सोमवार, 24 सितंबर 2018

√मधुरा-मन्दोदरी(एक खण्ड काव्य)madhura- mandodari khand kavy

                         ।।प्राक्कथन।।
आज अनन्त चतुर्दशी 23 सितम्बर 2018 को प्रभु प्रेरणा से मन्दोदरी पर कुछ लिखने का विचार मन में आया। सुधी जन समक्ष टूटे-फुटे शब्द प्रस्तुत हैं।कृपया अकिंचन का मार्गदर्शक बने।
                           सादर
                आप का सतत आभारी
                  गिरिजा शंकर तिवारी

             ।।प्रथम सोपान =वन्दना।।

शब्द-अर्थ सीय-राम।
      सतत करें सब पूरन काम।।
पंच कन्या का प्रातःवन्दन।
     नाश करे जग पातक क्रन्दन।। 1।।
अहल्या द्रौपदी तारा।
      कुन्ती मन्दोदरी दारा।।
गौतम पांडव वालि प्यारी।
      पाण्डु प्रिया हेमा तनया मय कुमारी।।2।।
पावन पावनी पग पग पर।
       पतिव्रता जगहित रता हर डग पर।
त्रेता अहल्या तारा मन्दोदरी।
       द्वापर में कुन्ती द्रौपदी हैं परी।। 3।।
राम-सीता जग माता-पिता।
       अहल्या तारा मन्दोदरी मुक्तिदाता।।
मुरलीधर कंस तारक।
           कुन्ती द्रोपदीे उद्धारक।। 4।।
मुक्ति दाता मुक्ति पाता का वन्दन।
        करें नित जगत तनय मेवाती नन्दन।।
हे मातु-पिता भ्राता हितकारी।
       आस-विश्वास पूरो हे भव भय हारी।।5।।
पति ही विपत्ति बना जिसका।
        मैथिली ही हैं पुत्री-माँ  जिनका।
पग पग सहा अपमान जीवन में।
        सहा हो कोई नारी है इस जग में।। 6।।
माँ शारदा गिरिजा आस।
          शंकर हित शिव करें मन वास।
मयतनया की विचित्र कथा।
            निर्विघ्न पूरें न आये कहीं व्यथा।। 7।।
है यही मयतनया मन्दोदरी ललामा।
     जो कालान्तर दशानन की रही वामा।।
नारी गरिमा की अद्भुत कसौटी।
      पति प्रति प्रति पद पागल पटौटी।। 8।।
सदा शिव अवढर दानी कैलासी।
      सती पति गणपति पिता माथे गंगा दासी।
कुन्द इन्द सम देह धरि सहज सरुपा।
        सहज समाधि एकान्त में बैठे जब अवधूता।।9।।
श्वान सा देवेश डर महादेव से कंपिता।
        पद-प्रतिष्ठा प्रेमी अमानवी मानवी गुण दर्पिता।।
कुर्सी कंचन कामिनी कामी कुकर्मी।
       महादेव तप क्षीण करने को सोच वेशर्मी।। 10।।
अप्सरा मधुरा को भंग तपस्या करने।
       भेज दिया देवेश उसे मन्मथ सा मरने।।
चल पड़ी वह रुपगर्विता खुद खाई में पड़ने।
      नाथों के नाथ काशीश विश्वनाथ को तलने।।11।।
कामेश्वर अखिलेश्वर धर्मेश्वर तप लीन।
       रुपेश्वर रुप खो मधुरा का हुवा मन मलीन।।
अप्सरा सर्वांग शिव संग चाहतीे होना विलीन।
       शिवा आ धमकी तत्क्षण देखा सब सीन।। 12।।
कहाँ सहन यह सब माता को अब।
      रुपगर्विता पर शाप वारिश हुवा है तब।।
नशा चूर-चूर हो गया माँ छाया सब।
      मर-मरी मधुरा माया मन मोहित जब।। 13।।
कर जोड़ खड़ी अब लीन पार्वती वन्दन।
     लूट गया जिसका सब वैसे कर रही क्रन्दन।।
टूटी समाधि शिव की जागे जग वन्दन।
    विखेर दिया अपनी आभा का अद्भुत चन्दन।।14।।
दया मूल ममता स्वरुप आशा-विश्वास।
     शिव-शिवा सत्य-सुन्दर के सतत निवास।
पर दुःख कातर आरत का कर नाश।
    शाप को वरदान में बदलने का एक प्रयास।। 15।।
बारह बरस मेंढकी का शिवा शाप।
    मधुरा के लिए हो ही गया था महा ताप।।
सोचती मुक्ति मार्ग कैसे मिटे पाप।
       आशुतोष ने हर ही लिया अब सब शाप।। 16।।
बता दिया सारा मुक्ति मार्ग आज।
       धीरज धर धरनि-सुता पूरेगीं सब काज।।
दिव्य स्वरुप धर पावोगी पंचकन्या ताज।
      चिर यौवना अक्षत कौमार्य होगा तेरा साज।। 17।।
है संगम सुख-दुःख का संसार यह।
     नहीं ठहरता दिन तो रात ही कब।।
सदा एक रस नहीं कुछ हर कोई कह।
     पलटेगी ही भाग्य यह निश्चित ही है तब।। 18।।
यह नहीं रहेगा वह नहीं रहा हर क्षन।
    आशा का दामन ही है जीवन आनन्द घन।।
रवि रश्मि पर वारे भले मेघ तन-मन।
      ढक नहीं सकता सदा सर्वदा नहीं है दम।। 19।।
होगी जय होगी जय सच की सदा।
      भक्ति में है शक्ति जो नाशै सब विपदा।
ईष्ट देव का धर ध्यान न हो जुदा।
       हर लेगें हर हर आपकी विचित्र विपदा।। 20।।
तप श्रेष्ठ है हर जीवन में।
      श्रम की जय होती है जग में।।
तपी-श्रमी विजयी हर थल में।
       विजय पताका लहरे नव नभ में।। 21।।         

  हर लीन न हो मलीन हो तप रत।
      निज कर्म पथ पर बढो़  अनवरत ।।
शक्ति हो शक्ति ही रहो सतत।
       सन्मार्ग ही तेरा ध्येय न होना विरत।। 22।।

                     

