सोमवार, 10 दिसंबर 2012

परिवेश

उसकी भावना उसका रुप,
जैसे हवन का अधजला धूप!
परिवेश ने ऐसा बनाया,
उसने मुझे सुनाया!
बात होने लगी, तर्को की झङी लग गयी!
फिर ध्यान आया अरे हमारे अक्ल को तो गाय चर गयी!!
हम केवल हम हमारे को देख रहे हैं,
थोङा देश का राजनीति पर क्यों नहीं सोच रहे हैं!
परिवेश एक दो से नहीं,
यह बात है हरदम सही!
हर तरफ मानवता रो रही है,
दानवता फल फूल रही है!
अपने अपने को बनाने में लगे हैं,
दूसरे दूसरे को देखने में लगे हैं!
दूसरों की रत्ती भर कमी पहाङ सी दिखती है!
स्वयं की पहाङ सी कमी बिल्कुल नहीं दिखती है!!
बन्द करो पर परखना ,
शुरु करो अपने आप को देखना!
सब अपने आप को देखने लगें,
अपने आप को परखने लगें!
अपने आप को सुधारने लगें,
अपने आप पर विचारने लगें!
निश्चित है सुधरेगा परिवेश!
बन जाये भारत फिर गरिमामय देश!!
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शनिवार, 8 दिसंबर 2012

धन रोग का यायावर


अगर व्यक्ति रोगी हो तो निदान सम्भव,
पर व्यक्ति ही रोग हो--तब क्या सम्भव?
रोग एक हो तो कुछ कहें,
पर रोग ही रोग हो---तब क्या कहें?
प्रेम रोग,खेल रोग, देह रोग और हैं,
सुख रोग, मानसिक रोग और हैं!
पर धन रोग सबसे खोटा है,
और यही तो सबसे मोटा है!
उत्कृष्ट है यह, और हैं इस पर सारे के सारे रोग न्यौछावर!
इसके लिये इसके रोगी को बनना पङता है यायावर!!

शुक्रवार, 7 दिसंबर 2012

भुवनेश्वरी वन्दना



भुवनेश्वरी करु तव श्री चरण वन्दन मॉ कमलेश्वरी!
मयूर हंस कमल प्रस्तर आसन!
शोभित सदा वदन पर अमल वसन!!
तार वीणा जुगल कर झंकृत!
माला स्फटिक कर कमल अलंकृत!!
वेद धर एक हाथ करती सबको सनाथ!
देव त्रय वन्दन करते रहते जोड जुगल हाथ!!
हम दीन-दुःखी का सतत नमन!
नमन स्वीकार कर कर दुःख समन!!
श्री भर जन जन में मॉ धनेश्वरी!
करु तव श्री चरण वंदन मॉ भुवनेश्वरी!!
जगदीश्वरी परमेश्वरी सुरेश्वरी देवेश्वरी!
वागीश्वरी योगेश्वरी विश्वेश्वरी धर्मेश्वरी!!
सर्वेश्वरी ब्रह्मेश्वरी अखिलेश्वरी माहेश्वरी!
करु तव युग पद वंदन हे भुवनेश्वरी!!

गुरुवार, 6 दिसंबर 2012

आदमी और मौसम

मौसम सुहावना हो हमेशा,
हमेशा मनभावन हो निश्चित नहीं!
आदमी एक सा हो हमेशा,
कभी- कभी मौसम की तरह-
बदलते ऑसूं हो---
आदमी के आयाम और व्यक्तित्व,
एक सा हरदम हो निश्चित नहीं !!
पर हमने देखा है मौसम को ,
तमाम बार रंग बदलते-----
और---- हमने देखा है आदमी को,
तमाम बार ढंग बदलते!
ऐसे कितने है मौसम -
जो अपने समय से होते है,
हमे नहीं मालूम कि कोई ऐसा आदमी है,
जो हमेशा एक सा रहता निश्चित नहीं!!
विज्ञान और तकनीकी की बात,
ठोस द्र्व व पदार्थों पर प्रयोग की जाती है!
आदमी भी आदमी पर नहीं करता,
करता है मनोविज्ञान प्रयोग आदमी पर,
मौसम-विज्ञान मौसम पर,
पर आदमी और मौसम दोनो पर करे प्रयोग-
ऐसा विज्ञान है क्या-- निश्चित नहीं!!
असमय का मौसम संकेत दे देता है---
भले ही भयंकर हो ,
लेकिन आदमी संकेत नहीं देता-
बल्कि चेत चैतन्य और विश्वास को-----
तोङता हुआ,वह साफ सपा- बसपा की तरह----
पहले ही नहीं------एकाएक होता है,
अन्तर है समानता है,मौसम व आदमी में!
ऐसा है क्या----निश्चित नहीं!!

