गुरुवार, 15 अक्तूबर 2015

स्वानुभूति गतांक से आगे||3||

तिलौली का यह नोनिया टोला बाबा टोला से तिवारी टोला बन गया।मेरा जन्म तिलौली गाँव के सामूहिक पैतृक घर पर हुवा पर  बचपन और बालकपन का आनंद एवम कष्ट यही प्राप्त किया।हमारे उन दिनों टोला एक विशिष्ठ स्थान रखता क्योकि यहाँ जन्मांत तक के सर्वाधिक संस्कारों के उपाधान तथा इस हेतु आवश्यक हर कार्य क्षेत्र के व्यक्ति उपलब्ध।घर तो यहाँ मात्र गिने-चुने जगत बाबा;जद्दू,सूरदेव,सामदेव,शम्भू नोनिया;सीताराम कोहार;शंकर, राम आशीष,रामबिलास लोहार के कुल नौ ही नवग्रह की तरह नव नव क्षेत्रों व कलाओं के महारथी तथा ज्ञाता एवम् जीवन के सभी कर्म क्षेत्रों हेतु सहज-सरल उपलब्ध।यहाँ का सभी परिवार लाजबाब अपने कर्म और परिश्रम हेतु मशहूर।ये काम से नहीं भागते इन्हें देख काम भाग जाता।मेरी माताजी सभी परिवारों की मतवा सबको सही राय देती ईमानदारी और परिश्रम का पाठ पढ़ाती।मातृ पक्ष के परिवार से प्राप्त संस्कारों के कारन माताजी पूजित रही। काफी कष्टप्रद जीवन के बाद परिवार का जीवन जीने योग्य चल रहा था।मेरा घर आम रास्ते पर जहाँ विशाल महुवा का पेड़ उसके नीचे हैण्ड पम्प जिसके समीप गुड़ की डली डलिया में माताजी हमेशा राहगीरों हेतु रखी रहती।राहगीर तृप्त हो जाते।मैं इन सभी परिस्थितियों को समझते बूझते बचपन से निकलते पाँचवीं बोर्ड पड़ौसी गाँव भैदवा से पढ़ परीक्षा केंद्र मरकडा से परीक्षा दे 1979 मेंउत्तीर्ण किया।सच यही है कि उस समय आस-पास पाँचवी के बाद अध्ययन के लिये सरकारी या पब्लिक स्कूल ही नही थे।आज भी मेरे गाँव में प्राथमिक तक ही सरकारी स्कूल है।साक्षरता कम रहने के एक कारणों में उस समय आज की तरह हर जगह स्कूलों का न होना भी रहा।संयोग से पड़ोसी गाँव टीकर में "बाबा इन्द्र मणि जनता उच्चतर माध्यमिक विद्यालय"दसवीं तक एक पब्लिक स्कूल खूल गया था जो बाद में राज्य सरकार से सहायता प्राप्त अनुदानित सरकारी स्कूल बन गया।कक्षा छठी से दसवीं तक का अध्ययन यहीं से पूरा किया।उस समय बड़े भाई साहब गोरखपुर में आधुनिक परिवार सहित रहते घर से नाम मात्र सम्बन्ध रखते,दूसरे भाई साहब नौकरी की तलाश में कभी कोलकाता कभी मथुरा वृन्दावन और तीसरे भाई साहब डागा कॉटन मिल हुगली कोलकाता में काम कर रहे थे।घर पर मैं माता-पिता और शेष परिवार के साथ रहता था।मैं अपनी बहन राजकुमारी के साथ पढ़ता।बहन उम्र में दो साल बड़ी पर मेरे साथ ही पढ़ना शुरु किया और दसवीं तक मेरे साथ ही पढ़ती रही।दसवीं के बाद शादी पश्चाद् उसकी पढ़ाई रुक गयी।भाई-बहन को ही घर परिवार का सर्वाधिक कार्य भीतर बाहर करना पड़ता रहा।माता-पिता के सामाजिक-पारिवारिक कार्यो में हमे ही यथा समय यथा शक्ति सहयोग करना होता।खेती के लियेऔकात के अनुसार ही दो बूढे बैल थे,हलवाहे को हमारे यहाँ जुताई आदि कार्य करने के बदले जमीन दी गयी थी।पिताजी ने शौक से एक भैस भी रखा था।