       ।।द्वितीय सोपान =माता-पिता।।

इन्द्र सभा की आभा हेमा सही।
      अद्वितीय सुन्दरी अप्रतिम अप्सरा रही।।
थोड़ी सी हुई क्या भाव भंगिमा भंग।
         छिड़ गयी इन्द्र लोक में भारी जंग।। 23।।
इन्द्र  पुरन्दर  वासव सुरपति।
       देवराज महेन्द्र सुराधिप शचीपति।।
सुरेंद्र सुरेश सहस्रांक्ष मरुत्पति।
        देवेन्द्र  शक्र मेघवाहन नाकपति ।। 24।।
नकचढे़ ने बना लिया सवाल नाक का।
        सब सान छिन गया अप्सरा हेमा का।।
नारी की भारी गारी सुन पिघला मन उसका।
      वरदान दिया उसे पुनः बनाने नाक का।। 25।।
हेमा को दे चिर यौवन का वरदान।
      बनाया देवेश ने असुर कन्या महान।।
श्राप मुक्ति तभी जब मिले संतान।
     ढूढ़ती इस हेतु हेमा कोई असुर महान।। 26।।
कश्यप-दिति की युति संतान।
     दानव विश्वकर्मा  मय महान।।
रंभापति  पथ मिले सुजान।
       हेमा ने बनाया जिन्हें जीवन जहान।। 27।।
सब शक्ति सम्पन्न राजा तलातल।
     अद्भुत अलौकिक गति रथ चलाचल।।
इच्छावत भ्रमण करते अतल-वितल।
      भय नहीं हो चाहे सुतल रसातल।। 28।।
देव विश्वकर्मा से भी थे आगे मय।
     असुर कुल कारण तो मय में था मय।।
हेमा हेतु किया राज धरा के इक छोर।
      जहाँ बनाया प्रिय प्रिया हेतु नगर मण्डोर।। 29।।
भारत के सुन्दरतम नगर ठौर।
        सिंघल द्विप को बना दिया सिरमौर।।
मेरठ की कल्पना जहँ विल्लेश्वर थान।
      जोधपुर का मंडोर प्रिया हेमा का स्थान।। 30।।
मध्ये मंदसोर होता रहता विहार।
       संतान हित मिलता हेमा का अद्भुत प्यार।।
शाप मुक्ति हेतु हनीमून ठौर-ठौर।
        हार गयी नहीं चला नियति पर कोई जोर।। 31।।
नियति-नटी नित नव-नव नाच नचाती
       रास रसाती बात बनाती पग पग सिखलाती।।
जाने अनजाने मारग दिखलाती।।
  अंधकार बीच दीप जू जीवन-ज्योति जलाती ।। 32।।
आज फिर नियति ने खेला खेल है।
     हेमा संग माया की माया का मेल है।।
इन्द्रलोक की आभा तलातल की जेल है।
    नियति जेल से निकलने की खेल रही खेल है।।33।।
नियति ने ही तो सबको नचाया नाच है।
    ये तो बडे़ बडो़ से झूठ को कहलावे साँच है।।
इस पर न चले देव दानव मानव वश है।
   पूरी सृष्टि पर तो हर क्षण इसी का वश है।। 34।।
पर भाग्य नहीं हरदम सोता है।
    न ही यह सदा आच्छादित होता है।।
घोर तम तोड़ने सौदामिनी हो जाता है।
    हर नर निज भाग्य का निश्चित ही पाता है।।35।।
मधुरा शापमुक्त शापयुक्त थी जहाँ।
      नव यौवन सम्पन्न तपरत थी वहाँ।।
खोजते शिवधाम युगल पहुँचे तहाँ।
    रुप मोहित न हो मानव इस जहाँ कहाँ।।36।।
तप रत विरत तप होने को आतुर।
    मुठ्ठी से रेत सा समय निकलने को आतुर।।
हेमा-माया संतान सुख पाने को आतुर।
    शिवा शाप शिव वर पूरन होने को आतुर।। 37।।
है वही ठाँव जहँ मधुरा तपलीन।
    आ धमके दम्पत्ति शिव खोज में तल्लीन।।
करुण आवाज शून्य में होती विलीन।
       कान में पड़ते ही दोनों थे शोकलीन ।।38।।
ईश्वर जब देता छप्पर फाड़कर देता।
       लेता तो क्षण भर भी रोने नहीं देता।।
जिसे हम चाहते वह सब देता।
     बदले में वह जो चाहता वही लेता।। 39।।
विधि विडम्बना या नियति खेल।
      इसे कहे क्या इह जग का झमेल।।
या फिर क्रूर गति चक्र खेल।
       या है यही प्रकृति का शाश्वत खेल।। 40।।
दुर्भाग्य-कीच भाग्य-कमल खिले।
       हर हार से हरदम नव राह मिले।।
श्रम सिकता मध्य जब संघर्ष चले।
     निश्चित ही है मोती मन चाह मिले।। 41।।
मिल गये आज मधुरा को पालक।
      हेमा-माया को मिली संतान लायक।।
खेले हरदम खेल जहाँ का चालक।
      हम खेले वो खेल जो चाहे संचालक।। 42।।
हो गयी गोद हरी-भरी आज।
     संतान हुई मधुरा हुआ हेमा का काज।
मन्दोदरी बनी मधुरा शिर छाज।
     देवपति को भी तो करना है काज।। 43।।
इस धरा पर यों ही नहीं सब हुवा करता।
       आगामी कथा पुरातन सम्बन्ध लिखा करता।।
हेतु ही है हमारा हर हिसाब हमालता।
     भागना नहीं है हल हिम्मत हमें सम्भालता।। 44।।

    ।।त्रितीय सोपान=परीक्षा-परिणाम।।

जीवन जीना है कदम कदम पर लड़ना।
      लक्ष्य पाना है तो है पल पल आगे बढ़ना।।
विघ्न बाधाओं की जंजीर नित तोड़ना।
      बल बुद्धि विद्या से सतत नाता जोड़ना।। 45।।
शाप-वरदान दुःख - सुख का बन्धन।
       पूरी ज़िन्दगी है कभी माटी कभी चन्दन।।
जटिलता से भरा है यह काव्य सर्जन ।
       नित नया जब है यहाँ तर्जन-अर्जन।। 46।।
दनुज विश्वकर्मा की हेमा कब तक।
       संतान सुख न मिले केवल तब तक।।
मन्दोदरी बेटी बनी उनकी जिस क्षण।
       बुला लिया इन्द्र ने उसे स्वर्ग तत्क्षण।। 47।।
मायासुर से ले लिया इन्द्र नेआज बैर।
      देवासुर जंग ठनना है अब नहीं है खैर।।
इन्द्र मान मर्दन की प्रतिज्ञा लिया मय।
      येनकेन प्रकारेण इन्द्र जय किया तय।। 48।। 

