रविवार, 23 दिसंबर 2012

यह कैसा है लोकतन्त्र

यह कैसा है लोकतन्त्र,जिसमे हम है परतन्त्र,
सत्तासीन सफेदपोश, खो देते जब अपना होश!
खोखले वादे दावो से,वोट ले लेते शहर गाँवो से। 
विकास की गंगा की जगह होता विनाश का नृत्य नंगा।
अनाचार-अत्याचार खेल रहा खेल है द्वार-द्वार!
केन्द्र हो या रज्य अंधी गूंगी बहरी हो गयी है सरकार!
होता कभी भजन था सङको पर सार्वजनिक स्थानों पर!
हो गया है सीमित अब यह केवल सुजन मन मानस पर!!
नृत्यादि शोभित थे नृत्यशाला नाट्यशाला व कोठो पर!
नग्न-नृत्य हो रहा अब गली-गली सङ्को व जनस्थानों पर।। 
चिन्ता सुरक्षा की कर रही जहां सबको त्रस्त!
जहां सारी एजेसियां हो रही है पस्त!!
वादो तक सीमित हो जाय जहां जनतन्त्र!
तब सोचना जन-जन को होगा,यह कैसा है लोकतन्त्र !! 

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