।।दुष्ट/खल वन्दना।।
बहुरि बंदि खलगन सति भाए।जे बिनु काज दाहिनेहु बाए।।
आइए आज हम इस विषय पर अपनेआपको शामिल करते हुए विचार करें कि खल कौन? हो सकता है कि हम स्वयं इस श्रेणी में आ रहे हो तो भी हम नम्रता पूर्वक इस विचार पर विचार अवश्य करें और खलगन में शामिल होने से बचें।
खल शब्द विशिख के ख और व्याल के ल से मिलकर बना है। विशिख का अर्थ बाण और व्याल का अर्थ सर्प होता है,ये दोने अकेले ही किसी के प्राणों के अंत करने में समर्थ हैं सोचिए अगर ये दोनों साथ है तब कितने भयानक होंगें।
बात इनकी भयानकता से मानव को पूर्ण परिचय कराने का या इनसे हमें सचेत रहने का या इनके जैसा नहीं बनने का या अन्य कुछ भी हो सकता है क्योंकि साधु चरित या महिमा अकथनीय है,साधु से किसी भी समाज को किसी भी प्रकार की रंच मात्र भी परेशानी नहीं होती।साधु महिमा कोई कह ही नहीं सकता जैसा कि गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में लिखा----
बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी।कहत साधु महिमा सकुचानी।।
सो मो सन कहि जात न कैसे।साक बनिक मनि गुन गैन जैसे।।
विचित्र बात है न बाबा जो खल चर्चा तो विस्तार से कर रहे हैं लेकिन साधु के लिये साफ कह रहे हैं कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश ,कवि शुक्राचार्य आदि,कोविद नारद-वशिष्ठ आदि भी साधु महिमा कहने में संकोच करते है तब मैं उनकी बात कैसे कर सकता हूँ।खल की बात तो जोर-शोर से बाबाजी कर रहे हैं, खल-वन्दना कर रहे हैं, हमें भी बता रहे है।शुरु की पंक्तियों के आधार पर ही हम विस्तार करें।साधु-संतों की वन्दना वन्दना के लिये किया उन्हें भूलाते हुवे खल वन्दना पर ध्यानाकर्षण किया और जोर भी दिया, सन्तों को तो भूल भी जाये पर खलों की वन्दना कभी न भूलें, खलगन अर्थात समष्टि रुप से इनकी वन्दना करें व्यष्टि की बात तो बाद में है।"सत्ये नास्ति भयं क्वचित" सत्य को कोई भय नहीं है मैं "सतिभाये"सच्चे मन से वन्दन कर रहा हूँ और इनके बारे में सच्ची-सच्ची कह भी रहा हूँ क्योंकि ये लोग बिना काज ही दाये-बाये होते रहते हैं मतलब स्पष्ट है खल "दाहिनेहु" अनुकूल यानि हितैषी के भी "बाये"प्रतिकूल यानि विरुद्ध हो जाते हैं।संसार की सामान्य रीति यही है कि आम लोग अनुकूल अर्थात हितैषी के अनुकूल रहते पर खल का क्या कहना।
लेकिन हम स्वयं खल हो सकते है पर आज बाबाजी की उक्त पंक्तियों को और बाबाजी को आधार बनाकर खलों के बारे में विस्तार से बात करगें ताकि हम अपनी खलता से भी मुक्त हो सके और सम्भव हो तो अन्य को मुक्त कराते हुवे उन्हें खलता और खल से बचा सकें नाममात्र भी अगर मैं अपने इस प्रयोजन में सफल हुवा तो मैं अपने और अपने इस लेख को धन्य समझूँगा।
आइए अब हम खलगन और खल के बारे में और जानकारी प्राप्त कर स्वयं खल बनने और उनसे बचने का हर सम्भव प्रयास करें।