सामने द्वादशवर्षीया पालिता का भय।
      जो है निज पालक के लिए ही रहस्यमय।।
अब माता-पिता दोनों बन गये मय।
      सब विधि कन्या रक्षिता किया है तय।। 49।।
पर हर हाल हार नहीं है जो मानता।
       प्रतिकूलता में जो ढूँढ ले अनुकूलता।
यही है सच्चे संयमी की वीरता।
       ऐसे विरों का है संसार में यश गूँजता ।। 50।।
पिता-पुत्री दोनों आज इन्द्र त्रस्त।
       दोनों का एक ध्येय इन्द्र कैसे हो पस्त।।
कर लिया लक्ष्य कर स्वयं को व्यस्त।
       हो गये इस हेतु दोनों अब साधना में रत।। 51।।
पुत्री संरक्षा सुरक्षा सुरासुर मानव कर्म।
       मन्दोदरी पालन मय ने बनाया निज धर्म।।
प्रकृति की लीला बन रही आज मर्म।
        आगे देखें जीवन में बदलते बहु कर्म।। 52।।
प्रिय प्रिया हेमा हेतु जो बनाया था मंडोर ।
      आज वह हुवा मंदोदरी का सुनिश्चित ठौर ।।
जन-जन को करना है हर बात का गौर ।
     संसार में है पता कब कहाँ क्या हो जाय मौर।।53।।
मंडोर देवालय सन्यासी मन्डुक का वास।
    कर्म धर्म मर्म रत ऋषि आये मय को रास ।।
पालिता पालन का सब दायित्व मन्डुक पास ।
            मय भी हुवे हैं तप रत ले नव-नव आस।।54।।
अब मंदोदरी का है हो रहा सर्वांग विकास।
    शिक्षा दीक्षा क्रीड़ा बृड़ा हो मन्डुक निवास।।
बिन माँ फलती-फूलती ज्यों जल बिनु जवास ।
        कौन कल का काल कब कैसा कयास।।55।।
ऋषि ने सब यंत्र मंत्र तंत्र है दे दिया।
      आज सारी विद्या है मंदोदरी ने लिया ।।
आहूत मंत्र जब है पूर्णतः सिद्ध किया।
     परीक्षण को मन है अब दिखा रहा दिया।।56।।
है इस ब्रह्मांड में वह तेजस्वी कौन ।
    बुलाऊ जिसे सोचती हो मंदोदरी मौन।।
मार रहा मार हिलोरे मन मौन।
   पर परीक्षण पर परखा जाय तेजस्वी कौन।।57।।
महर्षि अगस्त्य भ्राता विश्रवा पुलस्तय कुल उत्पन्न।
    महर्षि भारद्वाज तनया इलविडा पा संग थी धन्य।।
धनपति जिनकी सन्तान करें जगत को धन्य।
    सुमाली ताड़का तनया कैकसी उनकी अनन्य।।58।।
विश्रवा-कैकसी का था दस दिस नाम।
    दिग दिगंत देता दहाड़ दशकंधर ललाम।।
वयं रक्षामह था जिसका अद्भुत काम।
     शंकर भगति लीन जपता था शिव नाम।।59।।
शिवालय मंडोर भगतिन ने लिया ठान।
    शिव भक्त को ही करेगी आहूत जिय जान।।
जपना हुवा आहूत मन्त्र शक्तिमान।
     पहुचे दसशीश वहाँ रखने मन्त्र मान ।।60।।
हो गयी मोहित अब यौवन गर्विता।
      कामवश तब हुवे युगल सहवास रता ।।
प्रथम मिलन में ही युवती गर्भिता।
       बड़ते गर्भ देख हो रही अति चिन्तिता।।61।।
मुनि मन्डुक रक्षिता ने लिया था व्यथा।
      मंत्र परीक्षण ने आज बनाया इक नव कथा।।
लोक-लाज व निज मर्यादा की रक्षा।
    मन्त्र परीक्षण ले रहा अब परीक्षक परीक्षा।।62।।
सच कहते इक झूठ सौ झूठ बुलाता।
    झूठा परीक्षण है फिर परीक्षण करवाता।।
ऐसे ही अवसर कुछ समझ न आता।
    अपनी ही गलती नर नाकों चना चबाता।।63।।
अपनी तो अपनी पर पर की भी पर।
   कभी-कभी सद्मानव का झुक जाता सर।।
जाने-अनजाने जब छा जाता है डर ।
     मानव-पंछी का तो कट जाता है सब पर।।64।।
हुवा विकल जब बेटी का तन-मन।
     माँ हेमा मन घंटी बाजी है टन टन।।
दौड़ी इन्द्र गृह हिलाया इंद्रासन।
    मंडोर दौडे इन्द्र छोड़ निज सिंहासन।।65।।।
देख दशा मंदोदरी विकल हुवे देवेश।
    सोचती नव यौवना ये क्यो आये मम देश।।
बोले देवेश मैं आया हरने तव क्लेश।
     सब हो जायेगा स्वप्न सब भूल जायेगें लंकेश।।66।।
यह कह झट इन्द्र देव ने गर्भ गिराया।
     जिस भ्रूण में थी छिपी माँ महामाया।।
मंदोदरी ने अक्षत कौमार्य वर पाया।
     धरनी ने गिरा गर्भ है स्व गर्भ छिपाया।।67।।
माँ मंदोदरी ने देखा गर्भ च्युत हो आया।
        पछाड़ खा गिरी देवालय बन साया।।
इन्द्र ढाढ़स दिया बताया सारी माया।
    कछु न रहेगा याद किसी को इक शर्त जाया।।68।।
रावण को तो कभी न आये यह याद।
     पर तुम माता हो सुन लो मेरी यह बात।।
जिस क्षण कन्या करेगी तू सन फरियाद।
   तेरा ममत्व जागेगा आ जायेगी सब याद।।69।।

