्य में सब कुछ पहले से ही लिखा गया है और हमारे अग्रज जीवट के परम धनी मेरे प्रेरणास्रोत भैया श्री कृष्ण शंकर तिवारी तो हमेशा कहते रहते और अब मैं भी कहता हूँ कि स्व अनुभव से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं।अब आप से यह अनुभव बाटना ही है।जनवरी 26 को हमारा गणतंत्र दिवस है।विश्व विद्यालय में नाम मात्र के ही कार्यक्रम हुवे।इधर-उधर घूमने के बाद दोपहरी कर शाम को श्री दुबे के साथ मैं घूम रहा था।वह बार-बार अपने परिवार के बारे में बात करता दूसरी बात करता ही नहीं।मैंने कहा चलो फिर आज तुम्हारे गाँव ही चलते हैं फिर क्या उसने न आव देखा न ताव झट तैयार।समय भागता जा रहा था लगभग 5 बज गया होगा,मुझे तो उसके गाँव के रास्ते आदि के बारे में कोई जानकारी नहीं रही उसने ही इधर-उधर हिसाब लगाया कि यह रास्ता लम्बा है और यह रास्ता छोटा।छोटे रास्ते से यात्रा आरम्भ करने का निर्णय।बस्ती के लिए बस मिल गयी।हम सवार हो हए।गोरखपुर से बस्ती लगभग 75किमी है।हम जब बस्ती पहुँचे।दुबेजी की वांछित बस जा चुकी थी।अब 8 बजे बस थी।उसी का सहारा।सवार हुवे।बस 10 बजे के आस-पास कलवारी पहुँची।कलवारी से अब कोई साधन नहीं।ग्यारह नम्बर ही सहारा।उस रात गणेश चतुर्थी रही।अतः तब तक चाँदनी आसमान में अपनी छठा बिखेरना प्रारम्भ कर चुकी।कलवारी से सरयू तट टांडा तक की दूरी पक्की तो मुझे ध्यान नहीं पर दस किमी के आस-पास तो होगी ही पैदल तय करने के सिवाय और कोई विकल्प नहीं।दोनों नवयुवक जोश भरपूर यात्रा करनी ही थी।सरयू तट आते-आते आधी रात हो गयी।उस पार के लिए नाव आवश्यक।थोड़े समय पहले ही खेप उतारकर नाविक सोने जा रहा था जैसा की उसने हमें बताया।एक बार तो उसने मना ही कर दिया।पर दुबे ने जब अपने मामा का हवाला दिया तो नाविक ने हमे पार उतार दिया।किसी के नाम का प्रभाव का प्रत्यक्ष अनुभव।जो व्यक्ति साफ मना कर दिया था। झट तैयार हो फट पार उतरा।नाम का प्रताप।मैं जब बाबा तुलसी को कभी-कभी पढ़ता हूँ तो सहज ही असहज सोच में पड़ जाता हूँ कि इस महामुनि ने इन सब बातों को इतनी सरलता से कैसे कह दिया जो सर्व काल सत्य हैं।राम ते अधिक राम के नामा।हम पार हुवे।पर दुबे का गाँव अभी भी दूर को कौड़ी ही रहा।सरयू तट से टांडा शहर की दूरी भी ग्यारह नम्बर से ही तय करनी थी की गयी।टांडा से दुबे का गाँव ओबरा जो सूरापुर ममरेजपुर,अकबरपुर रोड पर पड़ने वाले चौराहे पर उतर कर पैदल चलने के बाद आने वाला था की दूरी अभी तो बाकी ही थी।खैर टांडा पहुँचते ही कपड़ो से भरा एक जीप अकबरपुर की ओर जाने के लिए निकल ही रही थी कि हम दौड़ कर लटक लिए।लटक लिए क्या पकड़ लिए और जीप ड्राइवर और व्यापारी के लाख मना करने पर भी लटके ही रहे तथा दुबे ने बता दिया कि हम क्यों लटके हैं कब तक और कहाँ तक लटकेगे।उन्हें भी जल्दी थी और वो भी दो ही थे व्यापारी बुढ्ढा था मजबूरी या सहानुभूति जो भी हो हमें उस जीप ने सुरापुर ममरेजपुर चौराहे पर छोड़ दिया।अब दुबे के जी में जी आया और उसने चैन की सास लिया।यहाँ से ओबरा दो पग पर ही है।पहुँच गये दो बजे रात को ही घर।
कूप मंडूक मैं अपने आप को और अपने माँ-बाप तथा परिवार को जो मान्यता दे रखा था वो आज हल्की न कहे तो भी हल्की और अधिकतम समानांतर दिखी।उस समय उस परिवार में हमारे माता-पिता या यो कहे पति-पत्नी ही मौजूद रहे।उनके अंदर वात्सल्य उछाले मार रहा था।पुत्र प्रेम पराकाष्ठा पर।चूँकि उस रात गणेश चतुर्थी का माताजी का व्रत था अतः पिताजी भी व्रत पर ही थे।भोजन पका ही नहीं था अतः थोडा बहुत बचने नहीं बचने का सवाल ही नहीं।हमने भी भोजन बावत मना कर दिया।लेकिन पिताजी ने तुरन्त उस समय के अनुरुप आवश्यकताओ की व्यवस्था किया कि माताजी ने चौथ का प्रसाद प्रस्तुत कर दिया। प्रसाद की व्याख्या बहुतो ने अपने-अपने ढंग से किया ही है जिसमे प्र से प्रभु सा से साक्षातऔर द से दर्शन की बात काफी कही और सुनी जाती है।अर्थात् प्रभु का साक्षात दर्शन ही प्रसाद होता ही है। वैसे माता-पिता ही प्रभु रुप हैGod can't reach everywhere so he creats parents.ईश्वर, माता-पिता को मान लेना आज के युग परिवेश में सहज सरल नहीं है।यह व्यक्तिशः मामला है क्योकिआज-कल तोभगवान पर भी सवाल उठाने वालो की जमात खड़ी हो गयी है।प्रसाद में गंजी जिसे शकरकंद भी कहते हैं, मिट्ठा अर्थात् गुड़ और तिल केलड्डू।प्रसाद पाया गया ही था कि तब तक गर्मागर्म भोजन भी सामने हाजिर।मैंने पिताजी से कहा कि आप ने इतना कष्ट क्यों किया तो जबाब तो सुने जरा अरे तिवारी अभी रात को पुलिस वाले आ जाय उनको खाना हर हाल में बना कर खिलाना ही पड़ेगा यहाँ तो मेरे बेटे आये हैं।पुलिस का भय बस स्वागत जब हम कर सकते हैं तो प्रेमाश्रय का प्रेम से क्यों नहीं।उस समय पिताजी की जुबान से पुलिस का आतंक सुन मैं बहुत दुःखी हुआ।मेरे मन में पुलिस,पुतरिया,पातकी के बारे
में पिताजी के अनुसार इनके निकृष्ट होने की धारणा बलवती हो गयी।पर समाज का बहुसंख्यक इनके बारे में क्या विचार,धारणा या भाव रखता हैं वही हम सबको मानना चाहिएऔर इनको भी समाज का सम्मान करते हुवे अपना व्यवहार ऐसा बनाना चाहिए कि समाज कही भी किसी रुप में इन पर अंगुली नहीं उठा सके वैसे समाज की अपनी सोच अपना पैमाना है अलग अलग वर्ग पर विचार व्यक्त करने का।मानव समाज का जातियों के साथ ही साथ धर्मो, सम्प्रदायों और इन सबसे ऊपर वर्गों के रुप में जो अप्रतिम वर्गीकरण हुआ है उसके बारे में कुछ भी कही भी स्पष्ट नहीं मिलता।हर जगह अपनी अपनी ढफली अपना अपना राग ही दिखायी देता है।इन इन्सानों ने फिर नौकरी चाकरी वालों का वर्ग बनाया और अलग अलग वर्ग के बारे में अलग अलग विचार और धारणाओं को ऐसे थोप दिया जैसे ये सब ध्रुव सत्य हैं जबकि कोई भी धारणा या विचार कम से कम मानव के प्रति हमेशा के लिए कभी भी शत प्रतिशत सत नहीं हो सकता।खैर पिताजी का विचार अपनी जगह सत्य भी हो सकता है मैं उनके कथ्य को कहा जो सत्य असत्य कुछ भी हो सकता है साधु जन समाज की सुधी लेते हुवे इसमें सुधार करा ले तो अत्युत्तम।सारा आचार व्यवहार खुला अपनेपन से ओतप्रोत।झूठ-सत्य का विचित्र तर्क।दुबे ने मुझे रास्ते में कह दिया था कि हमारी स्थिति को पिताजी देखते ही पहचान जायेगे।हुआ ठीक वैसे ही।आप लोग कलवारी से सरयू तट तक पैदल चल के आ रहे है प्रश्न तिवारी से पर जबाब दुबे दे रहे है अरे नहीं बस पंचर हो गयी थी उसके बनने में बहुत समय लग गया।आगे बिना प्रश्न के सोने की व्यवस्था हुई और हम सो गये।
हमारा यह प्रवास दो दिन का रहा।इस दौरान भोजपुरी से अवधी का मिलान हुआ।मैं जब यदा-कदा जाने-अनजाने माताजी के सामने भोजपुरी बोल देता तो उन्हें समस्या हो जाती।उनकी अवधी जो ठेठ होती हमारे लिए समस्या हो जाती।हिन्दी सर्व ग्राह्य रही।भाषा का महत्त्व अतुलनीय है।वहाँ के आवास में भी हल्का-फुल्का अन्तर दिखा।सरयू से नजदीक होने के कारण पानी पवित्र खेत उपजाऊ।बाग-बगीचे हरे-भरे।चारों ओर हरियाली चादर।पर दुबेजी के गाँव में अंध-बिश्वास जो देखने को मिला वह चिन्तनीय।बीमार बच्चे के लिए सोखा-ओझा, ताबीज,भोपा का कारनामा देखने-सुनने को मिला।माननीय प्रधान मन्त्री श्रीमान नरेन्द्र मोदी के स्वच्छता का वहाँ उस समय मुझे कोई स्थान नहीं दिखा।खैर मैं वहाँ के आज से उनतीस साल पहले की स्थिति बया कर रहा हूँ।आज 4जनवरी2015 को मैंने दुबे से मोबाईल पर बात किया तो ज्ञात हुआ कि आज-कल उस सरयू तट पर पुल बन गया है और बसें आ-जा रही हैं तथा यात्रा सुगम हो गयी है।time is great helder।समय सब दुःखों की चिकित्सा है।अतः मैं उम्मीद करता हूँ की वहाँ सफाई भी अब सुधार पर होगी।खान-पान भारतीय तौर-तरीके से जमीन पर बैठ कर।भोजन सामग्री द्वारा भोजपुरी-अवधी में कोई दर्शनीय अन्तर नहीं दिखा।पर चावल का स्वाद बहुत मीठा।चावल प्रिय भोजन।बचपन से आज तक यह मेरा प्रिय बना हुआ है।साग-सब्जी की प्रचुरता।दुसरे दिन मैंने वापस विश्व विद्यालय लौटने की बात दुबेजी के पिताजी के सामने कही तो पिताजी ने कहा अरे क्या बिष विद्यालय की बात तिवारीजी आप भी कहते है।मैंने कहा पिताजी बिष नहीं,विश्व।पिताजी का मजाकिया और खुशमिजाज स्वभाव मुझे देखने को मिला।उन्होंने जोर देकर समझाया अरे नहीं वह बिष विद्यालय ही है।मैंने कहा कैसे तो बताये कि इतनी बड़ी संस्थाओं का परिवेश-वातावरण बाहर से आने वाले नवयुवकों के लिए एकदम नया और हर अच्छाई-बुराई के लिए खुला होता है,जहाँ बुराई बिष के समान है जो सुरसा मुँह बनाये खड़ी रहती है अत्यधिक नवागन्तुक इस बिष के प्रभाव से ग्रस्त हो जाते हैं।मेरा ऐसा आप दोनों के समक्ष कहने का एक मात्र आशय यही है कि आप लोग इसके दुष्प्रभाव से बच कर रहे।पिताजी की इस बात का प्रभाव हमारे जीवन पर जीवन पर्यन्त बना रहे और मैं क्या दूसरे भी समाज में यत्र-तत्र संस्था आदि स्थानों में फैली इस बिष-बुराई से बच कर रहे।इस यात्रा ने दुबेजी से पारिवारिक तादात्म्य ला दिया जो आज तक कायम है।वास्तव में मुझे यह बात शत प्रतिशत सत्य प्रतीत होती है कि you have only one or two friends who are nearest, dearest and closest.इस तरह हमारी इस यात्रा ने एक नया अनुभव एवं अजीज दोस्त दिया।हम वापस गोरखपुर आ कर अपने-अपने पठन-पाठन में लग गए।
क्रमशः
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें
सदस्यता लें टिप्पणियाँ भेजें [Atom]
<< मुख्यपृष्ठ