उन सभी पशुओ की जिम्मेदारी भी हमारी ही रही।अतःप्रभु कृपा से स्वमेव ही पशु सेवा बाद में गो सेवा का लाभ एवं प्रातः काल सुबह जल्दी जगने की आदत पड़ गयी और परिश्रमी स्वभाव भी हो गया।छठी से ही मैं परिवार की आर्थिक आदि परेशानियों को धीरे-धीरे समझने लगा था और उसको दूर करने हेतु प्रयास रत रहने लगा था।जब से मैं थोड़ा-बहुत चीजों को समझने लायक हुवा तब से मैं बिना किसी के कहे आवश्यकतानुसार घर-परिवार का काम सम्भालना शुरु कर दिया।पशुओं को खिलाना- चराना,उनकी देख-भाल करना,बैलों को खेत तक पहुचाना आदि पढ़ाई के साथ मेरा मुख्य काम था।इनके अतिरिक्त अनेक पारिवारिक और सामाजिक दायित्वों को भी मुझे पूरा करना ही पड़ता था।परिवार की लचर स्थिति को दूर करने में पिताजी की जजमानी का भी सहयोग रहा।जजमानी खूब रही जो मजबूरी में ही रही।जजमानी में मुख्य काम था सत्य नारायण की संस्कृत में कथा कहना।पिताजी के दबाव और समय की मजबूरी में मैंने यह काम स्वमेव ही पुस्तकों की सहायता से सिखा और सत्य नारायण की कथा बाँचना यत्र-तत्र-सर्वत्र जहाँ मिले वही शुरु कर दिया।इससे संस्कृत-संस्कार एवं संस्कृति के प्रति स्वमेव रुझान बढ़ने लगा।
        मैं अपनी पढ़ाई के साथ-साथ घर के समस्त कार्यो को निश्चित समय पर करता रहा।बीच के दोनों भाइयों द्वारा समय-समय पर आर्थिक सहायता मिल जाया करती थी फिर भी तंगी बरकरार थी।मुझे सत्य नारायण कथा कहने से हल्का लाभ मेरी समझ में उस समय मुझे मिला होगा पर दूसरों को जरुर मिला क्योंकि स्कूल के पास जो बाबाजी का चौरा यानि मंदिर इन्द्रमणि ब्रह्म का है वहाँ रोज दो चार कथा के करवाने वाले आते जिनके पास कथा वाचक नहीं होते उनके लिए मैं सुलभ था। कथा में बीस आने पक्के थे जजमान अच्छा तो पांच से दस रुपये तक हो जाते और भोजन में दही-चिउरा भी हो जाता।प्रभु कृपा मैं एक भी पैसे का दुरुपयोग कभी नहीं करता अत्यावश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद जो बच जाता उसे गोलक के हवाले कर देता।मेरी बहन मेरे साथ मेरी ही कक्षा में पढ़ती,मेरे स्कूल और कक्षा में मुझे और मेरे कार्य को सब जानते,कथा से जो प्रसाद मैं लेकर आता और अपने थैले में रखता उसे कभी-कभी मेरे साथी तो कभी-कभी बहन की सहेलियां चुपके से निकाल कर खा जाते मजे लेते हँसते आनन्द करते।मैं भी उनके साथ हँसता खेलता मस्त रहता आखिर उनका साथी ही तो था।संयोग अचानक भैस के बिक जाने के कारण पिताजी एक गाय लाये जिससे एक बछड़ा हुवा,इसी बीच एक बूढ़ा बैल मर गया,खेती में परेशानी आ गयी पर हमारे टोले पर ही एक परिवार के पास एक ही बैल था अतःउनके साथ काम चलाया गया।अगले साल दूसरा बैल भी चल बसा।पिताजी ने एक बछड़ा कही से लाया और अपने घर वाले बछड़े के साथ एक अच्छी जोड़ी तैयार कर दिया जिससे बैलों की समस्या लगभग हल हो गयी।पिताजी का गाय के प्रति प्रेम बड़ गया।