    ।।चतुर्थ सोपान=कुल विकास।।

दे अक्षत कौमार्य वर घटना विस्मरण का।
     चले देवेश निज देश सृजन कर नव कथा का।
भूल गयी सब सपना सा घटना मंडोर का।
      बिल्लेश्वर की आराधना आश शिव नाम का।।70।।
देखा आकाश मार्ग का यौवन नव।
     आ धमका सामने वह करता घोर रव।।
घेर पिता मय को आतुर बनाने शव।
     विकल सुता ने पित हित जगाया नेह नव।।71।।
दुर्वृत्तिमयी ही होती सदैव शक्ति-सत्ता।
    पर न जाने कब खिसक जाय कौन सा पत्ता।।
बदले की आग जला देती है रत्ता रत्ता।
      न रही है न रहेगी सदा किसी की कोई सत्ता।।72।।
है हर्षित रावण आज धरा पर।
       इटलाता निज भाग्य है सत्वर।।
नहीं वश उसका काम क्रोध मत्सर।
      मायावी फँस  गया है मोह में पर।।73।।
दुख में भी सुख आस लिये जीता जन।
     पराभव में भी हार नहीं माने मानव मन ।।
अन्तर्चेतना हर हाल ढूँढ लेती जीवन धन।
     मय ने देख लिया निज स्वप्न पूरन रावण तन ।।74।।
मान लिया था इन्द्र को परम वैरी जब।
     रास्ता मिल ही गया परिशोध लेने का अब।।
सहर्ष स्वीकारा जामाता तन मन तब।
     असुर वृत्ति बदले की आग बुझाती है कब।।75।।
मानव दानव बनता स्वहित साधन के लिये ।
    हर क्षेत्र कदाचार है हो रहा कुछ पाने के लिये।।
बड़ी लकीर मिटा छोटी बड़ा बनाने के लिये।
    हो रहा यह खेल सर्वत्र अपने जीवन के लिये।।76।।
हारे भी जुवारी जीते भी जुवारी।
     देखो तो सही सर्वकाल रहे हैं  जुवारी।।
भूत के जुवारी भविष्य के जुवारी।
    वर्तमान गिरवी रखने को तैयार रहते जुवारी।।77।।
जुवा ही खेल रहे त्रेता-द्वापर में सब।
    इस युग भी दिखने लगा है इसका रक्त अब।।
आप-हम हो गये हैं मूक-दर्शक जब।
    मंदोदरी हो गयी शिकार इसी खेल का तब।।78।।
असि धार हो जाता समय कभी जीवन में ।
    सुख-सागर भी यही होता कभी इस जीवन में ।।
समय सब दुखों की चिकित्सा जन जीवन में ।
   समता न रही न रहेगी कभी किसी जीवन में ।।79।।
धैर्य धर्म की परीक्षा है असाधारण ।
     चाहे अनचाहे इसका हो ही जाता वरण ।।
परीक्षा ही विकल्प नहीं है पलायन।
    धैर्य बल ही होता सद कर्म का चयन ।।80।।
अब कठिन परीक्षा हो रही है धैर्य की।
    अग्नि पथ चलना हो रही मजबूरी धर्म की।।
नारी झेलती हर क्षेत्र विपदा पर कर्म की।
    अद्भुत कथा-काव्य है यह युग के वेशर्म की।।81।।
रख लिया था अनेक सुंदरी हरम में ।
        रमण में लीन नित निज करम में ।।
था मतवाला कुकर्म रखवाला मद में ।
      हो रहे थे सब छोटे सर्वत्र उससे कद में ।।82।।
बहु रानियों मध्य थीं यही महरानी।
        जिसे सब कहते सदा थे पटरानी।।
रुप गुण कर्म धर्म सत्य की कहानी।
    सदगुणों के क्षेत्र में नहीं कोई इसका सानी ।।83।।
रखती देवर सा आचार धार्मिक विचार।
   हो निज कुल का विकास जीवन का आधार ।।
पति हित जप जज्ञ करे बहु प्रकार।
    तप तपस्या सबकी हो रही थी साकार।।84।।
थी वैसे तो वह सदा एक कुमारी ।
     पर निभा रही थी सांसारिकता सारी।।
पति कर्म में सहयोगिनी भारी ।
      शिव आराधना भी था संग संग जारी ।।85।।
शिव की अटूट कृपा थी नित्यमेव।
     हो जाती सब कामना पूरी स्वमेव।।
नहीं थी आस्था अन्यान्य देव।
      सब कुछ थे उनके देवाधीदेव महादेव।।86।।
समय ने दिया सन्तान अनेक।
     मेघनाद अक्षय अतिकय आदि नेक।।
माताश्री ही थीं नहीं माता गुन एक।
     पिताश्री के कुकर्म थे सहयोगी हर टेक।।87।।
मायासुर की लालसा इन्द्र विजय की।
    मेघनाद ने पल झपकते उसकी पूर्ति की।।
जय जय कार थी सर्वत्र इन्द्र्जीत की।
     विजय पथ पर कोई न ठहरे महासुर की।।88।।
कुम्भकर्ण नित रहता निद्रासन ।
    विभीषण पूजारत बैठ कमलासान ।।
सूपनखा सर्वगता विचरे नित कानन ।
      लंका संरक्षित हर तरफ से टनाटन।।89।।
रावण की तो मैं गाता गाथा नहीं ।
     संकेत मात्र न रहे यह व्यथा व्यथा कही।।
नारी नारी पतन की सहयोगिनी रही।
     नारी ही नारी की सर्वकाल सब व्यथा रही।।90।।
रचना रचयिता की होती सब।
     कौन सचित्र कौन विचित्र कब।।
किसे सुनाये किसे दिखाये रब।
     वही कर्ता होती इच्छा उसकी जब।।91।।
यहाँ किसको है अपने से फुर्सत।
    सब चाहते एक दूजे से करना रुकसत।।
बड़ी-बड़ी फेकने को है सभी को फुर्सत।
       सोचते हमें कहाँ है किसी की जरुरत।।92।।
अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ा करता।।
    अकेला तीव्र धारा प्रवाह नहीं रोका करता।।  

 अकेला अकेला है समूह का दम नहीं रखा करता।
        संघे शक्ति तो संघ ही इच्छित लिया करता।।93।।
राक्षस सारे संगठित धरा खोखला कर रहे।
        बिखरे हुवे जन हैं सर्वत्र वेमौत मर रहे।।
स्वारथ रत परम स्वार्थी एक दूजे से जर रहे।
    वर्ग भेद में सेध कर हमें टुकड़े-टुकडे कर रहे।।94।।
नहीं किसी का दोष इस धरा पर।
      जीने की आदत है पड़ी हमें मर मर कर।।
हो जाते हैं कातर निज मन से डर।
     वीर भोग्या वसुंधरा मन्त्र फैलाये घर घर।।95।।
आततायी हो चाहे कितना भी ताकतवर।
      नहीं चली है न चलेगी उसकी जमाने भर।।
घोर घन अंधकार के प्रवाह पर।
       कभी तो गिरता ही है रश्मि राशि कहर।।96।।
आज नहीं तो कल यह होना ही है।
        सच्चाई सम बुराई को रोना ही है।।
कष्ट साध्य साधना विजय हेतु अपनाना ही है।
    निज साधना-श्रम से सब साध्य बनाना ही है।।97।।
अनवरत चलता पथिक मंजिल पाता ही है।
     जग की रीति यही तब जग जस गाता ही है।।
शक्ति पुजारी शक्ति से शक्ति पाता ही है।            

