शनिवार, 1 मई 2021

।।रूपक अलंकार:- Metaphor।।

           रूपक अलंकार:- Metaphor
 यह सादृश्य मूलक अभेद प्रधान आरोपधर्मी
 ताद_रुप्य अलंकार है।उपमेय और उपमान के भेद
 को मिटा देने वाली उपमा रूपक हो जाती है। 
परिभाषा:- 
जहाँ उपमेय पर उपमान का निषेध रहित आरोप होता है अर्थात उपमेय और उपमान को एक ही मान लिया जाता वहाँ रूपक अलंकार होता है। दूसरे शब्दों में उपमेय पर उपमान का आरोप या उपमान और उपमेय का अभेद ही रूपक है।
आरोप का आशय प्रस्तुत (उपमेय) से अप्रस्तुत (उपमान) का अभेद (एकरूपता) दिखाना है। इसलिए आरोप में प्रायः अभेद दिखाया जाता है। जैसे:-
1-शशि-मुख पर घूघट डाले अंचल में दीप छिपाये। 
2-चरण-कमल बन्दौं हरि राई।
3-माया-दीपक नर पतंग, भ्रमि-भ्रमि इवै पड़न्त।
4-अवधेस के बालक चारि सदा, तुलसी मन-मंदिर में विहरें।
ऊपर के उदाहरणों में शशि-मुख,चरण-कमल,माया-दीपक,मन-मंदिर में रूपक अलंकार है। यहाँ एक समानता दिख रही है कि उपमेय और उपमान के बीच में Dash (-) का प्रयोग है।अतः यह ध्यान रखना है कि रूपक अलंकार में प्रायः(हरदम नहीं)Dash (-) का प्रयोग होता है।
और दूसरी बात यह ध्यान रखना है अगर परीक्षा में केवल रूपक अलंकार पूछें तो यहाँ तक पर्याप्त है लेकिन विस्तृत जानकारी के लिए रूपक के बारे में इस प्रकार से हमें विस्तार से जानना चाहिए।
रूपक के सामान्य भेद
रूपक के दो सामान्य भेद होते हैं तद्रूप रूपक और  अभेद रूपक।
1-तद्रूप रूपक 
तद_का सामान्य अर्थ  होता है उस जिसका अर्थ है दूसरा  अतः हम कह सकते है कि जहाँ  किसी पद में उपमेय को उपमान के दूसरे रूप में स्‍वीकार किया जाता है; वहाँ तद्रूप रूपक अलंकार होता है।पहचान के लिए जब किसी पद में रूपक के साथ दूसरा, दूसरी, दूसरो, दूजा, दूजी, दूजो, अपर अथवा इनके अन्‍य समानार्थी शब्‍दों का प्रयोग हो रहा हो तो वहाँ तद्रूप रूपक अलंकार माना जाता है। जैसे 
‘तू सुंदरि शचि दूसरी, यह दूजो सुरराज।
प्रस्‍तुत पद में नायक को दूसरे इन्‍द्र (सुरराज) के रूप में तथा नायिका को दूसरी इन्‍द्राणी (शची) के रूप में स्‍वीकार किया गया है, अत: यहाँ तद्रूप अलंकार है।
2-अभेद रूपक
अ भेद अर्थात बिना भेद का अतः हम कह सकते है कि
 जहाँ पर उपमेय तथा उपमान में कोई भेद नहीं रह जाता वहाँ पर अभेद रूपक होता है। जैसे:- 
  सखि ! नील नभस्सर मेँ निकला, 
             यह हंस अहा    तरता     तरता  |
 यहाँ नीले आकाश में सरोवर का इस प्रकार आरोप किया गया है कि दोनों में बिल्कुल भेद नहीं दिखाई देता
नीले आकाश - सरोवर में यह हंस- सूर्य  तैरता दिखाई देता है !
नोट:-तद्रूप का अन्य कोई भेद नहीं होता परन्तु अभेद के निम्न तीन भेद हैं जो रूपक के मुख्य भेद माने जाते हैं।
1:-निरंग  (निरवयव) रूपक
2:-सांग(सावयव)  रूपक
3:-परम्परित( संकीर्ण) रूपक
1-निरंग रूपक:-जहाँ अवयव अर्थात अंगों रहित उपमेय का उपमान पर अभेद आरोप होता है वहाँ निरंग रूपक होता है।