तबसे आज भी एक न एक गाय हमारे यहाँ हमेशा रखी जाती भले ही इनकी संख्या अधिक हो सकती है पर कम नहीं।समय ने करवट लिया।जब मैं आठवीं में आया उसी समय पता नहीं किन ज्ञाताज्ञात कारणों से मेरे छोटे भाई अपनी नौकरी छोड़कर घर आ गये। मेरे दूसरे भाई भी छुट्टी पर मथुरा वृन्दावन से गाँव आये हुवे थे।इसी बीच मेरे स्कूल के मैनेजर ने मेरे पिताजी को बुलवाया और मेरे दूसरे भाई साहब की नौकरी उसी स्कूल में लग गयी पर निःशुल्क सेवा जब सरकार अनुदान देगी तबसे तनख्वाह मिलने की बात तय हुई।छोटे भाई साहब गोरखपुर जा कर ट्रक चलाना सिखने लगे।वह एक कुशल ड्राइवर बन गये।दूसरे भाई साहब को स्कूल से तनख्वाह नहीं मिलती अतः उन्होंने जजमानी जोर शोर से सम्भाला,मैं उस काम से फ्री पर खेती आदि कामो में उनके साथ रहता,भाई साहब को अनेक स्थानों से श्रीमद्भागवत कथा कहने का प्रस्ताव आता गया और भाई साहब व्यास होते जिनमे लगभग हर जगह मैं उनका सहयोगी होता।मथुरा वृन्दावन के प्रवास पर भाई साहब बाके बिहारी से बहुत प्रभावित रहे और वहाँ के प्रवास के कारण ही अच्छे व्यास बन गये ।उनके द्वारा ही सही मुझे भी श्रीमद्भागवत कथा का आनन्द लेने के अवसर प्राप्त होते रहे।भाई साहब का स्कूल सरकारी हो गया।वेतन मिलना शुरु हो गया।भाई साहब के गाँव से दूर होने पर अभी भी मैं यदा-कदा पिताजी के मिलने वालों या यो कहे जजमानों के यहाँ कथा कहने मन-बेमन से जाता ही था,एक दिन श्री रामचरितमानस पढ़ते समय मेरा मन "पौरोहित्य कर्म अति मंदा।बेद पुरान स्मृति कर निंदा।।"पर मंथन करना शुरु कर दिया और मैंने मन ही मन निर्णय कर लिया कि किसी भी हाल में मैं अब यह कार्य नहीं करुँगा पर इस मेरे निर्णय के एक दो दिन बाद ही ऐसी स्थिति आ गयी कि मुझे पिताजी के दबाव में पड़ोसी गाँव धौला पंडित श्री शारदा प्रसाद पाण्डेय के घर कथा कहने जाना पड़ा पर वहाँ तो हद हो गयी,कथा अच्छा प्रशंसा के स्थान पर श्री पाण्डेय ने मुझे और पिताजी को बहुत ही विनम्रता से बहुत ही चुभने वाले कड़वे वचन कह दिये।मुझे उनकी सभी बातें हितप्रद ही लगी उन्होंने मुझे पढ़ने और आगे बढ़ने की प्रेरणा ही दिया।वास्तव में श्री पाण्डेयजी परमहितकारी वचन कठोरता से कहा जिसके बारे में कहा भी गया है"सुलभा पुरुषा राजन सततं प्रियवादीनः।अप्रिय स पथस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभम्।।"गोस्वामी तुलसी दास ने भी लिखा है:-प्रिय बानी जे कहहि जे सुनही।ऐसे नर निकाय जग अहही।बचन परमहित सुनत कठोरे।सुनहि जे कहहि जे नर प्रभु थोरे।मैं उनकी बात को दिल पर बैठा लिया।पर पिताश्री ने उनकी बातों पर ध्यान नहीं दिया यह मुझे हमेशा याद रहेगा पर उनकी हर बात मेरे जेहन में समा गयी और मैंने दृढ़ निश्चय किया कि अब मैं किसी भी हाल में इस काम को नहीं करुँगा।दृढ़ निश्चय पर परीक्षा शेष।परीक्षा का दिन आ गया।