शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2015

प्रनमामि

रवि कर सम अज्ञान तम भंजक।
कृपा मूल प्रनमामि हम शिक्षक।।
जीवन ज्योति जलावे मिटावे भू भिक्षा।
अनावृत अज्ञान अंधकार करे शिक्षा।।
गुरु दत्त सद ग्रहिता जिज्ञासु ज्ञानार्थी।
श्रोता विवेकी अल्प भोजी है शिक्षार्थी।।
पर है बदला परिवेश बदले सबके वेश।
देख रहा समाज दर्शक सबको निर्निमेष।।
भाषा तकनिकी ज्ञान विज्ञान प्रभृति रूप।
शिक्षा ने है फैलाया अब अगनित स्वरूप।।
होड़ दौड़ घुड़दौड़ शिक्षा दौड़ाये दौड़े।
येन केन प्रकारेन डिग्री लक्ष्य धरो चौड़े।।
नैतिक सात्विक मानवी चारित्रिक ईमान।
बेच बाच भर खचाखच का लेते स्वज्ञान।।
सदाचारी देवपुष्प मानव भी हैं लेते शिक्षा।
हरिश्चन्द्र रामचन्द्र की हो रहीहै समीक्षा।।
मौन दर्शक समाज है आश्रित सरकार।
बदल जाता पाठ्यक्रम बदलते सरकार।।
नित नवीन नव प्रयोग नवाचार नाम धर।
हैंआतुर करने को सुधार शिक्षा में बहुबर।। सब काम अब आम झाड़ू  भोजन धाम।
अध्यापक लग रहे करने सरकारी काम।।
आपरेशन शिक्षा बलात्कार परीक्षा पैटर्न।
ला रहा बदलाव जिम्मेदारी ले ले यूटर्न।।
आस विश्वास डोर थामे बड़ रहे हैं कदम।
पूर्ण होगे हम होगी आस भी पूर्ण हरदम।।।

मंगलवार, 24 फ़रवरी 2015

कान

मंगल सकल होहि नित सबही।
कानन सुनही हरि गुन जबही।।
छोडि छाडी माहुर बतकही।
सुनहु श्रवन नित सद बत सही।।
लगि लगन कुतरक जोइ भाई।
भाग विभव सब देइ गवाई।।
कनक फूल जब कानन सोहा।
हरष सहित सब नर मन मोहा।।
अहि भवन कहत जन उस काना।
जो न लहहि सुख हरि गुन गाना।।
कानहि मिलै सकल सुख मूला।
अख नक जिभ त्वचा सम तूला।।
बापू कपि  दिखाव तिन बाता।
जगत पिता निज सूत न सताता।।
नाक कान बिनु नर न सु हाही।
भगिनी आख कस चश्मा पाही।।
श्रुति सेवत जो जन मन माना।
पाव नाक सुख इह जग जाना।।
होउ न कच्चा कान के भाई।
लेहहु असन बसन निज साईं।।

दर्पण

आज मैंने दर्पण को देखा बोलते,
देखने वाले को खुद संवाद करते।
मैं अद्भुत अलबेला आवश्यक,
सामने वाले के भाव का वाहक।
मन-तन के रोम रोम का दर्पन हूँ,
बचपन से बुढ़ापे का मैं साक्षी हूँ।
कभी बस्तु था अब मैं स्वरूप हूँ,
कभी यहाँ वहाँ था अब सर्वत्र हूँ।
कभी आईना था अब आई ना हूँ,
देखने वालों को आईना दिखाता हूँ।
हर सच बतला हर झूठ छिपाता हूँ,
अहंकारी नहीं निरा स्वाभिमानी हूँ।
एक-अनेक क्या मैं भाई सबका हूँ,
तन का ही क्यों मैं भाई मनकाभी हूँ।
जागीरों से तकदीरों का दर्शन हूँ,
साइड से टाइड तक का गाइड हूँ।
औरंगजेब-पद्मावती का गाथा हूँ,
पद्मावत की नागमती का माथा हूँ।
इतिहास क्या वर्तमान बनाता हूँ,
मैं नहीं कभी किसी को सताता हूँ।
पर मानव की हर बात बताता हूँ,
मैं टूटते अति घातक हो जाता हूँ।
जमीन से असमान तक फैला हूँ,
हवा से पानी तक खबर रखता हूँ।
घर बाहर क्या हर जगह नाहर हूँ,
आकना मत कम मैं जग ताहर हूँ।
अलंकार हूँ मैं तो रस राज भी हूँ,
वियोग मेंक्षोभ संयोग में श्रृंगार हूँ।
आईना दिखाते हो गया दर्पण हूँ,
समाज ही नहीं समग्र को अर्पण हूँ।
दाये बाये उपर नीचे का विचार हूँ,
हो गया हर वाहन साइड मिरर हूँ।
हाथ जोड़ जन जन हेतु मैं प्रार्थी हूँ,
रखना मान सबका बन परमार्थी हूँ।