   आशक्ति पुजारी आशक्ति में मर जाता ही है।।98।।  
आशक्ति भले कैसी भी हो भली नहीं ।
    किसी गली में उसकी कली खिली नहीं ।।
बल बुद्धि विद्या की बरबादी चली नहीं ।
   पर हित रत जन की तो भली भली ही रही।।99।।
पर जहाँ हो रहा नित नया उत्पात।
    जहाँ पर सती को मिले नव-नव सन्ताप।।
जहाँ सच-झूठ झूठ- सच नहीं पाप।
   तब करता ही भरेगा करेगा अति विलाप।।100।।
नारी ने ही है सदा सहा पीड़ा अकथनीय।
    चिर-कुमारी की व्यथा-कथा है अनिर्वचनीय ।।
पर अपराध का दर्द सहती असहनीय।
      वाध्य सदा नारी जीवन जीने को दयनीय।।101।।
हर समय के लिए अनुदरा कथा वर्णनातीत।
    युग बीते रीते सब छोड़े न साथ अपना अतीत।।
कृशोदरी नव जीवन करे शान से व्यतीत।
    क्या पता क्या गुल खिलाये हमारा अतीत।।102।।
लोग कहते है सब भविष्य के गर्त में हैं ।
        पर यहाँ तो सब अतीत के कर्म से हैं ।।
क्यो क्या ये प्रारब्ध की शर्त में हैं ।
      भूत के कर्म फल भविष्य के मर्म में हैं ।।103।।
आज व्यतिथ हैं हम निज अतीत कर्म से।
     मयतनया तो नहीं थी गलत किसी मर्म से।।
निज पति हित रत सतत सद धर्म से।
     परम सती भी शापित थी प्रकृति वर्म से।।104।।
जो कथा सकल जग जानता सही।
    उसका पृष्टपेषण करने की इच्छा नहीं ।।
नारी है पीड़ित अपनों से कही न कहीं ।
    इस सत्य उद्घाटन की मेरी बड़ी इच्छा रही।।105।।
संयोग से मिल गयी मुझे सहारा सही।
     लोभी लोलुप कामी कथा देखें तो सही।।
दहेज धन पाने को जलाते वधुवें यही।
     इसमें पुरुष के साथ स्त्रियाँ नहीं पीछे कहीं।।106।।
केवल पुरुष गलत हो नहीं सकता।
  मैं सही शत प्रतिशत कह नहीं सकता।।
केवल नारी गलत शत प्रतिशत क्या हो सकता।
प्रकृति पुरुष की जोड़ी से ही हर कार्य हो सकता।।107
युग्मता यदि हो जाय सत्कर्म लीन।
   उनकी छबि होगी नहीं कभी मलीन ।।
एक होते ही हो जाय पथ हीन ।
   एक की ही छबि कब तक बनेगी समीचीन।।108।।

         ।।पंचम सोपान=जनक दुलारी ।।

नाक-कान कटवाने की बात बहना की।
           नीव पड़ रही थी वृहद घटना की।।
मंदोदरी सहमति भी सूत्र रचना की।
     आमंत्रण विनाश हेतु निज अंगना की।।109।।
आधी-अधूरी बात है बिगाड़ती काम।
    वैसे काम का है कही नहीं कोई नाम।।
घटती नित नव घटना आठों याम ।
   जो बनाती बिगाड़ती हमारा सब ताम-झाम।110।।
आ गयी धरनि सुता निज मातृ धाम।
    नियति को है पूरा करना निज अधूरा काम।।
इन्द्र आशीष से था सब गुम नाम।
    सत्य उजागर विधाता बन हो गया बाम।।111।।
शिष्टाचार से आ गयी महारानी।
     सीता से जानने आप बीती कहानी ।।
फरियाद कन्या किया कह रावन मनमानी।
     माँ पतिव्रता बचा लो तू तो हो पटरानी ।।112।।
जागा ममत्व हुई वेदना तन-मन।
      सौदामिनी सी सब घटना छा गई जेहन ।।
सर्पिणी बन करायी निज कन्या हरन ।
      अब तो निश्चित है मरन का मरन ।।114।।
कहे तो कहे कैसे पति से परिताप।
     हर पल सहने को मजबूर यह सन्ताप।।
सोने की नगरी में  बिन सोने कटे रात ।
    जग मात हित सोचती जग मातु की मात।।115।।
निज तनुजा की रक्षा निज पति से करनी।
        पिता को अतीत कैसे बताये यह घरनी।।
सत सागर परीक्षा पार तो है करनी।
       चाहे किसी को छोड़नी पड़ जाय धरनी ।।116।।
असुर प्रवृत्ति वश रावन बदनाम।
       याद नहीं उसे कुछ भी पूर्व कृत काम।।
पुत्री रुप में नहीं पता है सीता नाम।
       सीता रति दिखती हो रहा वश काम।।117।।
आज तो सभ्य समाज में असुर हैं ।
       अनजाने क्यो जान कर होते पतित हैं ।।
जाने क्यो हर बहू-बेटी उनकी रति  हैं ।
     रिश्तों को तार तार करना हुई  नियति है।।118।।
खुले याम ये सब रिश्ते कर रहे बदनाम है।
    धर्म भाई धर्म बहन का तो केवल नाम है।।
सहोदरा तनुजा का भी नहीं कोई मान है।
    दूर के रिश्तों की तो अब करनी नहीं बात है।।119।।
रावन एक बार एक यती था वहाँ ।
    अब तो राम रहीम आसा को जाने जहाँ ।।
आसिफ आशु भाई को पहचानो यहाँ ।
   सुखबिंदर राधे निर्मल आदि इच्छाधारी जहाँ।।120।।
नाम रुप आचार व्यवहार भिन्न भिन्न।
  देख-सुन यथार्थ सद मानव हो रहें खिन्न।।
माँ बहन बेटी जाने नहीं पाप लीन।
   सद साधु-संत वेश देश को कर रहे मलीन ।।121।।
सद असद का अन्तर नित बड़ रहा।
    दोनों में भेद करना जन को भारी पड़ रहा।।
सद रुप धर असद आसमां को छू रहा ।
    सद,असद के जाल में फस गुम हो रहा।।122।।
तड़प रही वेदना संवेदना शून्य सामने जब।
   सत लाचार विवश असत शक्ति सामने तब।।
पद मद मतवारे सारे हो रहे हैं अब।
   काल के कपाल पर काल कील गाड़े कब।।123।।
शून्य में  सब सून दिख रहे हैं अब।
    आशा की एक किरण निकलेगी कब।।
धर धीर धरनि सुत झेल रहे हैं सब।
   साम दाम दण्ड भेद जन गाथा है जब।।124।।
पर नारी छबि लीन हीन नर-पिशाच आज।
  कैसे कैसे आडम्बर कर सवारते है निज काज।।
उनकी भी तो हैं माँ बेटी बहना कहाँ लाज।
  न जाने किस भ्रम-भँवर से सोचते ये समाज।।125।।
राम कृष्ण की पावन धरा पर राम का।
           गंगा यमुना के धारा मध्य गंगा का।।
चंदा सूरज के व्योम बिच चंदा का।
     हैं जो अपमानी धर्म-ध्वज धन्धा का।।126।।
न चला है न चलेगा हरदम यह धन्धा।
   रामकृष्ण की तपोभूमि पर कैसा गोरख धन्धा।।
सब पर समय लगाता जबर्दस्त फंदा ।
   मत हो न करो कभी यहाँ मानवता को गन्दा।।127।।
अन्यथा रावन सा निज नाश मानो ।
    क्या था क्या कर क्या हुवा जी जानो ।।
पर नारी के प्रेम पास को पहचानों ।
   सकुल विनाशी आशु-आसा की गति जानो।।128।।
प्रेम प्रस्ताव त्यागी जब है नारी ने।
    अत्यचार किया उस पर जब है नर ने।।
नाश किया तन मन धन इस जग में ।
   यह कथा बताती सत्य यही है जीवन में ।।129।।