भाई साहब की अनुपस्थिति में पिताजी ने पड़ोस की लड़की की शादी में पंडिताई करने का दबाव बनाने लगे पर मैंने पहली बार जीवन में पहली बार अपने जीवनदाता का विरोध कर डाला तो कर ही डाला इस पर उन्हें गुस्सा आना स्वाभाविक,गुस्से में उन्होंने चाटा जड़ दिया और मैं घर छोड़ दिया,मैं बामुश्किल पैदल आदि से गोरखपुर अपने बड़े भाई साहब के पास पहुँच गया।उन्हें सारी बात बतया।पर वे मुझे अपना क्वार्टर और दुकान कार्य समझाकर मुझे या खुद घर जाने ले जाने के बजाय अपनी ससुराल निकल गये जहाँ उनका पूरा परिवार पहले से गया था।मैं वहाँ कुछ दिन रहा बहुत कुछ सीखा और तो और चाय को छोड़ने का प्रण भी मैंने वही किया,हुवा यो कि भाई साहब के दुकान के पास ही एक चाय की दुकान थी जहाँ मैं रोज चाय पिया करता था अचानक उसको गाँव जाना पड़ गया मेरे चाय के लाले पड़ गए अचानक चाय के  समय सरदर्द शुरु ऐसा दो एक दिन हुवा कि मैंने सोचा हो न हो कि चाय के कारण ही ऐसा हो रहा हो जो सही भी था मैंने वही जून1982 में निर्णय किया कि चाय कभी नहीं पीऊँगा और निर्णय पर कायम हूँ।यहाँ मास्टर साहब और पूरा परिवार मेरी खोज में परेशान रहा वह हर रिश्तेदारो के यहाँ आस-पास अन्य वांछित स्थानों पर मुझे खोजता रहा भाई साहब मेरी खोज में मामाजी के यहाँ गये जहाँ से खाली हाथ आते समय दस शीशम के पौधे लाये और मेरे भगने की याद में उनका रोपण किये जहाँ बाद में हमने एक खूबसूरत बाग लगा दिये।बड़े भाई साहब ने किसी प्रकार मेरे गोरखपुर होने की खबर घर दे दिया था जिससे घर वालो की परेशानी कम हो गयी थी।मेरे इस कृत्य से परिवार को पूरा परिवार मिल गया,बड़े भाई साहब ससुराल से अपने पूरे परिवार को लाकर गाँव छोड़ गए और अपने अपनी दुकान सम्भालने लगे।मेरे छोटे भाई साहब की शादी भी हो गयी।सामान्य स्थिति में परिवार चलने लगा।बड़े व छोटे दोनों भाइयों ने अपने परिवार सहित गोरखपुर रहते और घर भी आते जाते।मैं ग्रामीण वातावरण में ही अपनी सभी परिस्थितियों को समझते हुवे पूरे लगन से अपनी पढाई जारी रखा और अपनी क्षमतानुसार समस्त गृहकार्यो में हाथ पूरे मनोयोग व परिश्रम से हाथ बटाता तथा खेती, बागवानी,पशु सेवा आदि कार्यो को करता परिवार की गाड़ी डगरने लगी थी।
                    क्रमशः

रविवार, 11 अक्तूबर 2015

स्वानुभूति गतांक से आगे||2||

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे,हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे!अष्टयाम हरि कीर्तन में पिताश्री के प्राण बसते।इसका आयोजन आस-पास,दूर-दराज चाहे कही भी हो उसकी जानकारी भर मिल जाय,पिताजी तन-मन से वहाँ हाजिर,आयोजक के यहाँ केवल चाय,देर -सबेर,रुखा-सूखा भोजन घर का।इसका लाभ पिताश्री को खूब हुआ,हमारे गाँव,टोले को जगत बाबा का टोला लोग कहने लगे सच तो लाभ सबको प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष मिल रहा था और अभी भी है पिताजी का दायरा सच कहे तो हम लोगो को जानने वालों की संख्या बेसुमार बढ़ती गयी।साल में लगभग एक बार पिताश्री ने भी अष्टयाम का आयोजन करना शुरू किया।गायकों में होड़,गवैयों की भीड़,गाने वालों के आने-जाने का तो ताता जी लगा रहता।हम सब उनकी आव-भगत,सेवा-सुश्रुवा,खान-पान,जर-जलपान की उचित व्यवस्था में लगे रहते।माता-पिता का यह धार्मिक प्रेम हमें  विरासत में मिला लेकिन उतना नहीँ,उस रूप में नहीं।पिताजी का साथ माँ ने वाखूबी निभाया।हम इन पर न्यौछावर हैं।इन्होंने अपना सब कुछ लगाकर मान-प्रतिष्ठा बचाकर हमारे जीवन को आगे बढ़ाया।माताजी दरवाजें पर आये जाने-अनजाने किसी भी जाति,धर्म,सम्प्रदाय के व्यक्ति को अपने सामने से खाली हाथ नहीं जाने देती मीठा पानी तो पिला कर ही छोड़ती।उस समय पक्की और सीधी सड़के नहीं थी लोग अक्सर पैदल ही यात्रा किया करते थे मेरा टोला एक बड़े बागीचे में है जहाँ गर्मी में छाया सर्व-सुलभ शीतल-मन्द हवा और खुले में मेरा दरवाजा तथा हैण्ड-पम्प जिसका पानी अति शीतल और ठंडा हर राहगीरों के लिए स्वमेव ही विश्राम स्थल उपलब्ध।मतवा भूखे-प्यासों के लिए गुड़ और रुखा-सूखा लेकर मीठे बोल के साथ हाजिर।मेरे दूसरे बड़े भाई साहब की शादी माताजी के इसी व्यवहार से स्वम तय हो गयी।हमारे गाँव जो हमारे टोले से लगभग एक किमी दूर है रेवली से दो देखनहरु किसी अच्छे घर-वर की तलाश में किसी निश्चित घर आये रहें जब उनके यहाँ उचित आव-भगत,भोजन-पानी नहीँ हो सका तब लड़की वाले दोनों वहाँ से आकर हमारे हैण्ड-पम्प पर पानी पीकर आपस में हमारे गाँव के उस परिवार के बारे में उल-जलूल बातें कर ही रहे थे की माताजी कही से उनकी बातें सुन आ गयी और उनको भूखा-प्यासा जानकर भोजन का प्रस्ताव रखी बस अंधे को क्या चाहिए बस दो आँखें उन लोगों ने पहले भूख मिटाया फिर बातों ही बातों में लड़की के भाई श्री राजेन्द्र मिश्र ने अपनी पूरी राम कहानी माताजी को सुना दी और माताजी से मेरे भाई साहब के बारे में जानकारी अनजान बनकर ले लिया,जब बाद में श्री राजेन्द्रजी अपनी बहन का रिश्ता भाई साहब के साथ करने की लिए आये और तय कर लेने के बाद यह सब माताजी को बताये तब माताजी को उस दिन की घटना का स्मरण हुवा।ये घटना भाई राजेन्द्र मिश्र ने स्वम् हमे सुनाया।आज-कल ऐसी बातों पर विश्वास  करना या होना या ऐसी बातों का मिलना दुष्कर है।भैया-भाभी सानन्द सफल जीवन जीते हुवे आज हमारे परिवार के ही क्यों हर जाने-अनजाने के लिये आदर्श और प्रेरणा-स्रोत है।उनका जीवन अनुकरणीय है और वे एक आदर्श-संयुक्त परिवार के प्रतिमान हैं।
                           क्रमशः

बुधवार, 7 अक्तूबर 2015

स्वानुभूति गतांक से आगे||1||

पारिवारिक सम विषम परिस्थितियों मे मैं आया था।जीवन के प्रारम्भिक दौर की यादे तकलीफदेह एवं रोमांचक हैं।पिताजी अत्यन्त अल्प शिक्षा प्राप्त सुदामा सरीखे भक्त एवं आर्थिक रूप से निम्न वर्गीय श्रेणी के  खेतिहर किसान ब्राह्मण रहे।उस समय घाघ कवि की कहावत उत्तम खेती मध्यम बान निम्न चाकरी भीख निदान को मानने वाले पिताश्री नौकरी को लात मारकर उत्तम खेती में लग गए ।निर्बल के बल राम।असमय में सभी अपनों ने साथ त्याग दिया पिताश्री घोठे पर आकर अपनी  कच्ची मकान रहने योग्य बना लिये।जमीन आधी रह गयी।पिताश्री पढ़ाई का महत्व उस समय ही जान गये थे हमें पढ़ाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ा।फिर भी पारिवारिक परिस्थिति का प्रभाव या किस्मत बड़े भाई साहब का अध्ययन बाधित।दूसरे भाई साहब ने परिस्थितियों से जूझते बी ए, बी एड कर लिया।तीसरे भी समय,परिस्थिति और किस्मत का शिकार बारहवी से आगे न बढ़ सके।पूर्णतः ग्रामीण इलाका दूर-दूर तक शहर नहीं।आज की तरह गाँव-गाँव,गली-गली स्कूल नहीँ अनगिनत दसवीं,बारहवीं से आगे नहीं बढ़ पाते।पारिवारिक,आर्थिक,सामाजिक,व्यवहारिक और भौतिक कारणों पर माता-पिता और भाइयों तथा बहनों के प्यार व उत्साह से विजय प्राप्त करते हुवे मैंअपने अध्ययन पथ पर आगे बढ़ता रहा।मेरे पिताश्री ईमानदारी की मूरत, मजबूर और गरीब के दुःख में दुखी होने वाले संवेदनशील ,सर्वहितरत, धार्मिक एवं सादा जीवन जीने वाले रहे।अतः मैं
अक्षरसःइस बात में विश्वास करता हूँ कि बाढ़े पूत पिता के धर्मे, खेती बाढ़े अपने कर्मे।
                                     क्रमशः

मंगलवार, 6 अक्तूबर 2015

स्वानुभूति (एक आत्मकथा)

प्राक्कथन:-पूज्य पाद पद्मों में कोटिशःनमन।सुधार सुझाव सतत वरन।इस आत्मकथा लेखन से पूर्व मैं उन सभी का तहे दिल से आभारी हूँ जिन्होंने जाने अनजाने मुझे इस हेतु प्रेरणा दिया,सहयोग दिया,जानकारी दिया ,सामग्री दिया ,ज्ञान दिया व आशीर्वाद दिया।अग्रज मोटका भैया का प्यार इस हेतु हमेशा अविस्मरणीय रहेगा।पिताश्री की छबि माताश्री का सर्वस्व जेहन ज्योति जगाये रखेगा।सहोदरों का अवर्णनीय स्नेह, प्यार, दुलार व आशीर्वाद अग्रजों का पथप्रदर्शन अनुजों का सहयोग पूर्वजों का वरदहस्त वंशजों का अनमोल लाड इस कार्य में मेरा अनवरत सहयोग करता रहेगा और इसकी पूर्णता में मदद करेगा।अतः सभी से विनम्रता पूर्वक आग्रह है कि कहीँ भी कोई त्रुटि या अभिमान हो तो उसे नासूर की तरह जड़ से मिटाकर इस कार्य को सदा सही करवाने में अपना अमूल्य सहयोग देवे।ज्ञाताज्ञात तथ्यों के आधार पर मेरा निम्न प्रयास आपसे सदा सहयोग की अपेक्षा करता रहेगा।
आप सबका
गिरिजा शंकर तिवारी
               
    मानव स्व वर्ग विकास से उत्साहित एवं प्रसन्न होता है ।मैं इसी विकास के क्रम में सरकारी अभिलेखनुसार 18 सितम्बर;1969 को ऋषि प्रवर आचार्य शाण्डिल्य की द्वितीय शाखा गर्दभमुख(गोमुख)गोत्र के तिवारी परिवार के सदस्य श्री विंदेश्वरी तिवारी के प्रपौत्र व श्री जगत नारायण तिवारी के चतुर्थ पुत्र के रूप में ममतामयी माँ मेवाती देवी के कोख से ग्राम तिलौली पत्रालय भैदवा जनपद देवरिया प्रान्त उत्तर प्रदेश देश भारत महान में पैदा हुवा।