साधु संग सुखदायी, परलोक प्राप्ति का साधन,भवसागर पार कराने वाला अन्यान्य लाभ देने वाला होता है वही खल संग दुःखदायी,भवसागर में डुबोने वाला और अन्यान्य दुःख देने वाला होता है,अतः इन्हें पहचान कर बचने हेतु इनसे अलग रहने हेतु इन्हें त्यागने हेतु इनकी पहचान जानना अति जरूरी है,यद्यपि कि खल की पहचान अति कठिन है फिर भी उनके लक्षणों को यदि हम जानकर बचने का प्रयास करें तो हो सकता है कि सफलता मिले।
बाबाजी ने तो एक ही पंक्ति में अपनी बात को गूढ़ ढंग से हमें समझा दिया पर मैं या मेरे जैसे मूड़ नहीं समझ पाए तो उनका क्या दोष। मैंने कोशिश किया जो सबके समझ में आ जानी चाहिये। इनका काम है दाहिनेहु बाये का अर्थात कभी इस पक्ष में कभी उस पक्ष में,कभी कही कभी कही,पहले अनुकूल फिर प्रतिकूल, अनुकूल के साथ भी प्रतिकूल।दाये-बाये एक मुहावरा भी है अर्थात जबर्दस्ती किसी के काम में कूद जाना,बिन माँगेसलाहदेना,विचारप्रगटकरना,अनावश्यक या अनधिकृत रुप से बोलना,करना,कहना,अपनी बात रखना दाहिने बाये होना,भले-बुरे काम में लगेरहना,भला काम भी बुराई के निमित्त ही करना,करने का विचार रखना, इनका भला कार्य भी बनावटी ही होता है।कुछ उदाहरण से आगे बढ़ते हैं--
बैर अकारन सब काहू सो।
जो कर हित अनहित ताहू सो।।
स्पष्ट है और देखें---
पर हित हानि लाभ जिन्ह केरे।
उजरें हरष बिसाद बसेरे।।
यहाँ समझना ही पड़ेगा ,ये लोग परहित अर्थात दूसरों के हित को हानि और परहानि को लाभ कहतें हैं।दूसरों के उजड़ने में हर्षित होते हैं और बसने में दुःखी होते हैं, सोचें संसार के जो चार व्यवहार(1) हानि (2) लाभ (3) हर्ष और (4) बिसाद हैं वे इनके कितने विचित्र हैं।
जब काहू की देखहि बिपती।
सुखी भये मानहु जग नृपती।।
आगे तो देखें
काहू की जो सुनहि बड़ाई।
स्वास लेहि जनु जूड़ी आई।।
बात यही तक नहीं आगे भी है
खलन्ह हृदय अति ताप बिसेषी।
जरहि सदा पर संपत्ति देखी ।।
खल स्वभाव अव्यवस्थित ही होता है अतः उनके बचन और कर्म पर विश्वास नहीं किया जा सकता है।आइए हम बाबाजी की इन पंक्तियों पर थोड़ी चर्चा कर ले, पक्तियाँ यो हैं ----
हरि हर जस राकेश राहु से।
पर अकाज भट सहसबाहु से।।
यहाँ विचार करना जरुरी है,हरि यानि भगवान विष्णु और हर यानि महादेव शंकर दोनों के संयुक्त जस यानि कीर्ति के जो राकेश यानि राका कहते हैं पूर्णिमा को राका का ईश अर्थात चन्द्रमा अब स्पष्ट है पूर्ण चन्द्रमा ही राकेश हैं अपूर्ण चन्द्रमा राकेश नहीं हो सकते क्योंकि अपूर्ण चन्द्रमा को राहु कभी भी छति नहीं पहुँचा सकता----टेढ़ जानि सब बन्दइ काहू।
बक्र चंद्रमहि ग्रसई न राहू।।
उस राकेश के लिए खल राहु के समान हैं। इन बातों को हम और भी स्पष्ट कर दे---
करहि मोहबस द्रोह परावा।संत संग हरिकथा न भावा।।