 नारी अपमान नारी ही करवाती है।
      नारी का सम्मान नारी ही बचाती है।।
सूपनखा सीता मंदोदरी रुप रचवाती है।
     त्रिजटा माँ कहाँ राक्षसी रह जाती है।।130।।
कामी मन भय-लज्जा नहीं रह गया।
    मर्यादा सेतु अब जलोटा का ढह गया।।
संग नारी निज अशोक वाटिका गया।
     तब अपनी सब सीमा ही तोड़ गया।।131।।
बोला सुमुखी सयानी मतकर मनमानी।
         मंदोदरी भरेगी तेरे लिये नित पानी ।।
तेरा नहीं रहेगा मेरे यहाँ कोई सानी।
      तेरी चेरी मेरी रानी तू होगी पटरानी।।132।।
आज दिया खोल माता ने माता नयन।
     तृन धरि ओट किया शब्द बाण चयन।।
धरनि सुता सम धरनी पड़ा रावन।
    यद्यपि हर बाण सब पर था कामन।।133।।
कोई दुखी कोई सुखी है यहाँ ।
    निज कर्म-धर्म फल देते इसी जहाँ ।।
सामान्य बात आततायी सुने कहाँ ।
    सामान्य बात आततायी गुने कहाँ ।।134।।
हर बात निज मान से जुड़ जाती है।
    सद वाणी भी तो काटने दौड़ाती है।।
ताकत दुष्ट की सद को तड़पाती है।
    पूरी अपनी करने दुष्ट आत्मा छटपटाती है।।135।।
चंद्रहास हुवा है उद्यत वार करने को।
     मयतनया तैयार है निवार करने को।।
जल सम वाणी से क्रोधाग्नि हरने को।
    नीति-नीर से अनिती-अनल बुझाने को।।136।

अनीति की सहभागिनी नीति पर चली।
       अब ठानी करना सब है भली-भली।।
पति परायणा प्रति पल पति प्रेम पली।
    पर पीड़ा पर न्यौछावर करे पाप की गली।।137।।
परिवर्तन प्रकृति प्रदत्त आता ही है।
     सन्तान स्वयं का सबको भाता ही है।।
कभी न कभी बुराई का अन्त आता ही है।
         अपना अपनी ओर खीच लाता ही है।।138।।
सोचती आज अब रावन-सीता बीता ।
   पति है या विपत्ति या पतित गया बीता।।
व्याहिता प्रत्यक्ष अपमानित अपनीता।
    नारी की लाज बचाने वाली नारी है सीता।।139।।
निज पति का व्यवहार है अशोभनीय।
    पर पत्नी पाने हेतु करे कर्म निन्दनीय।।
हर कुल हेतु कर्म है कुल कलन्कनीय।
     मान-मर्यादा रहित जन हो जाय निन्दनीय।।140।।
मुझे जो सहना पड़ा यहाँ पति से।
    नहीं सही होगी न सहे कोई नारी किसी से।।
क्या नहीं पाया इसने मुझ कुलीन नारी से।
     मैथिली हेतु गिरा दिया आज मुझे दिल से।।141।।
सामने ही यत्न किया काम के पुजारी ने।
    सीता सम रीता किया पति दुराचारी ने।।
बचाता पति पर बचाया लाज जनकदुलारी ने।
   पुत्री समक्ष माँ को हराया पति कामाचारी ने।।142।।
ठान लिया पुत्री रक्षण व्रत माँ ने तब।
   आज से पूर्व कृत कुकर्म नाश करुगी अब।।
साथ साथी का देना उचित नहीं है कब।
   इसका विचार करना ही  है मुझे अब से सब।।143।।
अकुलायी विकलायी हरदम समझाई ।
    रावन माथे बात कभी बैठी नहीं भाई।।
जोरि-जोरि हाथ माथ नाई नाई।
   अनीति सम हार रही ज्ञान सिखलाई ।।144।।
निज जड़ता को मान विद्वता।
   रावन नहीं समझना कुछ चाहता ।।
पत्नी को दासी मान झपटता ।
   करने लगा काल की अब दासता।।145।।
परम सती असुराधिप नारी तब।
     विभीषण समक्ष कही आयी बात सब।।
सुमति कुमति गति अपगति अब।
     भाव भय भगति सुगति हुवे जब।।146।।
परम चतुर सुजान ज्ञान वान थे ।
     रावण के अनुज महानीतिवान थे।।
मंदोदरी देवर परम विष्णु भक्त थे।
       काम क्रोध मोह लोभ मत्सर मुक्त थे।।147।।
तिनकी बात न माना पड़ा सदा भारी ।
      लात मारी बात मारी बार-बार दुत्कारी ।।
अद्भुत कुकर्मी कुपथगामी बलात्कारी।
    निज अनुज सन वैरी सन काम किया सारी।।148।।
सत्य संकल्प हैं जग मह केवल राम।
    छोड़ दिया हो सबने तब भी आये काम।।
देने वाले सब रखते सबका ध्यान।
     नहीं राम सा है रखता कोई है यहाँ मान ।।149।।
कण-कण में राम बनाये बिगरे काम।
     छोड़ सभी से आस जपें प्रभु का नाम।।
पा जावोगे सब कुछ पूरे होगें काम।
     मन-मटका मह घोलो मिसरी-राम नाम।।150।।
लात मार निज भ्राता को भगाया।
    भ्राता संग है लंकेश भाग्य भी गवाया।।
चाटुकारों की चाटुकारिता में मन बसाया।
    धन्य धन्य सब धन्य चले न प्रभु पर माया ।।151।।
सच है विनाश जब मारग बनाता है।
     निजको छोड़ गैरों को गले लगाता है।
प्रिय का हित वचन नहीं सुहाता है।
    मृदु-वचन चमचागिरी मन मोह जाता है।।152।।
पर आज तो परम सती ने ठाना है।
    निज पति का परम कल्याण करवाना है।।
पर नारी परित्याग मान सिखाना है।
    इस हेतु हे हर हर मूल्य भी चुकाना है।।153।।
कर्मपथ पथिक को कर्म बताना है।
    पतित पति का परम कल्याण करवाना है।।
सीता का उद्भव सदा छिपाना है।
   कर कल्याण असुरकुल को मुक्त कराना है।।154।।
जाना है संसार पार तो प्रण निभाना है।
    कुल कल्याण हेतु दिन रात ज्योति जगाना है।।
निज पति पुत्र सहित परम गति पाना है।
  सर्व कल्याण हित सीता अच्छा बहाना है।।155।।
पर विपदा बीज जिस जिसने बोया ।
   अपना सब कुछ उसने इस धरा पर खोया ।।
पर पर काटन रत हर जन है रोया।
   सर्व द्रष्टा की दृष्टि से है नहीं कुछ गोया।।156।।