बुधवार, 5 दिसंबर 2012

वित्त-पुत्र

धन जीवन में क्या बन कर आया,समझ न पाया पर गाया!
हर तरफ मानो मानव ने अर्थ पर है चित्त लगाया!!
मैं घूमता हुवा संसार में,अमीर व गरीब को पाया!
वाह रे बनाने वाले, एक को धनवान एक को धनहीन बनाया!!
दोनो है मानव दोनो के पास हैं कमियॉ!
वे सोचते हैं कैसे मिटेगी ये खामियॉ!!
लाल की पूर्णता को भगवान ने दोनो को दिया!
लाल की कमी को भगवान ने दोनो को दिया!!
लाल ही तो है जो लाल को बना सकता है!
लाल लाल से नहीं,लाल लाल से है!!
लाल को हम ढूढते लाल को हम चाहते है!
लाल के लिए ही तो सब कुछ को त्यागते है!!
मनीषियों ने चरित्र व वित्त को चुना!
जिसमें वित्त को त्यागना गुना!!
अद्यतन समाज क्या कहता है!
इसको भी तो सुनना होता है!!
चरित्र को छो्ङो वित्त को चुनो!
चरित्र बेचकर भी वित्त को गुनो!!
चरित्र कुछ नहीं,वित्त सब कुछ तो है!
यह रिश्ता है नाता है, माता-पिता भी तो है!!
इसके बिना न चल सकता है कभी किसी का कार!
इसके बिना न कर सकता है कोई किसी को स्वीकार!!
माता भूल जाती पुत्र को, अगर न उसके पास वित्त होता!
भाई भूल जाता भाई को, अगर न उसके पास अर्थ होता!!
कोई किसी को याद करके ही क्या करता!
अर्थ के बिना किसी का कुछ नहीं चलता!!
अर्थ अब तो दिल को भी खरीदता है!
वह दिल जो न बिकता अब बिकता है!!
अर्थ बल पर रुप व गुन भी पा सकते है!
यही नहीं--अर्थ के द्वारा अब हम सब कुछ पा सकते है!!
इसलिए अब सब कोई कह सकता है!
दुनिया में अर्थ ही सब कुछ करता है!!
लेकिन सवाल है मेरा क्या दुनिया में और कुछ कुछ नहीं करता!
ऐसा नहीं है मानवों,कि अर्थ ही है जो सब कुछ करता!!
पर अर्थ के बिना किसी का कुछ नहीं चलता----
अर्थ देवो भव,अर्थ मातृ भव,अर्थ पितृ भव!
आतिथ्य अर्थो भव,अर्थ ही सर्वस्व भव!!
यही रुप अब मचलता---क्यो?
कि अर्थ के बिना किसी का कुछ नहीं चलता !!

मंगलवार, 4 दिसंबर 2012

।। बतायें हमारे ढंग ये पंचदस छंद।।

   ।। बताते हमारे ढंग,खास पन्द्रह छंद।।
अंगना की ज्योति फैल, अंगना स्वरुप देख!
जिस तरह रवि ज्योति देख, फैलती अरुण रेख !!१!!

बौरौ का जैसे भ्रमर ,करे सदा रस पान!
वैसे ही नर रुपों की,करता है मधु पान !!२!!

जटाकटाह युक्त देव,भागिरथी धारिणी!
बाल शशांक युक्त भाल,हौं मोहि उद्धारिणी !!३!!

सत्यासत्य प्रियाप्रिय हि,क्रूराक्रूर संग्रहि!
व्यय अव्यय गुनावगुनी ,वेश्या व नृपनीति हि !!४!!

कर दो कान्ति युक्त मुझे,हे देवाधि महान!
मिले शुभ कंचन कामिनि,होवे नित सम्मान !!५!!

अचेतन दिनमणि जैसे,नहि सहे सूर्यपाद!
तो तपस्वी नर कैसे,सह सकता परमाद !!६!!

विजयी होय पुण्यात्मा,रस व्यक्त कवीश्वर!
भय नहीं जिनके यश में,जरा जरा मृत्युकर !!७!!

अज्ञानी ज्ञानी प्रसन्न, आसानी से होय!
प्रसन्न न होय ब्रह्म से, जो नर अल्पज्ञ  गोय !!८!!

ब्रह्मकृत मौन आवरण, सदा मूर्खता गोय!
विद्वत समाज में सदा,मूर्खाभूूूषण होय !!९!!

कंचन बरन की बुलबुल, काहे को मनहीन!
मन में है यह सोचती,उल्लू से क्यो हीन !!१०!!

जॉत-पॉत की ऑच यह,करेगी कौन काम!
मानवता डुबोयेगी,तब होगी यह शान्त !!११!!

आचरण की दुहाइयॉ,उपदेशों तक लिप्त !
पुलिस पुतरिया पातकी,किसके है ये मित्त !!१२!!

जन जन की नीद हराम,यह किसका है काम!
कुर्सी तश्करी फेरी,नेता नमक हराम !!१३!!

शिक्षकों  की अध्यापकी,छात्रों की पढाई!
खुल जाती है कल्लई,जब परीक्षा आई !!१४!!

खुद को धिक्कारे शिक्षा,प्रतिभा खङी हताश !
राजनीति पंगु होगी,ढोते-ढोते लाश  !!१५!!
               ।।धन्यवाद।।





रविवार, 2 दिसंबर 2012

चौराहा





मैं निश्चिन्तता की खोज में----
कलुषित शोषित प्रताङित था विजय पथ पे,
मैं पहुचां एक चौराहे पे,
जहां मानवता दानवता का अद्भुत संगम था!
वह था कचहरी चौराहे पे
रोजी रोटी मात्र के लिए बहुत थे अस्थि मात्र,
पर वही थे ये छिननेवाले सुसंस्कृत ठेकेदार,
मैं यह सोचते चलता रहा---
चौराहा या चोर राहा
चू रहा है या चो रहा है
यह कचहरी है कच हरी है!
पर मैं तो यह समझा नहीं -क्या-कि
यह चौराहा ही था-
जो ईक्कीशवीं शदी का था,
गांधी-लोहिया का तो व्यक्तित्व था,
उनका विचार उन्हीं तक था.
लेकिन उनके शिष्य और उनकी शिष्य परम्परा ने,
उनको और उनके विचारों को
माया के दौर ने उनकी अस्मिता को चुनौती दे,
चौराहे पर ला दिया!
और स्वयं को विराट व महामाया का अंग बना लिया!
ऐसा है आज कागिरगिटो सा,समाज के पहरदारो की काया,
जो हर गली हर शहर के, चौराहो को ही है अब भाया!!