पहचान के लिए जब किसी पद में केवल एक जगह रूपक अलंकार की प्राप्ति होती है तो वहाँ निरंग रूपक अलंकार माना जाता है। जैसे:-
1.‘चरण-कमल मृदु मंजु तुम्‍हारे।’
2. छिनु-छिनु प्रभु-पद कमल बिलोकी ।
    रहिहौं   मुदित   दिवस  जनु  कोकी।।
3.बंदौ गुरुपद-पदुम परागा।
 2-सांग रूपक:-जहाँ काव्य/पद में उपमेय के अंगों अर्थातअवयवों पर उपमान के अंगों अर्थात अवयवों का आरोप किया जाता है वहाँ सांग रूपक अलंकार होता है।दूसरे शब्‍दों में जब उपमेय को उपमान बनाया जाये और उपमान के अंग भी उपमेय के साथ वर्णित किये जाए तब सांगरूपक अलंकार होता है।इस रूपक में जिस आरोप की प्रधानता होती है, उसे ‘अंगी’ कहते हैं। शेष आरोप गौण रूप से उसके अंग बन कर आते हैं।सामान्‍य पहचान के लिए जब किसी पद में एक से अधिक स्‍थानों पर रूपक की प्राप्ति होती है तो वहाँ सांगरूपक अलंकार माना जाता है। जैसे :-
1.उदित उदयगिरि मंच पर, रघुवर बाल-पतंग।
  बिकसे संत सरोज सब, हरषे लोचन-भृंग।।
उपमेय                   –          उपम
सीता स्‍वयंवर मंच     –         उदयगिरि
रघुवर (राम)            –         बाल-पतंग (बाल सूर्य)
संत                       –           सरोज (कमल-वन)
लोचन                    –         भृंग (भ्रमर)
2.बीती विभावरी जाग री।
 अम्‍बर-पनघट में डूबो रही तारा-घट उषा नागरी।।उपमेय                        –          उपमान
नागरी (नगर में रहने वाली) –           उषा  
घट                                –             तारा
पनघट                           –          अम्‍बर
अन्य उदाहरण:- 
3:-नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित जाहि प्रान केहि बाट।।
4:-रनित भृंग- घंटावाली झरति दान मधु-नीर।
मंद -मंद आवत चल्यो कुंजर कुंज- शरीर।।
5.राम कथा सुन्दर करतारी।
संसय बिहग उड़ावनिहारी।
6.बंदौ  गुरु पद कंज कृपा सिंधु नर रुप हरि।
   महामोह तंपुंज जासु बचन रबिकर निकर।।
7.संपति चकई भरतु चक मुनि आयसु खेलवार।
   तेहि निसि आश्रम पिंजरा राखे भा भिनुसार।।3.परम्परित रूपक:-जहाँ उपमेय पर एक आरोप दूसरे आरोप का कारण होता है वहाँ परम्परित रूपक होता है।दूसरे शब्दों में जब किसी पद में कम से कम दो रूपक अवश्‍य होऔर उनमें से एक रूपक के द्वारा दूसरे रूपक की पुष्टि हो तो वहाँ परम्‍परित रूपक अलंकार माना जाता है
 जैसे:-
1. तुम बिनु रघुकुल-कुमुद विधु सुरपुर नरक समान।
   यहाँ पर रघुकुल में कुमुद का आरोप किया गया है जो राम में विधु के आरोप का कारण  है अतः यहाँ पर परंपरित रुपक  है।
अन्य उदाहरण:-
2 . जय जय जय गिरिराज किशोरी।
     जय महेश मुख चन्‍द्र चकोरी।
3-बढ़त-बढ़त सम्पत्ति-सलिल,मन-सरोज बढ़ि जाय।
4-राम-कथा सुन्दर करतारी।
  संशय-विहग उड़ावन हारी।
         ।।। धन्यवाद ।।।


            

                     धन्यवाद

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