             ।।षष्ठ सोपान=नारी।।

खेल रही नियति लंका में नव-नव खेल।
    पति-पत्नी जीवन-गाड़ी पहियों का कहाँ मेल।।
परित्याक्ता का जीवन जीना है झमेल।
    मधुशाला की हाला का हाल है ठेलम ठेल।।157।।
मनोरंजन मन्वान्छित महिषी महल।
    आदर मान नित नव मिले चारो पहर।
परम सुंदरी असुन्दरी कैसे कहल।
     जैसे दूरी देती दर्द बना जीवन जहर।।158।।
जो दुख-दर्द बाँटता था हर पल।
     गिराया नहीं मंदोदरी ने कभी मनोबल।।
शतरंज खेल का अद्भुत नूतन फल।
    लंकेश हित मंदोदरी ने लाया था इस थल।।159।।
शतरंज विसात सब था बँटता वहाँ।
    शातिर खिलाड़ी थे प्रतिद्वन्दी यहाँ ।।
जो था केवल एक मनोरंजन तहाँ।
   दिल बहलाने का साधन था साध्य कहाँ ।।160।।
खेल हमें नित शह-मात सिखाता।
   प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष जीतने की कला बताता ।।
खेल में हारना नहीं जीतना सुहाता।
    अभ्यास रत जन सुजान बन जता।।161।।
धीरे-धीरे अभ्यास जड़मति बदलता है।
  हर खेल सबको जीत-हार का मौका देता है।।
कोई बहुत तो कोई थोड़ा जीत जाता है।
   लेकिन जीत का मजा हर कोई को सुहाता है।।162।।
हार हार है चाहे जिससे जैसे हुई हो।
   भले अपनेपन में हो जाय छुई-मुई हो।।
प्रेम रहता तो सहते चाहे हर कई हो।
  प्रेम हीन हार में होता अपना ही मुद्दई हो।।163।।
प्रेम प्रेम चाहता इसे कुछ नहीं भाता है।
   प्रेम टूटते ही प्रेमिका को सर्पिणी बनाता है।।       

  प्रेम में दूसरा रुप किसे कहाँ भाँता है।
    सुहाग-सुहागन परस्पर काल बन जाता है।।164।।
हुआ हाल रावण का ऐसा ही है।
      जंग पत्नी मन द्वन्द्व करा रहा ही है।।
जिसके हित सर्वस्व त्यागा ही है।
       उसके सर्वस्व हित सत साथ ही है।।165।।
सत साथ असत का हाथ छूट जाता है।
       मानो जगत सुत तब मन नहीं घबड़ाता है।।
एक दो नहीं विघ्न पुन: पुन:आता है।
      तो भी सत पथ पथी लक्ष्य को पा जाता है।।166।।
पति हित सह सर्वहित सती को सुहाता ।
      पर पति हित ही प्रथमत:बार बार भाता।।
येन केन पति प्राण रक्षा ही ध्येय होता।
       पर धर्म हित कर्म मर्म सब बदल जाता।।167।।
बार-बार निकट जन से यत्न किया जाता है।
       साम दाम दंड भेद राजनीति करवाता है।।
जब बार-बार प्रयत्न असफल हो आता है।
      तब विकल जन निज ब्रह्मास्त्र चलाता है।।168।।
प्रिय देवर संग मामा ने खूब समझाया।
      मानी मामा को साथ छोड़ना ही भाया।।
सुमति कुमति में कुमति नीच को भाया।
      धर्म निष्ठ अनुज पर है दुष्ट लात उठाया।।169।।
भार्या व्यतिथ बार-बार दर्पण दिखलाया।
     मात खाती शेरनी पर नहीं शेर को ठुकराया।।
प्रहस्त ठकुरसुहाती तज हित सुझाया।
     कामान्ध निज तनय पर भी खूब गुर्राया।।170।।
सोते को जगाना है सरल इस जग में।
     पर बहाना सोने का तो है कठिन सच में।।
मनुहार झूठी काटे बिछाती हर मग में।
     अहं ब्रह्मास्मि विनाश लाता जीवन में।।171।।
जिसने निज को है सब कुछ मान लिया।
     औरों का है न कभी जीवन मे मान किया।।
जग जाहिर बात है जग जान लिया।
      अब है ओ निज नाश को गले लगा लिया।।172।।
हो रहा है वही जो होना है।
      फिर हाय-हाय कर क्यों रोना है।।
आज चहु दिशि जो सोना है।
      कल इसे तो निश्चित ही खोना है।।173।।
रावन अजेय अमर का ताना बुना था।
      ब्रह्मा शिव से हर राजनीति नित सुना था।।
नहीं छोड़ा पथ कोई घमंड सौ गुना था।
      नारी अपमान कर स्वयं मृत्यु को चुना था।।174।।
निज क्या किसी भी नारी का अपमान।
       न कर रे मानव तू इस जग में जी जान।।
नारी केवल नारी नहीं जीवन धारा मान।
       अजस्र प्रेम जीवन परमाणु मृत्यु जी जान।।175।।

