चौराहा
मैं निश्चिन्तता की खोज में----
कलुषित शोषित प्रताङित था विजय पथ पे,
मैं पहुचां एक चौराहे पे,
जहां मानवता दानवता का अद्भुत संगम था!
वह था कचहरी चौराहे पे
रोजी रोटी मात्र के लिए बहुत थे अस्थि मात्र,
पर वही थे ये छिननेवाले सुसंस्कृत ठेकेदार,
मैं यह सोचते चलता रहा---
चौराहा या चोर राहा
चू रहा है या चो रहा है
यह कचहरी है कच हरी है!
पर मैं तो यह समझा नहीं -क्या-कि
यह चौराहा ही था-
जो ईक्कीशवीं शदी का था,
गांधी-लोहिया का तो व्यक्तित्व था,
उनका विचार उन्हीं तक था.
लेकिन उनके शिष्य और उनकी शिष्य परम्परा ने,
उनको और उनके विचारों को
माया के दौर ने उनकी अस्मिता को चुनौती दे,
चौराहे पर ला दिया!
और स्वयं को विराट व महामाया का अंग बना लिया!
ऐसा है आज कागिरगिटो सा,समाज के पहरदारो की काया,
जो हर गली हर शहर के, चौराहो को ही है अब भाया!!
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें
सदस्यता लें टिप्पणियाँ भेजें [Atom]
<< मुख्यपृष्ठ