इस गाँव में सम्पूर्ण ब्राह्मण एक ही जाति के हैं जो विश्व के सर्वोत्तम श्रेष्ट कुलीन त्रि प्रवर वाले सामवेदी ब्राह्मण हैं।सर्वहारा वर्ग ही इस गाँव में रहता है।पूर्व काल में सर्वहारा वर्ग की निम्न श्रेणी के दर्द से इस गाँव के ब्राह्मणों का चोली-दामन सम्बन्ध रहा।मल्ल परिवार की भी यहाँ अस्मिता है।राजपूत भी शिवालय साथ शोभित हैं।इस गाँव से दक्षिण रेलवे लाइन के उस पार स्वर्ण नगरी की तरह तीन दिशाओं से पूर्णतः और पूरब से आंशिक जल स्रोतों से घिरा तथा पूरब से ही आंशिक खुला गाँव है कटियारी जहाँ से आकर इस गाँव में प्रथम पंडित ने अपना आवास बनाया जो इस गाँव के आदि पुरुष श्री नन्दू तिवारी हैं।आदि पुरुष के साथ ही साथ अनेक संवर्गों ने यहाँ स्थान लिया।उनमें यदुवंशी ,हरिजन,नट,चौहान,लोहार और कोहार हैं।आज गाँव चहुमुखी विकास की ओर अग्रसर है पर किसी भी वर्ग से मेरी जानकारी में अबतक प्रशासनिक सेवा में कोई नहीँ है जो अबतक हो जाना ही चाहिए।इसके पूरब में टीकर,चकरा,करौदीआदि पश्चिम में तालाब फिर बरसात,अमाव,बड़कागांव आदि उत्तर में तालाब फिर भैदवा,ब्रह्मचारी,मरकड़ा, शुक्लपुर आदि और दक्षिण में धौला पंडित,भरहा,नेदुवा,गोपवापर आदि गाँव हैं।गाँव की सीमा में शिवालय शोभित है,माताजी का चबूतरा,बरम बाबा,सती माई,डीह बाबा, कटारी बाबा आदि स्थापित पूजित देवस्थान हैं।पोखरा पर नवनिर्मित समस्त ग्रामवासियों के श्रद्धा का केंद्रविन्दु सबके सहयोग से निर्मित माँ दुर्गा का मंदिर जिसके नींव की प्रथम ईट का माँ विंध्यवासिनी के धाम से पूजन करवाकर लाने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुवा हमारे गाँव की शोभा नव नव बड़ा रहा है।वही प्राथमिक विद्यालय भी है।इस प्रकार विकासशील है।रोजी-रोटी की तलाश में अच्छी खासी आबादी राज्य,देश-विदेश के विभन्न गांवों-नगरों के विकास में अपना-अपना योगदान दे रही है।मूल गाँव से लगभग एक किलोमीटर पूरब आम्रकुंजो में लोहार-कोहार व चौहान के दो परिवारों ने प्रथमतःअपना निवास बनाया।जिसे उस समय नोनिया टोला नाम दे दिया गया था जहाँ कभी हमारा घोठा हुवा करता था।अब हमारा भी वही घर है और उसका नाम तिवारी टोला हो गया है।हमारे आदि पुरुष से चार विकास पुरुषों ने जन्म लिया था जिनमें से एक विशेष कारणों से पूर्ण आयु से पहले ही देवलोक गमन कर गये जो हमारे खानदान के बरम बाबा है जिनका चौरा हमारे चाचा के दरवाजे पर है।इनके अतिरिक्त तीन और विकास पुरुषों में से एक श्री दुर्गा चरन तिवारी से गाँव की बाबा पट्टी है जिनमें सेआज जीता बाबा,बिरजा बाबा,मुखिया बाबा,बिहारी बाबा परिवार है जिनमें से कुछ बारीपुर में बस गए हैं।ये अन्यत्र भी हैं।तृतीय विकास पुरुष टेड़ी पट्टी के जनक श्री जमुना तिवारी हैं  इनमें श्री रामायन तिवारी ,श्रीरामकृपाल तिवारी,श्रीभुवनेश्वर तिवारी,श्री भांदत्त तिवारी,श्री फुल्लन तिवारी,श्री राधे श्याम तिवारी,श्री सरयू तिवारी एवम् श्री ध्रुव नारायण तिवारी का परिवार आता है जो तिलौली के साथ यत्र तत्र फल फूल रहे हैं।