नारी जग की जीवन दायिनी गंगा है।
       जिसके जीवन-जल हर मानव नंगा है।।
धरा हित सहती नर संग हर पंगा है।
        नर नारी सम क्यों होता बेढंगा है।।176।।
मंदोदरी नारी नर रावण की सहचरी।
        सद-असद बीच विकट उलझन में परी।।
जानती हर राज राजा का खरी-खरी।
        फस गयी है वह भारी दुविधा में जकरी।।177।।
भार्या धर्म निभा है पुत्री को बचाना।
        पति कल्याण कर परम पद है पाना।।
निज आन मान पर है मिट जाना।
        भावी पीढ़ी को नित सद पाठ पढ़ाना।।178।।
हार नहीं मानना बनना नहीं छुई-मुई।
       अंत तक समझ भले पति हो पातकमई।
साथ नहीं छोड़ना हो पथ कंटक मई।
        निज पर मर मिटना ही उसे भावे सही।।179।।
सीता है पुत्री जान गयी मान गयी।
         इनके सतीत्व को भी वह पहचान गयी।।
निज के आगे ही तो वह हार गयी।
          निज से हार में ही जीत है पहचान गयी।।180।।
आज माँ अलौकिक रश्मि को देखा।
         कर रही अब जतन कुछ पेखा-पेखा।।
रखता शान से समय सबका सब लेखा।
        प्राणपण पुण्य पथ मिटानी पाप की रेखा।।181।।
पाप न हरदम फलता है।
        पुण्य न हरदम रिक्ता है।।
पाप कहीं नहीं टिकता है।
        पुण्य ही अंत में जितता है।।182।।
आदि जब अस्तित्व में आ जाता है।
       तभी अथ का अंत स्पष्ट लिख जाता है।।
हर सोच वहाँ नहीं पहुँच पाता है।
       जहाँ विधान विधि बहु विधि रचवाता है।।183।।
कुछ विधि कुछ गति कुछ निज कर्म।
       कुछ कुछ तो सब कुछ नियति मर्म।।
छोड़ देता नर कब माया बस शर्म।
        निभाते हैं प्रभु सब सन निज धर्म।।184।।
विभीषण हो गया था प्रभु का अपना।
       जीत रावण को हो रही थी नित सपना ।।
हर अस्त्र शस्त्र का पल-पल कटना।
       मृत्यु का हर खेल खुल कर खेले विधिना।।185।।
यह सच है रावण-मरण अटल था।
      पर सब कुछ इतना भी न सरल था।।
कही अमृत तो कही पर मारक था।
     राज सब मंदोदरी मान मन संचित था।।186।।
रानी थी महारानी थी पटरानी थी।
     जीवन थी ज्योति थी रावण कहानी थी।।
पति संग चलना मन में ठानी थी।
      हर राज की सन्गिनी आज बिरानी थी।।187।। 

जग विदित विभीषण ने किया धोखा।
    बताया राज रावण नाभि अमृत झरोखा।।
पर यह राज भी हो गया था खोखा।
    था बाण कहाँ जों नाभि बीच अमृत सोखा।।188।।
ब्रह्मा के बाण से रावण मरण था।
    पर वह तो केवल मंदोदरी शरण था।।
कुलंगार को राज नहीं वरण था।
     महासमर परिणाम सती के चरण था।।189।।
सब सह सकती नारी पति मरण नहीं।
      सब करते भगवान पातिव्रत्य क्षरण नहीं।।
शंकर स्वयं केसरी नन्दन आहूत वही।
      प्रतिद्वन्दी विष्णु स्वयं थे मानव नहीं ।।190।।
रचा विधान विधि ने सारा जहाँ।
     पालक ही बने थे संहारक जब जहाँ ।।
संहारक पायक भागें यहाँ वहाँ।
      युद्धान्त का निर्णय जटिल था वहाँ ।।191।।
हार-जीत दोनो का दोनो ओर।
      पलड़ा भारी कभी इस कभी उस छोर।।
नहीं चलता वहाँ किसी का जोर।
     रावण तो है अजेय होवे दहु दिशि शोर।।192।।
संहारक दृष्टि सृष्टि संहार पर रहतीं।
     हनुमान स्वयं महाकाल हैं कथा कहतीं।।
पालक हित शक्तियाँ कहाँ रुकतीं।
     काल के गाल से वे निवाला छिन सकतीं।।193।।
हार-जीत का यह एक बहाना था।
     सच है जग को बहु पाठ पढ़ाना था।।
नारी ही है शक्ति हमें सिखलाना था।
     शक्ति हित मातृ शक्ति को जगाना था।।194।।
मातृ शक्ति है स्व सह कुल तारिणी।
     यह तो सदा सर्वदा त्यागमूर्ति धारिणी।।
विमुख नहीं आसन्न विपदा वारुणी।
     देती सदा निज पट तर सर्वसुख सारिणी।।195।।
माँ जैसा न हुवा न होगा यहाँ कोई।
     दुख व्रण मरण मारण पर है न कभी रोई।।
सहे सब दुख संतति की बिना सोई।
      जीवन जिये भले स्वयं नित खोई-खोई।।196।।
आ गये रघुवीर पायक सायक हित।
       माँ निहार रही रस्ता इनका लोक हित।।
ईष्ट देव जिसने न किया कभी अहित।
       मेरे हनुमान शंकर नहीं होने देगें अनहित।।197।।
विश्वास अटल ईष्ट देव की पूजा थी।
        माँ मन भाव नहीं कभी कोई दूजा थी।।
पति हित रत प्रति पल भाव-भूजा थी।
     आज वही वर पा रही जिसके वह यूजा थी।।198।।
दे दिया वरदान दोनों को दोनों दर्शन।
     कोई नहीं कर सकता कभी तेरा मान मर्दन।।
तू पंच कन्या से तुझ पर सब अर्पन ।
     तू रहेगी सदा जग में नारी धर्म का दर्पन ।।199।।
पा निज ईष्टदेव से मन्वान्छित वरदान।
     विन मांगे दे दिये उसे आज सब हनुमान।।
तेरे पति का नाम अमर जैसे भगवान।
     तेरा प्रातः करे जन-जन का हर कल्यान ।।200।।
ले आज सदा शिव संहारक बान।
      समर भूमि आये जहाँ है खड़े भगवान।।
नमन कर नारी को ले रहे है प्रान।
      धन्य-धन्य तू तूने किया जगत कल्यान।।201।।
पति प्राण प्रभु देह गेह हैं बनाये।
       देख अलौकिक छठा सुधि जन हरषाये।।    

         आ धरा सब देव धन्य-धन्य गाये।
        जग झूम-झूम मंदोदरी विरद बजाये।।202।।
पति देह पर अब निज देह वारन।
       आ गयी मंदोदरी कर सब श्रिंगार धारन।।
शिव-विष्नु हनुमान-राम जग तारन।
     करें अनुपम अन्तेष्टि आज धर्म धूरि धारन।।203।। मंदोदरी पति सह प्रभु धाम को गयी।
      पायी वह गति जो सुर-मुनि दुर्लभ रही।।
असुर-कल कल्यान कर सुगति पा गयी।
        मधुरा-मंदोदरी है सब सुख सुलभ लही।।204।।
पति-प्रेम की प्रतिमूर्ति शिव भक्त थी।
        नारी थी पराशक्ति थी पति अनुरक्त थी।।
राज-महिषी थी पर सदा विरक्त थी।
     सदा के लिये हो गयी जनम-मरन मुक्त थी।।205।।
मंदोदरी कथा नारी हित मेवाती नन्दन गाये।
    जगत सुत की नारी व्यथा जन जन को भाये।।
ईष्ट देव से हैं हम यह ललक लगाये।
    राम भाल तिलक सा यह जन जन को भाये।।206।।
                 ।।          इति      ।।

   

      

 

   

    
  
     

    

  

  
     
    

    

    
   
     

     
     

     

      
    

  

      
      

    

1 टिप्पणी: