जग जग जाग जाग जन जाना।
पग पग पाहन पीयूष पान पाते।
नित नेम नियम नम हो निभाते।।
जग जगत सुत मान नवल पाते।
बिसतंतु बन मानस हंस लुभाते।।
पग पग जरत रहत करम साना।
जग जग जाग जाग जन जाना।।1।।
आस पे विश्वास नास हो जाता।
विश्वास डोर तोड़ सुख को पाता।।
सच सच ही है जो जग में भाता ।
तोड़ दे जग सदा असत से नाता।।
पाहन पय बना कर्मरती सुहाना।
जग जग जाग जाग जन जाना।।2।।
देख दुःख दूसरे बिसरो न भाई।
आती काम काम की कर कमाई।।
अमल धवल हिम ने गाथा गाई।
पर हित रत पाते नित ही मिताई।।
पीयूष बन दे दुखियो को प्राना।
जग जग जाग जाग जन जाना।।3।।
शोषक-तोषक वृत्ति बन आचरन।
पूजती पूजाती नित नव विधानन।।
कल्पनातीत दुःख सुख देवे धन।
मान मनीषी ले लेते ये माने मन ।।
पान पाते हर थल ले दिल स्थाना।
जग जग जाग जाग जन जाना।।4।।
1 टिप्पणियाँ:
सार्थक प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (12-01-2015) को "कुछ पल अपने" (चर्चा-1856) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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