रविवार, 22 फ़रवरी 2015

सुन्दर

मन सुन्दर तन सुन्दर जन सुन्दर
ऋतुराज के आगोश में हो जाय जग सुंदर।
सर्वत्र फैला है इस धरा पर सुन्दर
मन अखियाँ से पेखे तो देखे पग पग सुंदर।
शुक सुंदर मैना सुंदर गागर सुंदर
पल पल पलटत भेष निरख है सागर सुंदर।
नर सुंदर नारी सुंदर माया सुंदर
कृपा कटाक्ष सर्वेश्वर के होतेहर पल सुंदर।
बहना सुंदर भाई सुंदर ताई सुंदर
मन माने तब लगे माई का हर रूप  सुंदर।
हर कवि ने देखा नजरों से सुंदर
हर क्षण होवे जिसमे नवीनता वो है सुंदर।
जो है सुंदर वो है इन्द्रिय सुख सागर
गुलाब के काटों में उलझत है गुन आगर।
देखन मिस मृग बिहग तरु बारम्बार
थम जाय कदम सहृदय स्नेह से शत बार।
संध्या परी की रूप राशि पर हर बार
हो जाते मन भृंग यहा अगनित न्यौछावर।
गति अपनी अपनी पाती जीत हार
मौसम में जाने कैसे कहाँ कब छाये बहार।
इन फैक्ट मलय सुंदर मलयानिल सुंदर
पर रस लेने को आतुर इनका हैं बिषधर।
जब सद आवृत से हो जाय हम सरवर
तब सुन्दरतम मानव बन होगे परम सुंदर।।

गुरुवार, 19 फ़रवरी 2015

ऐसा ही ढंग नित फैले दिग दिगंत

मिलता जहां सब कुछ ओ है कहाँ
यही है यही है यही है।
मैं पहुचा मिर्धा कालेज
जो था बहुत ही लवरेज
ढंग देख यहाँ मैं दंग हुआ
अचानक ध्यान भंग हुआ
भारत को ऐसा ही होंना चाहिए
ऐसी ही संस्कृति चलनी चाहिए
बता दू क्यों मैं प्रसन्न हुआ
पहले देता हूँ उनको दुआ
सारा स्टाफ सक्रिय वहाँ
भाषा व्यवहार सुघड़ तहाँ
तिलक लगा गुड़ खिला देते
शुभकामना की बहार बहा देते
सबमे क्या सुंदर ममत्व ला देते
भारतीयता सब तक फैला देते
यह दूर नहीं नागौर ही है
कालेजो का सिरमौर भी है
उम्मीद यही मैं करता हूँ अब
इसे बनाये रखने ताकत दे रब
ढंग यह हो न जाय कभी भंग
चलता रहे कालेज के संग संग।
जिसे देखा मैंने छियालिसवे वसंत।
ऐसा ही ढंग नित फैले दिग दिगंत।।

समन्दर

मिले कब छाया काया से
हर बिन्दु कब करता समागम सागर से।
राम श्याम कब आये काम
दुनिया है कैसे कैसे का इकअद्भुत धाम।
यहाँ सब है सब हैं निज रूप
नजर अपनी अपनी पर कोई नहीं कुरूप।
आश डोर थामे चले धाम
दुनिया है समन्दर जहाँ मिले मोती निधान।
आशा ही अमर धन जहाँ
समन्दर अकूत बहू सम्पदा का दाता यहाँ।
पर विनय को दासता मान
जलधि ने भी नहीं किया राम का सम्मान।
वीर भोग्या वसुन्धरा भी यहाँ
वीर रूप से काप गया क्षनमें समन्दर वहाँ।
मान मनौत मानी माने
धूर्त कपटी धोखेबाज झूठा तो झूठा जाने।
हर काल का बताते हाल
समन्दर रूप राशि डूब मरने सब बेहाल।
याचना से कभी नहीं बना काम
युद्ध सागर में डुबोया कुल कर अभिमान।
समन्दर में मोती ढूढ़ते सभी
मोती महल वासी भी  न पाय सुख सभी।
जल बिच मिन पियासा रे
जग समन्दर से पिपासु तृप्त हो जाता रे।
कर्मधर्मश्रधाश्रम साथी
कर मजबूत विश्वास चड़े समन्दर हाथी।
हो जाय पार जग सागर
निर्भय निर्विकार को न डराये समन्दर।

मंगलवार, 17 फ़रवरी 2015

जीवन पथ

जीवन ज्योति जले मन आनन्द पले,
सत्य सहारे सारा संसार सार संचय सरे।
भूल भूलैया की दुनिया हम भूले भूले,
झूठ लता नित कपट तरुवर पर फूले फरे।।
शिव शिव जपत लगाये अशिव गले,
हे महाकाल महेश्वर मानव मति मत मरे।
जग कृत सत्कर्म सदा सुमन सु खिले,
अशिव सोच कर्म धर्म मन मर्माहत करे।।
सुन्दर सुखद सुवासित मलयानिल,
बादल बन निज नीर जीवन संचार करे।
धर्म सफलता प्रेम बृक्ष से उन्मीलित,
मानव मन भक्ति भाव आश विश्वास भरे।।
आना जाना रीत जहा दे सिख हमे,
बुरे सपने सा भूल बुरे को कदम आगे धरे।
सत्य शिव सुन्दर जीवन पथ हो,
हर कद मूल मन्त्र कष्ट सूल काटे सिगरे।।