खलों की एक बहुत विशिष्ट बात है आप सबने अवश्य ही देखा-सुना होगा,जब कभी भोले-भाले पंडित या व्यक्ति कभी हरि कथा या संत चर्चा करते है तब खल उनसे उल-जलूल,उल्टे-सीधे,निरर्थक नास्तिकता पूर्ण अटपटे सवाल पूछ कर विघ्न डालते ही रहते हैं और कभी-कभी सफल भी हो ही जाते है जैसे हर पूर्णिमा को राहु चंद्रमा को नहीं ग्रस पाता है लेकिन संधि पाते ही ग्रस ही लेता है ---ग्रसहि राहु निज संधिहि पाई-----
वैसे ही अवसर पाते ही खल मौका नहीं चूकते विघ्न डाल ही देते हैं।
पर अकाज भट सहसबाहु से--होते हैं खलगन।
सहसबाहु की हल्की -फुल्की चर्चा मैं यहाँ कर रहा हूँ क्योंकि पूरी कथा लिखने से लेख सहसबाहु सा न हो जाय इस बात से डर रहा हूँ।पिता कार्तवीर्य का पुत्र सहस्रार्जुन नर्मदा तट स्थित महिष्मती राज्य का राजा भगवान दत्तात्रेय का परम शिष्य था शुरु में प्रतापी और सत्यप्रिय राजा रहा लेकिन कालान्तर में ---------प्रभुता पाई काहि मद नाही--------- मदान्ध हो गयाऔर सत्ता मद में मतवाला होकर कुमार्ग गामी बन गया,एक दिन महर्षि जमदग्नि की हत्या कर उनकी प्रिय कपिला गाय को लेकर चला गया-----प्रतिभट खोजत भट इस पर अकाज भट को अतुलनीय भट भगवान परशुराम जी ने इसकी सहस बाहुओं को काट कर इसका कल्याण किया।
खलों की इन्द्रियों की करामात तो जरा आप भी देखे,गुने और समझे--
जे पर दोष लखहि सहसाखी।
पर हित घृत जिन्ह के मनमाखी।।
इन्द्रियों का बादशाह -मन- खलों का मन हमेशा दूसरों के अहित करने और अहित चिन्तन में ही लगा रहता है उनके इन बातों के कारण भले ही दूसरों का बुरा न हो उनका खुद का नाश ही क्यों न हो जाये वे मानने वाले नहीं है।पर हित कारक घी---परहित सरिस धरम नहि भाई---अर्थात वह घी जो हमेशा हमेशा पर हित कारक ही कार्य करता है उस हितकारी का भी खल का मन माखी की तरह अहित हेतु स्वयं का नाश भी करने से पीछे नहीं हटता।
सहसाखी से आखी को ले आँख किसकी दुष्टों की दूसरों के दोषों को ध्यान पूर्वक देखने में सहसाखी की तरह अर्थात सहस्रों आँखों वाले इन्द्र की तरह खल खल कार्य रत रहते हैं। इन्द्र सहसाखी कैसे बने यह महर्षि गौतम और उनकी धर्मपत्नी गौतमी अहल्या की कथा से आप सब जानते ही होंगे अतः इस बात को रोकते हुवे हम खलों के मुख,कान और आँख के इन सुप्रसिद्ध कार्यों को भी तो देखें----
सहस बदन बरनै पर दोषा।
और----पर अघ सुनई सहस दस काना। अभी शान्ति कहाँ---सहस नयन पर दोष निहारा।
रुकते नहीं
तेज कृसानु रोष महिषेसा।
अघ अवगुन धन धनी धनेसा।
इनका क्रोध तेज कृसानु ही नहीं बल्कि महिष+ईशा अर्थात महिषासुर की तरह है जिनका नाश महिषासुर मर्दिनी जगदम्बा ही करती हैं।ये अघ और अवगुन के धन में कुबेर के समान धनाधिपति हैं। बाबाजी की आगे की बातों को भी आप देखे मनन करें---
खल अघ अगुन साधु गुन गाहा।
उभय अपार उदधि अवगाहा।।
उदय केत सम हित सब ही के।
कुम्भकरन सम सोवत नीके।।
दुष्ट उदय जग आरत हेतू।
जथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतू।।