चतुर्थ विकास पुरुष हैं श्री दूध नाथ तिवारी जो भाई पट्टी अर्थात् भैया पट्टी के प्रवर्तक हैं।श्री दूध नाथ से भैया पट्टी के युग पुरुष श्री अक्षय वर तिवारी अकेले अपने एकलौते पुत्र श्री हंस नाथ तिवारी को जन्म दिया।पूर्व वर्णित विकास पुरुषों द्वारा सृजित सभी पट्टियों का अजस्र धारावत अनवरत विकास हो रहा है।महापुरुष श्री हंसनाथ तिवारी ने अपने अमल धवल वंश को आगे बढ़ाते हुए तीन पुत्र रत्नों द्वारा विकास में योगदान दिया।इनमें से प्रथम भाई श्री राम लोचन तिवारी से श्री बलराम तिवारी और श्री रघुनंदन तिवारी हुए इन दोनों से एक एक परिवार पुरुष हुए जो क्रमशःश्री पयहारी शरण तिवारी और श्री शिवरतन तिवारी हैं।अपने समान संवर्ग अर्थात् भाई शब्द तक सीमित बंधुओं का वर्णन करना ही न्याय संगत है क्योकि यह वंश कथा नही आत्मकथा है।इन परिवार पुरुषो से संवर्गी बन्धु निम्नवत हैं:-श्री पयहारी से श्री पारस नाथ, श्री व्यास,श्री सुभाष व श्री राम प्रकाश ऊर्फ मुन्ना ऊर्फ सोखा बाबा हैं और श्री शिव रतन से श्री वशिष्ठ,श्री राम विलास,श्री उमेश व श्री दिनेश हैं।इममें से तीसरे श्री कालिका तिवारी से श्री तीर्थ राज,
श्री बृज राज व श्री भृगु नाथ हुए जिनसे समवर्गी बन्धु निम्नवत है:-श्री तीर्थ राज से श्री राम चीज,श्री सूर्य नारायण,श्री दीप नारायण व श्री राम अवतार।श्री बृज राज से श्री उदय नारायण।श्री भृगु नाथ से श्री ध्रुव नारायण व श्री रमा शंकर परिवार पुरुष हैं इनसे विकसित संवर्गीय वन्धु हैं श्री राम चीज से एकलौते श्री राम प्यारे वकील साहब;श्री सूर्य नारायण से तीन श्री राम सवारे,श्री जय प्रकाश व श्री रवि प्रकाश;श्री दीप नारायण से भी तीन श्री राम दुलारे,श्री ओम प्रकाश व श्री संतोष;श्री राम अवतार से दो श्री राम पुकार व श्री अशोक;श्री उदय नारायण से श्री प्रद्युम्न व मोटका भैया श्री राम सेवक;श्री ध्रुव नारायण से दो श्री चन्द्र प्रकाश व श्री श्री प्रकाश एवं श्री रमा शंकर उर्फ़ लाला से केवल प्रेम प्रकाश ऊर्फ बच्चू। अब हम अपने पितृ पुरुष दूसरे  भाई का वर्णन करते है जिनके वंशज में हम हैं,दूसरे भाई श्री गुददर तिवारी से श्री विन्देश्वरी तिवारी और श्री महावीर तिवारी इन दोनों से जो परिवार पुरुष हैं उनमें श्री विन्देश्वरी से श्री जगत नारायण व श्री लक्ष्मी नारायण;श्री महावीर से श्री जलेश्वर नाथ तिवारी।इनमे श्री जलेश्वर से श्री चंद्र भूषण,श्री नव नाथ,श्री अवध नाथ उर्फ अवधेश और से बिनोद कुमार।श्री लक्ष्मी नारायण से श्री रवि शंकर व श्री प्रेम शंकर।श्री जगत नारायण से श्री कृपा शंकर,श्री कृष्ण शंकर,श्री नन्द लाल व मैं गिरिजा शंकर तिवारी तिलौली ब्राह्मण के आठवें वंश में पैदा हुआ चार भाई और दो बहनों में पेट पोछना हूँ।
                                      क्रमशः