पर अकाज लगि तनु परिहरहीं।
जिमि हिम उपल कृषि दलि गरहीं।।
हाँ तो खल गुन समाप्त नहीं हो रहा है,इनका गुन अपार है इनका तो सोये रहना ही ठीक है अगर ये जग गये तो कुंभकरन और केतू बन जायेगें। इनका एक सिद्धान्त होता है-पराई बदशगुनी के लिए नाक कटवाना मतलब साफ है अपनी नाक कटे तो कटे दूसरों का अपशगुन होना ही चाहिये इनकी इस सोच को बाबाजी ने अच्छी तरह से हमारे सामने रखा है देखे तो सही, खल दूसरों के कार्य को बिगाड़ने के लिए निज तन त्यागी होते हैं कैसे जैसे (1)हिम+उपल=बर्फ का पत्थर (2)हिम=पाला (3)उपल=ओला ये क्या करते हम सब जानते हैं, ये कृषि अर्थात खेतों में खड़ी फसल को नष्ट करने के लिए फसलों पर गिरते हैं और उन्हें हानि पहुँचाने का प्रयास करते है जबकि उनके इस प्रयास का उनके ऊपर क्या परिणाम होता वे स्वयं गरही अर्थात गल कर नष्ट हो जाते हैं, यह है खलों का सुन्दरतम कार्य।
आगे खलों के कहने ,सुनने और देखने की शक्ति भी हम जान ले--- और इनका वन्दन भी करे ताकि इनके कोप-भाजन बनने से बच जाय तो ठीक वैसे सम्भव तो नहीं है---
बंदौ खल जस सेष सरोषा।
सहस बदन बरनई पर दोषा।
पुनि प्रनवौ पृथुराज समाना।
पर अघ सुनइ सहस दस काना।।
बहुरि सक्र सम बिनवौ तेही।
संतत सुरानीक हित जेही।।
बचन बज्र जेहि सदा पिआरा।
सहस नयन पर दोष निहारा।।
क्या बात है तीन लोक तीन राजा तीन गुण पाताल और धरती वालों के लिए दो-दो पंक्तियाँ ही और स्वर्ग वाले के लिए चार पँक्तियाँ चलो इन राजाओं के बारे में तो आप जानते ही होंगे आगे इनकी और चर्चा कर लेगें,यहाँ हमें यह जानना जरुरी है कि खल इन राजाओं की तरह होते है अतःभाई हम यदि इनसे बचना चाहते हैं तो इनकी वन्दना करते रहें।
बाबाजी आगे एक दोहा और एक चौपाई केद्वारा इनके प्रति अपनी और निष्ठा दिखाते हैं और हमे समझाते हैं---
उदासीन अरि मित हित, सुनत जरहि खल रीति।
जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति।।
मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा।
तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा।
बायस पलिअही अति अनुरागा।
होहि निरामिष कबहु कि कागा।।
सारी बात एक तरफ खलों को समझें,खुदसुधरें,सतर्क रहें ,स्वच्छ रहें और सुरक्षित रहें अन्यथा इनसे बचना नामुमकिन है क्योंकि इन्हें शत्रु-मित्र से कोइ फरक नहीं पड़ता, इनको अगर पालते हो तो ध्यान रखना कि यदि कौवे को कितना भी स्नेह से रखा-पाला जाय वह सामिष ही रहेगा निरामिष नहीं हो सकता रहीमजी ने भी लिखा है----
रहिमन ओछे नरन सो बैर भली नहि प्रीत।
काटे चाटे श्वान के दोउ भाँति बिपरीत।।
इन बातों से तो यह हमें समझ ही लेना चाहिए कि दुष्ट जन से हमें सावचेत रहते हुवे अपने जीवन पथ और कर्म पथ पर आगे बढ़ते रहना है।
जय हिन्द, जय भारत, जय मानस प्रेमियों जय जय
।। इति।।
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